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Updated: 30 नवम्बर, 2019 01:04 PM
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उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) ने अपने पिता से किया वादा निभाया तो है, लेकिन बाल ठाकरे के नजरिये से देखें तो अधूरा ही लगता है. बेशक उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन चुके हैं, लेकिन लगता नहीं कि उसमें शिवसेना का जरा सा भी तेवर मौजूद है.

उद्धव ठाकरे की पार्टी शिवसेना कट्टर हिंदुत्व की राजनीति करती आयी है - लेकिन वो एक सेक्युलर सरकार में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे शिवसैनिक (Shiv Sena CM) भर रह गये हैं - लगता है जैसे उद्धव ठाकरे एक 'एक्सीडेंटल चीफ मिनिस्टर' हों जिसका रिमोट मातोश्री से शिफ्ट होकर सिल्वर ओक पहुंचा दिया गया हो. काफी कुछ वैसे ही जैसे संजय बारू ने अपनी किताब एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर में 10, जनपथ की महिमा का बखान किया है. मातोश्री, ठाकरे परिवार का घर है, जबकि सिल्वर ओक एनसीपी नेता शरद पवार का.

उद्धव सरकार कब तक चलेगी ये तो बाद में देखा जाएगा - अभी तो सवाल ये है कि जब तक सरकार चल रही है किस रफ्तार से और कितनी दूर तक का सफर तय कर पाएगी.

एक सेक्युलर 'उद्धव' सरकार

उद्धव ठाकरे ने अपने पिता बाला साहेब ठाकरे से एक वादा किया था और उसे निभाया भी. महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से उद्धव ठाकरे अक्सर अपने पिता से शिवसैनिक को राज्य का मुख्यमंत्री बनाने के वादे का जिक्र करते रहे. इसी लाइन को आगे बढ़ाते हुए वो बीजेपी के साथ गठबंधन सरकार में आधा कार्यकाल शिवसेना के हिस्से में चाह रहे थे. बीजेपी ने बात नहीं मानी और शिवसेना जिद पर अड़ी रही गठबंधन टूट गया - और फिर शिवसेना ने एनसीपी और कांग्रेस के साथ मिल कर नया महागठबंधन खड़ा किया - महा विकास अघाड़ी.

महा विकास अघाड़ी भी UPA की तर्ज पर ही रखा हुआ नाम है. अघाड़ी से आशय अगर गठबंधन से है तो विकास यूपीए के प्रोग्रेस से लिया गया है. महा विकास अघाड़ी के कॉमन मिनिमम प्रोग्राम (CMP) में भी यूपीए से मिलती जुलती कई बातें देखी जा सकती हैं.

महा विकास अघाड़ी - ऐसा नहीं कि इसी नाम का प्रस्ताव रखा गया और सभी ने मान लिया. सबसे पहले 'महा अघाड़ी' पर चर्चा भी हुई और सहमति भी बनने लगी थी, लेकिन शिवसेना को ये नाम काफी सूना सूना लग रहा था. शिवसेना को अपनी हिस्सेदारी बिलकुल भी नहीं लग रही थी, लिहाजा पार्टी की तरफ से शिव शब्द जोड़ने का सुझाव दिया गया और फिर नाम बना - महा शिव अघाड़ी. शिवसेना के इस प्रस्ताव को मानने को कोई भी राजी नहीं हुआ. आखिर में 'शिव' हटाकर 'विकास' जोड़ा गया तब जाकर आम राय बन पायी.

sharad pawar, uddhav thackeray, sonia gandhiउद्धव ठाकरे कब तक यूं ही समझौते कर पाएंगे?

महाराष्ट्र में बीजेपी और शिवसेना का चुनाव पूर्व गठबंधन रहा. लंबे वक्त तक ये इसलिए भी बना रहा क्योंकि दोनों ही पार्टियां एक ही लाइन की राजनीति करती हैं. बीजेपी तो 'सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास' के नाम पर थोड़ा नरम रूख भी अपनाने लगी है, लेकिन शिवसेना तो चुनाव नतीजे आने से पहले तक कट्टर हिंदुत्व की अगुवा बनी रही. ये वही पार्टी है जिसके संस्थापक बाल ठाकरे ने खुलेआम कहा था कि अगर अयोध्या की बाबरी मस्जिद गिराने में शिवसैनिकों का हाथ है तो उस बात पर उन्हें गर्व है. बाल ठाकरे के शिवसैनिक कैसे होते थे और उद्धव के जमाने में शिवसैनिकों का क्या हाल है ये भी देखा जा चुका है.

जब महागठबंधन सरकार की कवायद चल रही थी और बात किसी नतीजे पर नहीं पहुंची थी, तभी एक दौर ऐसा भी आया जब शिवसैनिक विधायकों को राजस्थान के होटल में भेजे जाने की खबर भी आयी. राजस्थान इसलिए क्योंकि वहां कांग्रेस नेता अशोक गहलोत मुख्यमंत्री हैं. ये सबसे ज्यादा हैरान करने वाली बात रही कि अपने आगे किसी की नहीं चलने देने वाले शिवसैनिकों की सुरक्षा की जिम्मेदारी उद्धव ठाकरे किसी कांग्रेस नेता पर सौंपने जा रहे थे.

महाराष्ट्र की उद्धव सरकार विचारधारा और सिद्धांतों पर नहीं बल्कि सत्ता समीकरणों पर आधारित है, जिसमें सबसे ज्यादा जोर सेक्युलरिज्म यानी धर्मनिरपेक्षता पर है और उसके कॉमन मिनिमम प्रोग्राम में किसान, रोजगार और विकास जैसे मुद्दों पर काम करने पर सामूहिक तौर पर हामी भरी गयी है.

जैसे UPA का 'न्यूनतम साझा कार्यक्रम' हो

गठबंधन की सरकार चलाना बड़ी टेढ़ी खीर है. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मनमोहन सिंह तक हर कोई इस मुश्किल का इजहार और इकरार कर चुका है. एनडीए की पहली वाजपेयी सरकार के बाद 2004 में यूपीए की पहली सरकार आयी और दूसरी पारी में भी मनमोहन सिंह ही प्रधानमंत्री बने. पहली पारी तो मजे से चली और उसी के बूते देश की जनता ने दोबारा सत्ता सौंप दी, लेकिन भ्रष्टाचार को लेकर इतना बवाल हुआ कि यूपीए को 2014 में सत्ता से बेदखल होना पड़ा. अभी तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दोबारा चुनाव जीत कर फिर से सत्ता पर काबिज हैं.

2019 के चुनाव में विपक्ष को एकजुट करने की हद से ज्यादा कोशिशें हुईं, लेकिन सब की सब नाकाम रहीं. कांग्रेस प्रधानमंत्री पद के मुद्दे पर दावेदारी छोड़ने को तैयार न थी - और विपक्षी खेमे के कई नेताओं की अपनी महत्वाकांक्षाएं आड़े आती रहीं. नतीजे आये तो सारी कवायद ढेर हो चुकी थी.

महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद जब मुख्यमंत्री पद को लेकर शिवसेना और बीजेपी का गठबंधन टूटा तो परदे के पीछे नये समीकरणों की तलाश होने लगी. शरद पवार को तो जैसे इंतजार ही रहा. सबके सामने तो वो यही कहते रहे कि एनसीपी को विपक्ष में रहने का जनादेश मिला है और वो उस पर कायम रहेंगे. फिर बड़ी मुश्किल से एक साझा सरकार की रूप रेखा बनी और उसे लेकर कॉमन मिनिमम प्रोग्राम कई दौर की बैठकों के बाद फाइनल हो सका. कॉमन मिनिमम प्रोग्राम में वैसे तो सरकार को चलाने और सबकी सरकार बनाने के तमाम उपाय किये गये हैं, लेकिन कम से कम तीन ऐसे बिंदु हैं जो साफ तौर पर बता रहे हैं कि ये यूपीए के ही नीति-निर्देशक तत्व लगते हैं.

1. सेक्युलर स्वरूप: कॉमन मिनिमम प्रोग्राम फाइनल होने से पहले ये टकराव का सबसे बड़ा मसला रहा. वैसे भी शिवसेना जैसी पार्टी के लिए सेक्युलर भाव के लिए तैयार होना काफी मुश्किल रहा होगा, समझा जा सकता है - लेकिन मजबूरी जो न कराये. ये पहल कांग्रेस की ओर से ही थी और सरकार में शामिल होने को लेकर कांग्रेस नेतृत्व की कोई दिलचस्पी तब तक नहीं रही. जब ये बीच का रास्ता निकाला गया और शिवसेना ने भी हामी भर दी तभी बात आगे बढ़ सकी.

साफ है, शिवसेना अब अयोध्या और धारा 370 या तीन तलाक जैसे मसलों पर पुराना रवैया छोड़ कर या तो चुप हो जाएगी, या फिर सरकार गिराने के रिस्क पर विरोध करेगी. ये कुछ कुछ वैसे ही है जैसे नीतीश कुमार अपनी सेक्युलर छवि बनाये रखने के लिए बीजेपी के कोर मुद्दों से दूरी बनाये रखते थे, लेकिन तीन तलाक और धारा 370 पर घुमा फिरा कर मोदी सरकार का सपोर्ट भी कर दिया.

2. अल्पसंख्यकों को आरक्षण: शिवसेना के लिए इसे निगलना तो और भी मुश्किल था. कट्टर हिंदुत्व से इतर जिसे कुछ भी न मंजूर हो. जो पार्टी बाबरी मस्जिद गिराने पर गर्व महसूस करती आयी हो वो अल्पसंख्यक समुदाय के लिए छात्रों के लिए शिक्षा में आरक्षण के लिए राजी हो जाये, हैरान कर सकता है. मगर, सच भी है. दरअसल, बीजेपी-शिवसेना की सरकार आने से पहले कांग्रेस-एनसीपी सरकार में ये स्कीम लायी गयी थी, लेकिन सरकार बदलने के साथ ही बंद कर दी गयी. जब सरकार का कंट्रोलर बदला तो फिर से चालू हो रही है.

3. एक सलाहकार समिति भी है: जैसे यूपीए की सरकार में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (NAC) हुआ करती रही, महाराष्ट्र में भी उसी तरह की कोऑर्डिनेशन कमेटी बनी हैं - और एक नहीं बल्कि दो-दो. एक कमेटी का काम राज्य की कैबिनेट में समन्वय स्थापित करना होगा और दूसरी गठबंधन के सहयोगी दलों के बीच.

देखा जाये तो ये कॉमन मिनिमम प्रोग्राम ही है जो सरकार को लंबी उम्र की राह दिखा सकता है और मजबूती भी प्रदान करता है. वैसे इसमें शामिल चीजें ही ऐसी हैं जो जोखिम से भर देती हैं और सरकार के लंबा न चल पाने की आशंका भी.

कॉमन मिनिमम प्रोग्राम तो कर्नाटक में भी बना था, लेकिन क्या हुआ सवा साल में सरकार ढेर हो गयी. हां, ये कुछ ज्यादा ही सोच समझ कर तैयार किया गया है - लेकिन इसमें भी तो किसी की मनमानी है और किसी की बहुत ही मजबूरी. अब ये 'बेर-केर के संग' कब तक निभेंगे ये किसी एक फैक्टर पर नहीं बल्कि बहुत सारी बातों पर निर्भर करता है. हितों के टकराव को कैसे रोका जाता है? देखना होगा.

कर्नाटक को लेकर धारणा तो यही बनी कि बीजेपी ने ऑपरेशन लोटस चला कर कुमारस्वामी की जेडीएस-कांग्रेस सरकार का तख्तापलट कर दिया. वैसी ही आशंका शुरू से ही महाराष्ट्र की महाविकास अघाड़ी सरकार को लेकर भी हर किसी के मन में है.

लेकिन क्या कुमारस्वामी सरकार के गिर जाने की जिम्मेदार अकेली बीजेपी ही हो सकती है - अगर गठबंधन सरकार के विधायक टूटने को तैयार न होते तो येदियुरप्पा का ऑपरेशन भी तो मुंह के बल गिर सकता था. आखिर, डीके शिवकुमार को भी तो किसी बीजेपी नेता तो विश्वास प्रस्ताव के बीच ही डिप्टी सीएम का प्रस्ताव देते देखा ही गया था. मंत्री बनने के सपने के साथ ही हर विधायक किसी भी विधानसभा में प्रवेश करता है. एक उम्मीद के साथ इंतजार भी करता है. जब उम्मीद टूटने लगती है और कहीं कोई नयी उम्मीद दिखायी देती है तो वो स्वाभाविक तौर पर खिंचा चला जाता है. अब ये तो नेतृत्व पर निर्भर करता है कि कैसे वो अपने विधायकों को संभाल कर रखता है. अगर ऐसा न होता तो विधायकों के लिए सबसे सुरक्षित स्थान होटल नहीं माने जाते या फिर राजभवन की तरह होटलों में विधायकों की परेड नहीं हुआ करती.

ये तो उद्धव ठाकरे को भी मालूम होगा और शरद पवार को भी कि बीजेपी घायल शेरनी की तरह मौके की तलाश में होगी - और मौका मिलते ही जोरदार वार करेगी. केंद्र की सत्ता में होने के नाते उसके पास जरूरी हथियार भी हैं. ये तो शरद पवार का ED के एक्शन से उपजा गुस्सा और शिवसेना के मुख्यमंत्री पद का लालच रहा, जिसमें महाराष्ट्र के कांग्रेस नेताओं ने तड़का लगा दिया - वरना, पांच साल में देवेंद्र फडणवीस ने शिवसेना को उसकी हद में रखते हुए कांग्रेस और एनसीपी का तो सफाया कर ही दिया था. किसे पता देवेंद्र फडणवीस और उनकी टीम अमित शाह की छत्रछाया में येदियुरप्पा से भी आगे की रणनीति पर काम शुरू कर चुके हों!

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