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Updated: 28 मार्च, 2022 08:08 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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कहीं ऐसा तो नहीं कि शिवपाल यादव (Shivpal Yadav) रामायण और महाभारत के किस्से सुनाते हुए हनुमान का जिक्र करते हैं तो अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) को लगता है कि विभीषण की चर्चा हो रही है. हुआ ये कि इटावा में भागवत कथा का आयोजन हुआ था और वहां शिवपाल यादव के साथ साथ हरिओम यादव भी पहुंचे थे.

हरिओम यादव से मुलाकात होने पर शिवपाल यादव ने जो कुछ कहा वो हो सकता है बहुतों को अच्छा भी लगा हो. कुछ न कटाक्ष भी समझा होगा, लेकिन अखिलेश यादव को तो नागवार ही गुजरा होगा.

शिवपाल यादव ने कहा, हम तो चाहते थे कि हरिओम यादव विधायक बन जायें, लेकिन वो हार गये. हरिओम यादव, दरअसल, मुलायम सिंह यादव के समधी हैं और 2012 में सिरसागंज से समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) के टिकट पर विधायक बने थे, लेकिन 2022 के चुनावों से पहले पाला बदल कर बीजेपी में चले गये थे.

बीजेपी ने हरिओम यादव को सिरसागंज से ही टिकट दे दिया, लेकिन अखिलेश यादव ने उनके राजनीतिक शिष्य सर्वेश सिंह को उनके खिलाफ उतार दिया. हरिओम यादव 8,805 वोटों से चुनाव हार गये.

हो सकता है शिवपाल यादव ये कहना चाह रहे हों कि अगर अखिलेश यादव के साथ रहते और सपा के टिकट पर चुनाव लड़ते तो विधायक बन सकते थे. हालांकि, शिवपाल यादव की बातों से ऐसा ही लगता है कि वो चाहते थे कि हरिओम यादव चुनाव जीतते और विधायक बन जाते. ऐसा तभी हो पाता जब वो समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को शिकस्त दे दिये होते.

मुमकिन है भागवत कथा का प्रभाव हो या फिर शिवपाल ने प्रसंग का राजनीतिक इस्तेमाल करने की कोशिश की हो. अच्छे बुरे समय को लेकर समझाते हुए शिवपाल यादव ने कहा आमजन ही नहीं, बल्कि भगवान के सामने भी कभी कभी विषम परिस्थितियां आती हैं. कई तरह के संकट आते हैं, लेकिन अंत में जीत सत्य की ही होती है.

महाभारत के किरदारों का हवाला देकर शिवपाल यादव ने अखिलेश यादव को नसीहत देने की भी कोशिश की. शिवपाल यादव के मुताबिक, धर्मराज युधिष्ठिर को शकुनि से जुआ नहीं खेलना चाहिए था... अगर जुआ खेलना ही था तो दुर्योधन के साथ खेलते... अब ये भी सच है कि वो शकुनि ही थे, जो महाभारत करा दिये.

महाभारत में युधिष्ठिर जुए में हार गये थे और यूपी चुनाव में अखिलेश यादव हार गये हैं - तो क्या शिवपाल यादव, अखिलेश यादव को बीजेपी ने न टकराने को कह रहे थे? या फिर जैसे मुलायम सिंह यादव कांग्रेस और मायावती के साथ गठबंधन के खिलाफ हुआ करते थे, शिवपाल यादव भी जयंत चौधरी और ओमप्रकाश राजभर के साथ अखिलेश यादव के चुनावी गठबंधन पर टिप्पणी कर रहे थे?

शिवपाल यादव ने चुनावों से पहले ही अखिलेश यादव को नया 'नेताजी' मान लिया था - और अब हनुमान की मिसाल देकर शायद ये कहने की कोशिश कर रहे हैं कि वो राम जैसे भी हैं. जैसे चिराग पासवान बिहार चुनाव के दौरान अपने और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रिश्ते को समझाने की कोशिश करते रहे. समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह यादव को नेताजी कहा जाता है और शिवपाल यादव के अखिलेश यादव को नेताजी बताने का मतलब नेतृत्व स्वीकार करना ही समझा गया था.

शिवपाल यादव खुद के समाजवादी पार्टी का विधायक होने का दावा कर रहे हैं क्योंकि वो उसी के चुनाव निशान पर जसवंत नगर सीट से विधानसभा पहुंचे हैं, लेकिन अखिलेश यादव उनको गठबंधन साथी ही मानते हैं. शिवपाल यादव का अलग ही पैंतरा नजर आ रही है और ये समझना मुश्किल हो रहा है कि वो चाहते क्या हैं?

शिवपाल से रामायण और महाभारत के किस्से सुनने के बावजूद अखिलेश को अपने चाचा में हनुमान से ज्यादा विभीषण होने का संदेह है.

शिवपाल को अब शिकायत क्यों

अखिलेश यादव को विधायक दल की बैठक में समाजवादी पार्टी का नेता चुना गया है. आजमगढ़ लोक सभा सीट से इस्तीफे के बाद ही ये साफ हो गया था कि अखिलेश यादव ही विधानसभा में विपक्ष के नेता की भूमिका निभाना चाहते हैं. 2017 में जब बीजेपी की सरकार बनी थी तो राम गोविंद चौधरी नेता, प्रतिपक्ष बने थे, लेकिन अखिलेश यादव ने इस बार खुद ही लड़ाई के मैदान में उतरने का फैसला किया है.

shivpal yadav, akhilesh yadavक्या अखिलेश यादव के लखनऊ पर फोकस करने की एक वजह शिवपाल यादव भी हैं?

विधायक दल की बैठक में समाजवादी पार्टी के सारे विधायक पहुंचे थे, लेकिन शिवपाल यादव को बुलावा नहीं मिला था. ऐसा भी नहीं कि ये सिर्फ शिवपाल यादव के साथ था. डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य को हराने वाली पल्लवी पटेल को भी नहीं बुलाया गया था.

शिवपाल यादव का कहना है कि वो तो समाजवादी पार्टी के ही विधायक हैं. मीडिया से बातचीत में शिकायती लहजे में कहते हैं, 'मैं तो सपा का ही विधायक हूं... पिछले दो दिनों से विधायक दल की बैठक में जाने का इंतजार कर रहा था, लेकिन हमें नहीं बुलाया गया. मैंने अपने तमाम कार्यक्रमों को स्थगित कर दो दिनों से लखनऊ में इसका इंतजार कर रहा था.'

मालूम नहीं शिवपाल यादव ये क्यों भूल जा रहे हैं कि अरसा बाद मिलने के बाद अखिलेश यादव ने शिवपाल यादव को न तो चाचा कह कर संबोधित किया, न ही पूर्व समाजवादी पार्टी के नेता या पूर्व मंत्री ही - बल्कि, प्रगतिशील समाजवादी पार्टी का नेता कह कर संबोधित किया था.

समाजवादी पार्टी के उत्तर प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम पटेल का भी कहना रहा कि वो बैठक समाजवादी पार्टी विधायक दल की बैठक थी और यही वजह रही कि दूसरे दलों के नेताओं को नहीं बुलाया गया. मतलब, साफ है कि सपा के सिंबल पर चुनाव लड़ने के बावजूद शिवपाल यादव को नरेश उत्तम दूसरे दल का नेता बता रहे हैं. नरेश उत्तम के मुताबिक, सपा के सहयोगी दलों की बैठक अलग से बुलायी गयी है जिसमें बाकी सभी नेताओं को बुलाया जाएगा. सपा नेता का कहना है कि अपना दल कमेरावादी की पल्लवी पटेल को भी इसीलिए नहीं बुलाया गया था.

बड़ा सवाल ये है कि आखिर शिवपाल यादव चाहते क्या हैं? क्या वो समाजवादी पार्टी ज्वाइन करना चाहते हैं?

क्या यही सोच कर शिवपाल यादव ने अखिलेश यादव के साथ गठबंधन में एक ही सीट पर समझौता कर लिया था?

क्या अपनी किसी खास रणनीति के तहत शिवपाल यादव ने सपा के टिकट पर चुनाव लड़ना स्वीकार कर लिया था?

तकनीकी तौर पर भले ही वो सपा के विधायक हों. भले ही विधानसभा में उनको समाजवादी पार्टी के विधायकों के साथ बैठने की जगह दी जाये, लेकिन व्यावहारिक तौर पर?

ये समझना थोड़ा मुश्किल हो रहा है कि शिवपाल यादव को सपा विधायकों की बैठक में शामिल होने की इतनी बेचैनी क्यों है? अगर उस बैठक में जयंत चौधरी या ओमप्रकाश राजभर नहीं गये तो शिवपाल को ऐसी कोई अपेक्षा क्यों है?

ये सब देख कर तो यही लगता है कि अखिलेश यादव का अब भी शिवपाल यादव पर यकीन न होना स्वाभाविक ही है. अगर शिवपाल यादव किसी और रणनीति पर काम नहीं कर रहे होते तो चुप भी रह सकते थे - भला मीडिया के सामने आकर ये दावे करने की जरूरत क्या थी?

2017 के चुनावों से पहले समाजवादी पार्टी में चल रहे झगड़े के दौरान मुलायम सिंह यादव बार बार कहा करते थे कि शिवपाल यादव को अखिलेश यादव ने साथ नहीं रखा तो पार्टी टूट जाएगी. अखिलेश यादव अपनी मुहिम में लगे रहे और अपनी रणनीति के तहत काम करते रहे. जब अखिलेश यादव का पूरी तरह पार्टी पर कब्जा हो गया तो खुल कर सामने आ गये - और पता चला शिवपाल यादव तकरीबन अकेले ही रह गये. शिवपाल यादव के सपोर्ट में सिर्फ वे नेता ही खड़े दिखे जो या तो हाशिये पर थे या पहले से ही अखिलेश यादव के निशाने पर आ चुके थे.

ये तो सच है कि शिवपाल यादव की समाजवादी पार्टी में अंदर तक पैठ रही है, लेकिन मुलायम सिंह के प्रतिनिधि या संदेशवाहक के तौर पर. अब अखिलेश यादव नेता हैं और वो जानते हैं कि शिवपाल यादव ने उनको नेताजी कहा जरूर है लेकिन वो उनके मन की बात कतई नहीं है. अगर शिवपाल यादव को नये सिरे से मौका मिला तो वो अपने अधूरे काम पूरे करने की कोशिश जरूर करेंगे - और ये सोच कर ही अखिलेश यादव फूंक फूंक कर कदम बढ़ा रहे हैं.

अखिलेश से अपेक्षा क्या है

क्या वाकई जिस बात का अखिलेश को शक है, शिवपाल अपनी हरकतों से उसके सबूत पेश कर रहे हैं?

विधानसभा चुनावों से पहले अखिलेश खुद चल कर शिवपाल यादव के घर गये थे. मतलब, शिवपाल यादव नहीं, अखिलेश यादव उनके पास गये थे. मुलाकात के ठीक बाद इंटरव्यू में शिवपाल यादव ने बताया भी था कि अखिलेश को उन्होंने नहीं बुलाया भी नहीं था. हुआ जो भी हो, कहा तो शिवपाल यादव ने ऐसा ही था. अखिलेश यादव भी जानते थे कि परिवार में टूट का काफी नुकसान हो चुका है, लिहाजा जितना भी डैमेज कंट्रोल संभव हो कोशिश करनी चाहिये. हालांकि, शिवपाल यादव ने तब अपनी तरफ से ऐसा कोई संकेत नहीं दिया जिससे किसी को लगे कि वो झुकने के लिए जरा भी तैयार हैं.

तभी तो अखिलेश यादव खुद शिवपाल यादव के पास पहुंचे, लेकिन अपर्णा यादव को रोकने की कोई कोशिश नहीं की. अपर्णा यादव ने चुनावों के दौरान बीजेपी ज्वाइन कर लिया था. अपर्णा यादव ने ये दावा भी किया था कि उनके ससुर मुलायम सिंह यादव ने उनको अपना आशीर्वाद भी दिया है. अपर्णा ये समझाना चाह रही होंगी कि मुलायम सिंह यादव ने वैसे ही आशीर्वाद दिया है जैसे 2019 के आम चुनाव से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दिया था.

शुरू में शिवपाल यादव 100 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने की बातें करते रहे. फिर 50 पर आ गये - और आखिरी दौर आते आते 32 सीटों पर. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. जाहिर है, शिवपाल यादव के समर्थक निराश तो हुए ही होंगे क्योंकि वो खुद तो चुनाव मैदान में कूद गये लेकिन साथियों को पैदल कर दिया.

आपको याद होगा अखिलेश यादव ने चाचा से घर जाकर मुलाकात के बाद जो ट्वीट किया था, उसमें शिवपाल यादव को प्रसपा का का नेता बताया था - और मुलाकात के बाद सामने आयी वो तस्वीर याद करें तो अखिलेश पूरी तरह बाहर खड़े थे, लेकिन शिवपाल अपनी आखिरी सीढ़ी से उतरे तक नहीं थे - तब भी शिवपाल में वही ऐंठन नजर आ रही थी, फिर अचानक वो घर वापसी जैसी व्यग्रता क्यों दिखाने लगे हैं? ये सवाल अखिलेश यादव को भी परेशान कर रहा होगा?

थोड़ा ध्यान दें और समझने की कोशिश करें तो शिवपाल यादव के साथ भी अखिलेश यादव का व्यवहार भीम आर्मी वाले चंद्रशेखर आजाद रावण जैसा ही दिखा था. फर्क बस ये रहा कि चंद्रशेखर आजाद आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी चाहते थे और कम सीटों पर राजी नहीं हुए, जबकि शिवपाल यादव अपने लिए जसवंत नगर की सीट पर ही मान गये.

तभी अखिलेश यादव के करीबियों का कहना था कि चंद्रशेखर आजाद को लेकर सपा नेतृत्व को भरोसा नहीं जम रहा था. अखिलेश यादव को डर था कि अगर चंद्रशेखर कुछ सीटें जीत गये और बाद में गठबंधन तोड़ कर किसी राजनीतिक विरोधी से जा मिले तो वो हाथ मलते रह जाने के सिवा कुछ नहीं कर पाएंगे. क्या शिवपाल यादव को अपने प्रति अखिलेश यादव के इरादे में ऐसा कुछ नहीं महसूस हुआ होगा?

अब तो ऐसा लगता है कि जैसे अखिलेश यादव को शिवपाल यादव में अमर सिंह का अक्स नजर आने लगा है. अमर सिंह को तो अखिलेश यादव बाहरी बताया करते थे, भला सगे चाचा शिवपाल यादव के लिए तो ऐसा बोलें भी तो कैसे - लेकिन शिवपाल यादव ऐसी चीजों के लिए न्योता क्यों दे रहे हैं?

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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