जोशीमठ में आईं दरारें प्रकृति का नहीं, बल्कि सरकार का दोष है...
जोशीमठ में जो कुछ भी हो रहा है वो दिल दहला देने वाला है, तमाम लोग हैं जो इसका दोष प्रकृति को दे रहे हैं. लेकिन ऐसा है नहीं. मामले में अगर वाक़ई दोष किसी का है तो वो अलग अलग सरकारें हैं जिन्होंने जोशीमठ को विकास की भाड़ में झोंक दिया.
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मैं पिछले साल दिसंबर में जोशीमठ (औली) गई थी. तब हम तीन दिन जोशीमठ में ही रुके थे. उससे पहले मैं 2014 में भी जोशीमठ गई थी और तब हम वहां से बद्रीनाथ गए थे. 2014 में जाना एकदम अलग था क्योंकि उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा के ठीक एक साल बाद हम वहां पहुंचे थे, तो सड़कों के अलावा सब लगभग खत्म सा था. लेकिन पिछले वर्ष पहुंच कर जाना कि अब आवागमन की सुविधा रातभर है, (क्योंकि पहाड़ों को काटकर सड़कें चौड़ी कर दी गई है) जो पहले शाम 6 के बाद बंद हो जाती थी.
क्यों ज़रूरी है जोशीमठ?
जोशीमठ, उत्तराखंड का गेट-वे है. जोशीमठ जाए बगैर आप चरधाम यानि बद्रीनाथ/ केदारनाथ नहीं जा सकते और हेमकुंड साहिब पहुंचना हो या फूलों की घाटी या औली वहीं से होकर जाया जा सकता है. पहाड़ पर होने का सुख सबसे अलग होता है और अगर वो हिमालय हो तो बात ही कुछ और है खैर...
जोशीमठ में हर बीतते दिन के साथ स्थिति बिकट हो रही है और कोई कुछ कर नहीं पा रहा है
आज अखबार, मीडिया सभी कह रहे हैं कि वहां की बढ़ती आबादी इन सबकी ज़िम्मेदार है और साथ ही इसे एक 'प्राकृतिक आपदा' की तरह बताया जा रहा है. ये सच है वहां प्राकृतिक आपदा का आना बहुत सामान्य है. क्योंकि जोशीमठ एक हाई रिस्क ज़ोन है. जिस पहाड़ पर इसकी बसाहट है उसका घुमाव उत्तराखंड के और रहवासी इलाकों से अलग है मगर क्या वाकई इसे आपदा घोषित किया जा सकता है?
क्यों आईं दरारें?
पिछले कुछ समय से हेलंग वैली बायपास का काम चल रहा था, जिससे बद्रीनाथ का रास्ता 13 किमी कम हो जायेगा, जिसे 4 जनवरी को घरों में आ रही दरारों की खबरों के बाद रोक दिया गया और अब ये दलीलें दी जा रही हैं कि ये एक आपदा है. लेकिन कुछ बिंदुओं पर यदि आप विचार करेंगे तो शायद ज़्यादा बेहतर ढंग से इस समस्या को समझ पाएंगे मसलन
- 24 दिसंबर 2009 को एक टनल बोरिंग द्वारा खोदा जा रहा था मतलब पानी निकालर टनल बनाया जा रहा था और ये कहा जा रहा था की हम किसी तरह का कोई ब्लास्ट या तोड़फोड नहीं कर रहे हैं, लेकिन इस सबका नतीजा ये निकला कि पानी जोशीमठ से रिसने लगा और उसके बाद से 700-800 लीटर पानी पर सेकेंड के हिसाब से डिस्चार्ज हुआ मतलब 60-70 मिलियन पानी डिस्चार्ज हो चुका है, जिससे इमारतें कमज़ोर होना शुरू हो गईं.
- 2010 में NTPC ने प्राइवेट जियोलॉजिकल कम्पनी को प्रोजेक्ट रिसर्च का जिम्मा सौंपा, साफ है जिसने ऊपरी तौर पर आकलन कर इस प्रोजेक्ट को हरी झंडी देकर शुरू कर दिया.
- 2021 में तपोवन हाइड्रो प्रोजेक्ट पर जब काम चल रहा था तो ग्लेशियर ओवरफ़्लो होने की वजह से वहाँ 200 से ज़्यादा लोग मारे गए थे, जिनकी लाशों का पता आज भी नहीं चल पाया है.
- 1976 में गढ़वाल कमिश्नर महेश चंद्र मिश्रा कमेटी जिसमें 18 सदस्य थे, उन्होंने एक रिपोर्ट जारी की थी कि जोशीमठ एक पुराने लैंड स्लाइड जोन पर बसा है, यहां किसी भी तरह के हैवी कंस्ट्रक्शन को जगह नहीं देनी चाहिए. किसी भी तरह का हैवी कन्स्ट्रक्शन चाहे वो खुदाई हो या ब्लास्ट कभी भी यहां नहीं किया जाना चाहिए और घाटी में ज़्यादा से ज़्यादा पेड़ लगाने चाहिए, वरना यहां भारी नुकसान हो सकता है.
जबकि सड़क के नाम पर हज़ारों पेड़ काट दिए जा चुके हैं, पहाड़ों को काटकर ही सड़कों को चौड़ा किया गया है और आज हम देख रहे हैं की कैसी कैसी भयावह तस्वीरें सामने आ रही हैं.
कहां जाएंगे जोशीमठ वासी?
टनल के नाम पर पूरा जोशीमठ बिखरने की कगार पर है. ठंड में लोग घरों के के बाहर रात गुजारने को मजबूर हैं. पहाड़ी पर रहने वालों का जीवन वैसे भी बहुत मुश्किल है क्यों हम उसे और कठिन कर रहे हैं? क्या सड़कें की विकास का पैमाना हैं लेकिन जब वहां लोग ही नहीं बचेंगे, घर ही नहीं रहेंगे तब सरकारें क्या करेंगी?
प्रकृति का जितना दोहन किया जाएगा उतना ही हमें भुगतना पड़ेगा 2013 में हम ये देख चुके हैं और रही बात आबादी की तो यदि आबादी ही समस्या है तब बायपास की ज़रूरत ही क्या है? लेकिन होटल, रिसोर्ट बनाना जोशीमठ की ज़रूरत है और मजबूरी भी, क्योंकि उनके पास एक मात्र यही आजीवका है जिससे वहां लोग अपना पेट भर सकते हैं. ज़रूर सोचें क्या ये सब जायज़ है खासकर पहाड़ों में.
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