संघ का राष्ट्रवाद बनाम हिंदुत्ववाद
कांग्रेस पुराने सुर्रे छोड़ रही है और बीजेपी व संघ के विचारक उसका तुर्की ब तुर्की जवाब दे रहे हैं. इस बीच संघ गदगद है कि मुखर्जी ने मंच से वही आईना दिखाया, जो संघ इतने वर्षों से देश को दिखाता आ रहा है.
-
Total Shares
संघ का राष्ट्रवाद क्या हिंदुत्ववाद है...? क्या संघ गैर हिंदुओं को दोयम दर्जे का मानता है...? क्यों अधिकतर मुसलमानों को आस्तीन का सांप जैसा मानता है आरएसएस...? संघ की निगाह में राष्ट्र के मायने क्या हैं...? पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की संघ यात्रा के बहाने ये सवाल एक बार फिर जी उठे हैं. संघ के इतिहास को वर्तमान के साथ जोड़ने की कवायद चल पड़ी है.
कांग्रेस पुराने सुर्रे छोड़ रही है और बीजेपी व संघ के विचारक उसका तुर्की ब तुर्की जवाब दे रहे हैं. पुराने बयान, तस्वीरें और अखबारों में छपी कटिंग्स तलाशी जा रही हैं. इन तमाम कवायदों के बीच संघ गदगद है कि मुखर्जी ने मंच से वही आईना दिखाया, जो संघ इतने वर्षों से देश को दिखाता आ रहा है. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का..
संघ के विचारक और कई पुस्तकों के लेखक राकेश सिन्हा का कहना है कि पंडित नेहरू के बाद अब तो प्रणब दा ने भी भारत को पांच हजार साल से ज्यादा पुराना बताया है. यानी हमारी संस्कृति के लिखित दस्तावेज पांच हजार साल से भी पुराने हैं. सभ्यता तो उससे भी पुरानी है. जब दूसरे धर्म के प्रवर्तकों तक का कोई अता-पता नहीं था. भारत में सभी धर्म, संप्रदाय और मतों के मानने वालों का डीएनए एक ही है उसका नाम है हिंदुस्तान. तो एक भारत, एक विधान, एक निशान मानने वाला हिंदू ही है. संघ की निगाह में हिंदू धर्म से ज्यादा संस्कृति है, जीवन शैली है, हमारी सभ्यता का ध्वज है.
आधुनिक भारत के निर्माता डॉ.. केशव बलिराम हेडगेवार नामक पुस्तक के लेखक और संघ के विचारक राकेश सिन्हा का कहना है कि संघ ने कांग्रेस के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया. डॉ.. हेडगेवार तीन बार जेल गये. अंग्रेजों ने संघ की राष्ट्रवादी गतिविधियों को लेकर पाबंदी भी लगाई. संघ के स्वयंसेवक कांग्रेस के कार्यक्रमों में जाते थे और खादी पहनते थे. लेकिन एक समय ऐसा आया जब संघ को ऐलान कर कांग्रेस से अपने को अलग करना पड़ा. तब डॉ.. हेडगेवार ने कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति पर अपना सख्त विरोध जताया था. क्योंकि संघ का मानना था कि हिंदू-मुस्लिम एकता के बजाय पूरे भारतीय समाज की एकता की बात ज्यादा सही होती. क्योंकि हिंदू-मुसलमानों के अलावा भी अन्य धर्म और मतों के मानने वाले भारतीय भी उस वक्त थे. उन सबकी एकता यानी पूरे हिंदुस्तान की एकता की बात होती तो सही था. लेकिन कांग्रेस इसे मानने को तैयार नहीं थी.
कांग्रेस के 1933 के अधिवेशन में खिलाफत आंदोलन सहित कई मुद्दों पर अली बंधुओं की जिद के आगे गांधी नेहरू का झुकना भी डॉ. हेडगेवार को नागवार गुजरा और उन्होंने संघ को कांग्रेस से अलग होकर आजादी के आंदोलन में अपनी भूमिका तलाश ली.
वहीं आरएसएस के मीडिया विभाग के प्रभारी राजीव तुली का कहना है कि गांधी जी और डॉ. हेडगेवार की मुलाकात भी हुई थी. मुलाकात से पहले गांधी जी वर्धा में आरएसएस के शिविर में आये और स्वयंसेवकों से मुलाकात भी की थी. एक स्वयंसेवक से उन्होंने पूछा कि राम और कृष्ण की तस्वीरें तो यहां लगी हैं लेकिन गणेश राधा की तस्वीरें क्यों नहीं हैं. क्या आपलोग इनको भगवान नहीं मानते. इस पर स्वयंसेवक ने जो जवाब दिया तो बापू भी प्रभावित हुए क्योंकि उस स्वयंसेवक ने कहा कि हमने यहां भगवानों की तस्वीर नहीं देश के नायकों की तस्वीर लगाई है. बापू को हैरानी भी इस बात पर हुई कि शिविर में सारे स्वयंसेवक अपने खर्चे पर घर गांव खेड़े से वहां आये थे. वहां किसी की कोई जाति नहीं थी. जिससे भी पूछा गया उसने अपनी जाति हिंदू बताई.
बापू से डॉ. हेडगेवार की मुलाकात में संघ को आर्थिक सहायता पर भी चर्चा हुई. तब गांधीजी सोचते थे कि जमना लाल बजाज जैसे सेठ संघ को मोटी आर्थिक मदद देते हैं जिनकी वजह से ये सब चल रहा है. लेकिन बापू तब दंग रह गये जब डॉ. हेडगेवार ने उनको बताया कि सब कुछ स्वयंसेवकों की दी गई गुरुदक्षिणा से ही होता है. गांधीजी ने घंटा भर चली चर्चा के दौरान ये भी कहा कि दो आने में भोजन कैसे मुमकिन है जबकि कांग्रेस के शिविर में तो भोजन खर्च महंगा होता है. इस पर डॉ. हेडगेवार से सहयोगी ने गांधीजी से कहा कि सादगी का दिखावा नहीं बल्कि सादगी पर अमल किया जाए तो ये मुमकिन है. बाहर पर्णकुटी का साइनबोर्ड लिखकर अंदर विलासिता की सारी सुविधाएं जुटाने से लागत कम नहीं हो जाती.
बहरहाल, संघ का मानना है कि प्रणब बाबू का आना ऐसा मौका है जिसने पूरी दुनिया में संघ को एक बार फिर नजदीक से देखने की उत्सुकता जगा दी है. पुराने रिकॉर्ड खंगाले जा रहे हैं. लेकिन कांग्रेस और वामपंथी चाहे जो भी कहें हमारा ये प्रयोग फिर सफल रहा जब हम अपने कार्यक्रमों में विरोधियों को बुलाते हैं. ये संघ की परंपरा है कि वैचारिक विरोधियों को बुलाया जाए ताकि वो संघ को नजदीक से आकर देखें. फिर वो जो भी राय देते हैं संघ उसे सुनता है. फिलहाल प्रसिद्धि परांगमुखता के सिद्धांत पर अमल करने वाले संघ को प्रसिद्धि तो मिल ही गई. ये अलग बात है कि वो कांग्रेस और विरोधियों के बनाए गए बतंगड़ की वजह से मिली हो.
ये भी पढ़ें-
रिटायर होने के बाद भी मुद्दा हैं प्रणब और येचुरी अप्रासंगिक
मोदी की हत्या की साजिश पर संजय निरूपम का बयान मणिशंकर अय्यर से ज्यादा घटिया है!
साथी दलों से शाह का 'संपर्क फॉर समर्थन' यानी 'बीजेपी को भी डर लग रहा है'
आपकी राय