बीजेपी-अखिलेश दोनों से मोल-भाव कर रहे हैं शिवपाल यादव, डील वहीं होगी जहां फायदा होगा
शिवपाल यादव (Shivpal Yadav) बीजेपी और अखिलेश यादव दोनों के साथ एक साथ मोलभाव कर रहे हैं और फायदे के हिसाब से ही डील पक्की होगी. जरूरत तो अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) को भी है, लेकिन पूरा भरोसा नहीं हो रहा - और बीजेपी (BJP) तो तराजू पर तौल कर ही फैसला लेगी.
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शिवपाल यादव (Shivpal Yadav) के भी राज्य सभा जाने की चर्चा वैसे ही हो रही है जैसे नीतीश कुमार की - फर्क बस ये है कि शिवपाल यादव ने किसी भी संभावना को खारिज नहीं किया है. बल्कि, सही वक्त आने पर मीडिया को बुला कर बताने की बात कही है. ये सस्पेंस कायम करने की ट्रिक भी हो सकती क्योंकि इसमें भी फायदा है.
अगर लगता है कि उनका मामला उलझा हुआ है, तो ये शिवपाल यादव की पॉलिटिकल ट्रिक लगती है. क्योंकि ये सस्पेंस शिवपाल यादव के लिए काफी फायदेमंद लगता है. ऐसा करने से उनको सही सौदा करने का पूरा मौका मिल रहा है.
चुनाव से पहले शिवपाल यादव ने भतीजे अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) के साथ डील फाइनल कर ली थी. अफसोस की बात ये रही कि सौदा हर तरह से घाटे का साबित हुआ. चुनाव से पहले हो सकता है जयंत चौधरी और ओमप्रकाश राजभर की तरह शिवपाल यादव को भी लगा हो कि बीजेपी सत्ता में वापसी नहीं कर पाएगी. तभी तो महज एक विधानसभा टिकट लेकर वो समाजवादी गठबंधन का हिस्सा बनने को तैयार हो गये. वो भी समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़कर.
चुनाव नतीजे आने के बाद सारे राजनीतिक समीकरण उम्मीदों के खिलाफ चले गये. हर दौर में बदले समीकरणों में राजनीतिक तौर पर फिट होना जरूरी होता है. शिवपाल यादव के सामने भी फिलहाल यही सबसे बड़ा चैलेंज खड़ा हो गया है.
एक तरफ शिवपाल यादव ये दिखाने की कोशिश करते हैं कि वो तो खुद को समाजवादी पार्टी का हिस्सा मानने लगे हैं, लेकिन अखिलेश यादव हैं कि घास ही नहीं डाल रहे. अपनी इस पोजीशन को लेकर तो शिवपाल यादव ने पहले ही बोल दिया था कि वो अखिलेश यादव को नया नेताजी मान चुके हैं. मतलब, मुलायम सिंह यादव वाली जगह अखिलेश यादव के नेतृत्व को स्वीकार कर चुके हैं - लेकिन समाजवादी पार्टी की तरफ से साफ कर दिया जाता है कि शिवपाल यादव सिर्फ एक गठबंधन साथी की भूमिका में हैं.
अगर शिवपाल यादव सिर्फ योगी आदित्यनाथ से मिले होते तो मामला ज्यादा गंभीर नहीं लगता, लेकिन दिल्ली पहुंच कर बीजेपी (BJP) नेतृत्व के साथ बैठक से चीजें थोड़ी गंभीर हो जाती हैं - अब सस्पेंस बढ़ा कर शिवपाल यादव मोलभाव में जुटे लगते हैं.
सौदा या तो फायदे के हिसाब से फाइनल होता है या फिर किसी मजबूरी में - देखना है शिवपाल यादव को कहां समझौता करना पड़ता है और किधर आगे बढ़ने का मौका मिलता है?
शिवपाल यादव की सस्पेंस ट्रिक
शिवपाल यादव ने अभी तक ये साफ नहीं होने दिया है कि वो पूरी तरह किसकी तरफ हैं - बीजेपी की ओर या फिर अखिलेश यादव के साथ? अपने बयान और एक्शन से सब कुछ रहस्यमय बनाये हुए हैं.
शिवपाल यादव की राजनीति ऐसे दोराहे पर आ खड़ी हुई है जहां से किसी भी एक तरफ बढ़ने के लिए यू टर्न ही लेना होगा!
पहले तो शिवपाल यादव ने सपा विधायक दल की बैठक का न्योता न मिलने को लेकर बवाल शुरू किया. सपा नेताओं की सफाई देने के बाद जब गठबंधन के सहयोगी दलों की बैठक बुलाई गयी तो दूरी बना ली - और जाकर योगी आदित्यनाथ से भी मिल आये.
योगी आदित्यनाथ से मुलाकात के बाद सस्पेंस कायम करने की भी भरपूर कोशिश की. पूछे जाने पर बोले, 'योगी आदित्यनाथ हमारे मुख्यमंत्री हैं और कोई भी उनसे मुलाकात कर सकता है... फिर चाहे वो राहुल गांधी हों, प्रियंका गांधी हों... और अखिलेश यादव भी उनसे मिल चुके हैं!'
पहले दिल्ली फिर लखनऊ में मुलाकात: बात शिवपाल यादव के सिर्फ योगी आदित्यनाथ से मुलाकात की होती तो शिष्टाचार का भाव समझा भी जा सकता था. ऐसा भी तो नहीं कि ये शिष्टाचार मुलाकात पहली बार हुई हो. शिवपाल यादव 2017 में भी तो योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के कुछ ही दिन बाद मिलने गये थे. वैसे मिलने तो तब अपर्णा यादव भी गयी थीं - और फिर गौशाला में बुलाया भी था. अभी अपर्णा यादव बीजेपी की नेता हैं. कड़ियों को ऐसे भी तो जोड़ा ही जा सकता है.
समझने वाली बात ये है कि योगी आदित्यनाथ से मुलाकात से पहले शिवपाल यादव के दिल्ली जाकर बीजेपी नेता अमित शाह से मिलने की भी खबर आ रही है. बताते हैं कि इस मुलाकात में मध्यस्थ बने हैं चुनावों में सपा छोड़ कर बीजेपी ज्वाइन करने वाले हरिओम यादव. हरिओम यादव, दरअसल, मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव के समधी लगते हैं.
दिल्ली और लखनऊ की मुलाकातों से भी पहले शिवपाल यादव की इटावा में हरिओम यादव से मुलाकात हुई थी. शिवपाल यादव वहां भागवत कथा के कार्यक्रम में पहुंचे हुए थे. अब बताया जा रहा है कि शिवपाल यादव ने दिल्ली जाने से पहले हरिओम यादव से तमाम संभावनाओं को लेकर चर्चा भी की थी.
राज्य सभा भेजे जाने की भी चर्चा है: जब ऐसी महत्वपूर्ण बैठकें हो रही हों तो जाहिर है शिवपाल यादव के बीजेपी ज्वाइन करने को लेकर अटकलें तो शुरू होंगी ही, लेकिन मुलाकातों को लेकर शिवपाल यादव जिस तरीके के बयान दे रहे हैं, वो रहस्यमय बनाने की कोशिश लगती है.
मुलाकातों को लेकर मीडिया सवालों के जवाब में शिवपाल यादव कहते हैं, 'ये उचित समय नहीं है... जब उचित समय होगा तो हम आपको बुला लेंगे... सब बता देंगे.'
जब यही सवाल यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य से किया जाता है तो जवाब मिलता है - 'अभी तो हमारे यहां ऐसी कोई वैकेंसी नहीं है.'
केशव मौर्य के खंडन के बावजूद शिवपाल सिंह यादव को राज्य सभा भेजे जाने की भी मार्केट में चर्चा होने लगी है. अटकलों का तो आलम ये है कि बीजेपी की तरफ से उनको आजमगढ़ लोक सभा सीट पर उपचुनाव की सूरत में उम्मीदवार बनाये जाने तक के कयास लगाये जाने लगे हैं - लेकिन ये सब मुमकिन तो तभी है जब बीजेपी को भी शिवपाल यादव में फायदा नजर आये.
राज्य सभा जाने के सवाल पर भी शिवपाल यादव का वैसा ही जवाब सुनायी देता है, 'अभी हम कुछ बता ही नहीं सकते... बोल ही नहीं सकते हैं... जब बोलेंगे तो मीडिया को बुला लेंगे.'
चर्चाएं सही हुईं तो जसवंत नगर का क्या होगा शिवपाल यादव की ताजा सक्रियता में एक महत्पूर्ण पहलू और भी है. हर पिता की तरह शिवपाल यादव भी बेटे को सेटल करना चाहते हैं. चुनावों के दौरान जैसे रीता बहुगुणा जोशी बेटे टिकट दिलाने के लिए हर कुर्बानी देने को तैयार दिखीं, शिवपाल यादव के मन में भी वैसे ही भाव होंगे.
अगर अखिलेश यादव भी मुंह मोड़ लें और बीजेपी भी बहुत कुछ शेयर करने को तैयार न हो तो शिवपाल यादव जसवंत नगर की सीट बेटे आदित्य यादव को दे देना चाहेंगे, लेकिन कोशिश ये तो होगी ही कि वो महज निर्दल विधायक बन कर न रह जाये - सत्ता पक्ष से जुड़ जाये तो बेहतर स्थिति हो सकती है.
घाटे का सौदा तो कोई भी नहीं करेगा
ये तो साफ साफ समझ आ रहा है कि सौदेबाजी चल रही है. ऐसी सूरत में होगा तो यही कि कोई भी घाटे का सौदा नहीं करना चाहेगा - न तो अखिलेश यादव, न बीजेपी और न ही खुद शिवपाल यादव ही.
अखिलेश यादव तो खुद को दूध का जला ही मानते होंगे: शिवपाल यादव की राजनीति नेता और कार्यकर्ता के बीच महत्वपूर्ण कड़ी जैसी रही है. अलग से उनका अपना कोई ऐसा जनाधार नहीं रहा है जिसके बूते वो चुनावी राजनीति किसी तरह का चमत्कार दिखा सकें. अपनी अहम मौजूदगी की बदौलत भले ही वो कुछ समर्थक जुटा लेते हों, लेकिन जब उनकी मदद करने की स्थिति में नहीं रह जाते तो वे भी अपना नया ठिकाना तलाश लेते हैं.
समाजवादी पार्टी में शिवपाल यादव के जिम्मे मुलायम सिंह यादव का मैसेज कार्यकर्ताओं तक पहुंचाना हुआ करता था - और कार्यकर्ताओं की बातें समाजवादी पार्टी नेता तक. अखिलेश यादव के नेता बन जाने के बाद शिवपाल यादव के हाथ से ये काम चला गया. जब वो किसी काम के ही नहीं रहे तो उनके मजबूत सपोर्टर भी जहां मौका मिला वहीं जुड़े और नये सिरे से खड़े हो गये. हाल के विधानसभा चुनावों में भी दिखा कि कैसे शिवपाल यादव के कुछ समर्थक टिकट के लिए अखिलेश यादव को उनसे पहले ही नेता मान चुके थे, और जिनकी बात नहीं बन सकी वे दूसरे दलों में ठिकाना तलाश लिये.
एनडीटीवी ने सूत्रों के हवाले से खबर दी है कि शिवपाल यादव चाहते थे कि अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी में उनको कोई बड़ा पद दे दें, लेकिन अखिलेश यादव एक गठबंधन पार्टनर से ज्यादा मानने को राजी ही नहीं हो रहे हैं. रिपोर्ट के मुताबिक, शिवपाल यादव और अखिलेश यादव में एक मीटिंग भी हो चुकी है. और ये मुलाकात सपा विधायक दल और गठबंधन सहयोगियों की अलग अलग बुलाई गयी मीटिंग के आस पास ही हुई है.
अपर्णा और शिवपाल में फर्क है - यही सोच कर चुनाव से पहले अखिलेश ने अपर्णा यादव को बीजेपी जाने से रोकने की कोशिश भी नहीं की, जबकि शिवपाल यादव को साध लिया - लेकिन अब शिवपाल यादव विस्तार चाहते हैं और ये अखिलेश को मंजूर नहीं है.
बीजेपी भी तोल मोल तो करेगी ही: 2017 और 2022 के दो विधानसभा चुनावों के बीत जाने के बाद भी शिवपाल अपना अलग से कोई करिश्मा तो दिखा नहीं पाये - जो बीजेपी को शिवपाल यादव में शुभेंदु अधिकारी या हिमंत बिस्वा सरमा जैसी कोई उम्मीद की किरण दिखाई दे.
शिवपाल यादव में बीजेपी को मुकुल रॉय या जीतनराम मांझी जैसी छवि ही नजर आती है - जैसे मुकुल रॉय के जरिये कभी बीजेपी ममता बनर्जी को डैमेज करने की कोशिश कर रही थी, एक दौर ऐसा भी रहा जब नीतीश कुमार के खिलाफ बीजेपी के लिए जीतनराम मांझी भी उपयोगी हुआ करते थे.
अलग अलग वक्त पर बीजेपी ने मुकुल रॉय और जीतनराम मांझी को एक ही तरीके से इस्तेमाल करने की कोशिश की और जब वे किसी काम के नहीं लगे तो किनारे कर दिया. उम्मीदें तो पश्चिम बंगाल में बीजेपी को शुभेंदु अधिकारी से भी बहुत ज्यादा रही, लेकिन वो अब भी निराश नहीं है - शिवपाल यादव केस की समीक्षा में विचार तो सभी पुराने अनुभवों पर भी होगा ही.
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