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Updated: 08 दिसम्बर, 2019 05:39 PM
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देवेंद्र फडणवीस ने अजित पवार के साथ मिल कर सरकार बनाने को लेकर जो वजह बतायी है उसके मुताबिक तो शरद पवार (Sharad Pawar) की भी अहम भूमिका लगती है. महाराष्ट्र में विपक्ष के नेता देवेंद्र फडणवीस का दावा है कि अजित पवार ने ही सरकार बनाने के लिए उनसे संपर्क किया था. महाविकास अघाड़ी (Maha Vikas Aghadi) की सरकार बन जाने के बाद शरद पवार अब नये मिशन पर काम करने लगे हैं और इस दौरान हर इंटरव्यू में वो किसी न किसी एक बात पर खास जोर देते नजर आते हैं - ये ऐसी बातें होती हैं जिनमें एक संकेत होता है. संकेत एनसीपी और विपक्ष को लेकर भविष्य की तैयारियों की होती है.

एक ताजातरीन इंटरव्यू में NCP नेता शरद पवार ने जो बातें बतायी हैं, उनसे तो यही लगता है कि अब वो राष्ट्रीय स्तर पर महाराष्ट्र के प्रयोग दोहराना चाहते हैं - और इसके लिए विपक्षी खेमे को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ बतौर विकल्प पेश करना चाहते हैं.

महाराष्ट्र मॉडल के साथ नये मिशन पर शरद पवार

देवेंद्र फडणवीस ने अचानक आधी रात को तैयारी और तड़के उठकर नाश्ते के वक्त मुख्यमंत्री पद की शपथ क्यों ली - ये सवाल बीजेपी और विपक्ष के नेता सा पीछा नहीं छोड़ रहा है. लिहाजा धीरे धीरे वो अपना पक्ष रखने लगे हैं. धीरे धीरे और भी खुलासों के संकेत देते हुए अभी देवेंद्र फडणवीस ने अजित पवार के बहाने शरद पवार को भी लपेटने की कोशिश की है.

देवेंद्र फडणवीस ने ये तो पहले ही बता दिया था कि अजित पवार ने एनसीपी के 54 विधायकों के समर्थन का आश्वासन दिया था, अब आगे की कहानी भी थोड़ी सी बता दी है, ‘उन्होंने मेरी कुछ विधायकों से बात कराई जिन्होंने मुझसे कहा कि वे भाजपा के साथ जाना चाहते हैं... अजित पवार ने मुझसे ये भी कहा कि उन्होंने इस बारे में शरद पवार से भी चर्चा की है.'

फिर देवेंद्र फडणवीस की मानें तो पूरा खेल शरद पवार खेल रहे थे और अजित पवार मोहरा भर थे जिन्हें एक मिशन पर लगाया गया था और उसे अंजाम देकर वो फिर से पुराने मोर्चे पर आ डटे हैं. अगर वास्तव में ऐसा हुआ है तो जाहिर है शरद पवार अपने खेल में उलझा कर बीजेपी से बदला ले रहे थे. एक फायदा ये भी रहा कि बीजेपी के अचानक कर्नाटक की तरह सरकार बना लेने से विपक्षी खेमा जो सोच विचार कर रहा था, छोड़ कर सीधे सरकार बनाने के लिए तैयार हो गया. शरद पवार यहां तक तो पूरी तरह कामयाब रहे.

sharad pawar and narendra modiमोदी के खिलाफ विकल्प खड़ा करने का पवार का सपना महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार की जिंदगी से सीधे जुड़ा है!

शरद पवार ये तो मानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीजेपी के सबसे बड़े नेता और बेहद लोकप्रिय हैं, लेकिन उनके कई गलत फैसलों की वजह से लोगों को विकल्प की तलाश है - अगर कोई खुद को विकल्प के तौर पर पेश किया होता तो उसे कामयाबी जरूर मिली होती.

शरद पवार भी मानते हैं कि बिखराव के चलते ही विपक्ष की ओर से कोई विकल्प पेश नहीं कर सका. कहते हैं, 'हमें मिल कर काम करना होगा, हमें लड़ना होगा - और इस दिशा में अगर कोशिश होती है ये मेरा कर्तव्य है कि मैं भी उससे जुड़ा रहूं.'

महाराष्ट्र में एक दौर ऐसा भी देखने को मिला जब शिवसेना और कांग्रेस नेताओं को लग रहा था कि शरद पवार एक खास दिशा में बढ़ रही बातचीत को पटरी से उतारने की भी कोशिश कर रहे हैं. ये बात तब सामने आयी जब कांग्रेस के सीनियर नेता और शिवसेना नेतृत्व की सीधी मुलाकात हुई, उससे पहले हर संदेश वाया शरद पवार ही एक दूसरे के पास पहुंच रहा था. फिर भी बीजेपी को सत्ता से दूर रखने की जिद के चलते कई तरह के समझौते करते हुए कांग्रेस और शिवसेना दोनों ही आगे बढ़े - और अंत भला तो सब भला. क्रेडिट तो शरद पवार को मिला ही, ये भी माना ही जा रहा है कि उद्धव ठाकरे सरकार की कमान भी शरद पवार के ही हाथों में है.

छोटा सा ही सही एक सफल प्रयोग के बाद शरद पवार ऐसी स्थिति में तो पहुंच ही गये हैं कि दूसरे राज्यों में भी क्षेत्रीय नेताओं को महाराष्ट्र मॉडल समझा सकें. 2024 तो अभी बहुत दूर की बात है, लेकिन दिल्ली, बिहार और पश्चिम बंगाल में तो शरद पवार महाराष्ट्र की तर्ज पर बीजेपी के खिलाफ बाकी दलों को साथ लाने की कोशिश जरूर करेंगे, लगता तो ऐसा ही है. चुनाव से पहले नहीं भी संभव हो पाये तो नतीजों के बाद का विकल्प भी खुला है - और महाराष्ट्र मॉडल तो उसी पर आधारित ही है.

ट्रैक रिकॉर्ड तो ठीक नहीं है फिर उम्मीद कैसे?

2015 में बिहार में भी बीजेपी के खिलाफ एकजुट विपक्ष के महागठबंधन की सरकार बनी थी. महाराष्ट्र मॉडल उससे इस मामले में अलग कहा जाएगा क्योंकि ये चुनाव पूर्व गठबंधन को तोड़ कर नये समीकरणों के साथ नया गठबंधन खड़ा किया गया है.

महाराष्ट्र में अब तक की जो भी हलचल देखने को मिली है, उससे अभी तो ये यकीन नहीं हो रहा कि महाविकास अघाड़ी सरकार कब तक चल पाएगी. नागरिकता संशोधन बिल को लेकर ही शिवसेना के स्टैंड पर कांग्रेस ने नाक-भौं सिकोड़ना शुरू कर दिया है. टकराव के मुद्दे तो अभी बहुतेरे हैं - सनातन संस्था पर बैन की मांग और उनके नेताओं की गिरफ्तारी की डिमांड भी.

बिहार में महागठबंधन सरकार डेढ़ साल चल पायी थी और कर्नाटक में जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन भले ही टूटा न हो, लेकिन सरकार तो सवा साल में ही चली गयी. महाराष्ट्र में ये सिलसिला कब तक चलता है अभी तो बहुत भरोसा नहीं हो रहा है.

विपक्षी एकजुटता का ट्रैक रिकॉर्ड ठीक नहीं रहा है. सिर्फ 2019 के आम चुनाव के दौरान ही नहीं, पहले के चुनावों में भी तीसरा मोर्चा खड़ा करने की खूब कवायद हुई है, लेकिन पूरी तरह नाकाम साबित हुई है.

2019 में राहुल गांधी के प्रधानमंत्री पद की जिद के चलते ही फेल हुआ - विपक्ष के बाकी नेता तकरीबन तैयार थे और शरद पवार हर बात से बखूबी वाकिफ थे. तब राहुल गांधी की प्रधानमंत्री पद पर आरक्षण जैसी दावेदारी थी तो ममता बनर्जी और मायावती जैसे नेता भी ताक में बैठे हुए थे. कोशिश तो चुनाव नतीजों से पहले आये एग्जिट पोल के बाद भी हो रही थी - तब सुनने में आया था कि विपक्ष बीजेपी को अलग कर किसी राष्ट्रीय सरकार जैसी व्यवस्था पर सोच रहा है. सारी की सारी तैयारी धरी रह गयी जब चुनाव नतीजे आये और बीजेपी पहले से भी ज्यादा सीटें जीत कर बहुमत हासिल कर ली. वैसे महाराष्ट्र मॉडल और अब तक के विपक्षी एकजुटता की कोशिशों में एक बड़ा फर्क ध्यान खींचने वाला है - महाराष्ट्र को लेकर बने क्षेत्रीय महागठबंधन में राहुल गांधी की कोई भूमिका नहीं मानी जा रही है. ये बात अलग है कि विधानसभा स्पीकर नाना पटोले और उद्धव कैबिनेट में कांग्रेस कोटे से मंत्री बने नितिन राउत दोनों ही राहुल गांधी के करीबी बताये जाते हैं. पृथ्वीराज चव्हाण, अशोक चव्हाण और सुशील कुमार शिंदे का मेनस्ट्रीम से बाहर होना भी राहुल गांधी के वीटो की वजह से ही माना जा रहा है.

शरद पवार का कहना है कि उनकी दो-तीन महीनों से राहुल गांधी से कोई बात नहीं हुई है - और अगर शरद पवार और राहुल गांधी की कोई बात नहीं हुई, इसका साफ मतलब है राहुल गांधी का महाविकास अघाड़ी के गठन में कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं रही. शरद पवार कांग्रेस में सीधे सोनिया गांधी से ही बात करते रहे. आदित्य ठाकरे ने भी शपथग्रहण को लेकर जो तस्वीर ट्विटर पर डाली थी उसमें सोनिया गांधी ही थीं. फिर तो राहुल गांधी सीन में कहीं भी नहीं रहे.

शरद पवार की तैयारियों से ये भी लग रहा है कि महाराष्ट्र से आगे के रास्ते में जरूरी नहीं कि राहुल गांधी भी विपक्षी लामबंदी का हिस्सा हो सकते हैं. महाराष्ट्र को लेकर जो प्रयास हुए उसमें कांग्रेस के क्षेत्रीय नेताओं के अलावा सोनिया गांधी की तरफ से अहमद पटेल और मल्लिकार्जुन खड़गे ही शुरू से आखिर तक सक्रिय दिखे. प्रियंका गांधी तो चुनाव प्रचार में भी महाराष्ट्र नहीं गयीं थीं, हां, राहुल गांधी ने जरूर कुछ रैलियां की थी.

क्या राहुल गांधी की वजह से ही विपक्ष एकजुट नहीं हो पाता?

ऐसा 2019 के आम चुनाव को लेकर जरूर कहा जा सकता है, लेकिन 2015 बिहार महागठबंधन में राहुल गांधी की अहम भूमिका मानी गयी थी. राहुल गांधी के दबाव में ही लालू प्रसाद को नीतीश कुमार को नेता घोषित करना पड़ा था - और बदले में नीतीश महागठबंधन में कांग्रेस की हिस्सेदारी का ख्याल रखते रहे. राहुल गांधी को लेकर मायावती और ममता बनर्जी जैसे नेताओं के अपने रिजर्वेशन रहे हैं, लेकिन सोनिया गांधी से किसी को कोई दिक्कत नहीं रही है.

अब तक जो बातें सामने आयी हैं उनसे तो लगता है शरद पवार विपक्ष को एकजुट करने का प्रयास महाराष्ट्र मॉडल के आधार पर ही करेंगे - और बहुत हद तक संभव है राहुल गांधी को इससे से दूर ही रखा जाये. एनसीपी नेता चाहे जिस मॉडल को आधार बनाकर देश के सामने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विकल्प पेश करने की कोशिश कर रहे हों - पहले तो शरद पवार को महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी सरकार को टिकाऊ साबित करना होगा क्योंकि तभी वो दूसरे राज्यों में मिसाल पेश कर सकेंगे.

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