कांग्रेस खुश है के वो अपनी मंज़िल के करीब है
कहा जाता है कि गिरने की एक सीमा होती है. जब गिरने वाला उस सीमा पर पहुंच जाता है तो उसके बाद वो सिर्फ ऊपर ही उठ सकता है. हां ये जरूरी है कि गिरने वाले में उठने की इच्छा हो. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ भी यही हो रहा है.
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कहा जाता है कि गिरने की एक सीमा होती है. जब गिरने वाला उस सीमा पर पहुंच जाता है तो उसके बाद वो सिर्फ ऊपर ही उठ सकता है. हां ये जरूरी है कि गिरने वाले में उठने की इच्छा हो. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ भी यही हो रहा है और जिस गति से हो रहा है उससे लगता है पार्टी जल्दी से जल्दी अपनी गति को प्राप्त हो जाना चाहती है ताकि ऊपर उठने वाला चरण भी जल्दी आ सके. दो बातें इसकी तरफ इशारा करती है.
लक्ष्य से न भटकना
अब ये तो पंजाब में अकालियों से जनता इतनी त्रस्त हो चुकी थी कि उसे बदलाव करना था. और जब आम आदमी पार्टी ये यकीन नहीं दिला पायी कि उसमे दिल से पंजाबियत है, हो सकता है अरविन्द केजरीवाल का 2014 में दिल्ली को बीच मंझधार में छोड़ जाना वहां के लोगों को अभी भी याद हो, तो पंजाब के लोगों के पास कांग्रेस के आलावा और कोई चारा नहीं था. अन्यथा कांग्रेस का उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में प्रदर्शन उम्मीद के मुताबिक़ ही रहा, अपने गिरने की सीमा की ओर. पार्टी का सूपड़ा दोनों जगह ही साफ हो गया.
मणिपुर और गोवा में कांग्रेस का प्रदर्शन पार्टी की उम्मीद के विपरीत रहा. हाल के चनावों में पार्टी इन दोनों राज्यों में सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी. ऐसा लगा कि पार्टी की राज्य इकाइयां सरकारें बना लेंगीं जो कि पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व कभी नहीं चाहता था. मणिपुर में कांग्रेस की सरकार 2002 से थी जबकि गोवा में पार्टी विपक्ष में थी.
पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व तुरंत हरकत में आ गया और इसके वरिष्ठ नेताओं ने कुछ ऐसा किया कि कांग्रेस के हाथ से मौका निकलकर बीजेपी के पास चला गया. स्थानीय नेता चिल्लाते रह गए कि हमारा वरिष्ठ नेतृत्व सरकार बनाने का दावा पेश करने में देरी कर रहा है लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा. ये कांग्रेस का कुशल नेतृत्व ही था कि लक्ष्य से न भटकते हुए उसने राज्य इकाइयों का दबाव सहा और बीजेपी को सरकार बनाने दिया. परिणाम ये रहा कि कांग्रेस और सिकुड़ गयी है और अपने गिरावट के सबसे निचले स्तर के और करीब पहुंच गयी है.
नेतृत्व की निरंतरता
कांग्रेस में हमेशा से ही इस इस बात का ख़ास ख्याल रखा गया है कि पार्टी की छवि कभी भी नेहरू-गांधी परिवार के आयाम से हटकर और कुछ न हो पाए. ये जरूर है कि पार्टी अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है लेकिन, कांग्रेस के रणनीतिकारों ने ध्यान रखा है कि पार्टी अपने खूंटे से छूटकर एकदम ही बिखर न जाए. क्योंकि अगर ऐसा होता है तो फिर उठने की सम्भावना ही खत्म हो जाएगी और साथ में बोनस ये है कि जब पार्टी अपने सबसे बुरे दौर से निकलकर फिर से आगे की सोचने लगेगी तो उसके पास भुनाने को रेडीमेड नेहरू-गांधी नाम होगा, जैसा कि इसके अच्छे दिनों में था. कांग्रेस जिसने भारत के 70 वर्षों के आजाद इतिहास में लगभग 55 साल देश पर राज किया है वो अब 6 राज्यों तक सीमित होकर रह गयी है. बिहार में कांग्रेस सत्ताधारी महागठबंधन की सदस्य है लेकिन उसकी हैसियत सबसे जूनियर पार्टनर से ज्यादा कुछ नहीं है.
कर्नाटक और पंजाब के आलावा पार्टी के पास अब छोटे राज्य ही बचे हैं जैसे मेघालय, मिजोरम, हिमाचल प्रदेश और पुडुचेरी. कर्नाटक, हिमाचल, मेघालय और मिजोरम में अगले साल चुनाव होने हैं और कांग्रेस नेतृत्व की कुशलता है कि अभी से ये कहा जा रहा है कि पार्टी कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश हारने जा रही है. और अगर कांग्रेस ये चारों राज्य हार जाती है तो फिर पार्टी के पास केवल तीन राज्य सरकारें ही रह जाएंगी. मंज़िल फिर बहुत करीब होगी. सो हम ये कह सकते हैं कि कांग्रेस के 'अच्छे दिन' आने में अब ज्यादा दिन नहीं बचे हैं. उम्मीद है कि पार्टी जल्दी ही अपने रसातल को प्राप्त कर पायेगी ताकि ये अपने पुनर्निर्माण की अंतिम पटकथा लिख सके. पार्टी के 'गिरने की जो यात्रा' 2010 के बिहार चुनावों से शुरू हुई थी वो अब अपने अंतिम दौर में है. हालाँकि ये दौर बहुत उथल-पुथल भरा रहा है और कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व पर लगातार सवाल उठाये गए हैं लेकिन लक्ष्य से न भटकते हुए पार्टी अपने नेतृत्व की निरंतरता को बरक़रार रख पायी है.
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