नौकरी के नाम पर ख़याली पकौड़ा...
आंकड़े बताते हैं कि जुलाई 2017 और अप्रैल 2018 के बीच बेरोज़गारी दर 3.39 फ़ीसदी से बढ़कर 6.23 प्रतिशत हो गई है. और आशंका ये भी है कि जल्द ही ये दर बढ़कर 6.75 फ़ीसदी तक पहुंच सकता है.
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कुछ दिनों पहले ही कांग्रेस और प्रधानमंत्री मोदी के बीच नोक झोंक हुई. कांग्रेस का दावा था कि मोदी गेम चेंजर नहीं बल्कि नेम चेंजर हैं, यानी यूपीए की योजनाओं को नाम बदल कर चला रहे हैं. तो जवाब में मोदी जी ने एक क़दम आगे जाते हुए कहा मैं गेम चेंजर नहीं मैं एम (aim) चेंजर हूं. यानी देश को एक नया लक्ष्य दे रहा हूं.
ये बात सच भी है माननीय मोदी जी उद्देश्य चेंजर हैं. किसी का उद्देश्य था कि एलएलबी करके वकील बने. किसी का उद्देश्य था कि बीए करके कॉरपोरेट में नौकरी करे. किसी का उद्देश्य पीएचडी करके एकेडमिक्स में जाने का था. हर साल 2 करोड़ नौकरी का वादा करने वाले मोदी जी ने सबका उद्देश्य चेंज करते हुए कहा कि पकौड़ा बनाना क्या रोज़गार नहीं है? और सारे डिग्रीधारक सड़कों पर डिग्री लिये पकौड़ा बनाने में जुट गए. और जब पकौड़े वालों से पूछा गया तो उनका कहना था कि वो अपने बच्चों को पढ़ा लिखा कर एक अच्छी सी नौकरी करते देखना चाहते हैं. कमाल है जो पकौड़े बना रहे हैं उनका उद्देश्य है अच्छी नौकरी और जो नौकरी करना चाहते हैं उनको पकौड़ा बनाने की सलाह. ये होता है असली एम चेंजर. पूरा देश नहीं समझ पा रहा है कि दो करोड़ सालाना नौकरी देने का उद्देश्य कैसे पकौड़ा बनाने में चेंज हो गया.
पकौड़ा बेचना रोजगार है बोलकर पीउद्देश्य खुद फंस गए
अब ज़रा नज़र डाल लेते हैं आंकड़ों के पैमाने पर और जानते हैं कि उद्देश्य चेंजर माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी क्यों पकौड़ा बनाने का नया लक्ष्य नौजवानों को दे रहे हैं. सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के मुताबिक़ देश में जुलाई 2017 और अप्रैल 2018 के बीच बेरोज़गारी दर में लगभग दोगुने का इज़ाफ़ा हुआ है. यानी पिछले लगभग एक साल में देश में बेरोज़गारों की संख्या में दोगुना बढ़ोतरी हुई है. तो दूसरी तरफ़ हालात ये हैं कि बाज़ार में पहले से जो नौकरियां हैं उनमें भी गिरावट हुई है.
आंकड़े बताते हैं कि जुलाई 2017 और अप्रैल 2018 के बीच बेरोज़गारी दर 3.39 फ़ीसदी से बढ़कर 6.23 प्रतिशत हो गई है. और आशंका ये भी है कि जल्द ही ये दर बढ़कर 6.75 फ़ीसदी तक पहुंच सकता है. रही बात मार्केट में मौजूदा नौकरियों पर हो रही चोट की, तो परिस्थितियां ये हैं कि 2016-17 में जॉब मार्केट में नौकरियों की संख्या जहां 40 करोड़ 67 लाख थी तो वो 2017-18 में घट कर 40 करोड़ 60 लाख रह गई है. उद्देश्य CMIE का रिकॉर्ड बता रहा है कि बाज़ार में नई नौकरियों के सृजन में कमी तो हो ही रही है, साथ ही पुरानी नौकरियां भी गुम हो रही हैं.
एक सच ये भी है कि बेरोज़गारी दर में इज़ाफ़ा जुलाई 2017 और अक्तूबर 2017 के बीच सबसे ज़्यादा हुआ. ये दर अचानक 3.39 फ़ीसदी से बढ़कर 5.04 प्रतिशत तक पहुंच गया. नवंबर और दिसंबर में इसमें थोड़ी कमी आई, लेकिन जनवरी 2018 में फिर बेरोज़गारी दर में बढ़ोतरी होने लगी.
CMIE के इन आंकड़ों से नीति आयोग के वाइस प्रेसीडेंट राजीव कुमार सहमत नहीं हैं. उनका कहना है कि सरकार जल्द ही एक ऐसी रिपोर्ट जारी करने वाली है जिससे देश में नौकरी को लेकर काफ़ी सकारात्मक तस्वीर सामने आएगी. इसके बाद सरकार ने ईपीएफ़ओ यानी प्रोविडेंट फंड अकाउंट रजिस्ट्रेशन की संख्या के दम पर ये साबित करने की कोशिश की कि देश में 2017 में डेढ़ करोड़ नए रोज़गार का सृजन हुआ. लेकिन एक बात ये भी मानी जानी चाहिये कि देश के कुल वर्क फ़ोर्स का सिर्फ़ 15 फ़ीसदी ही ईपीएफ़ओ में रजिस्टर होता है. और ये कोई सही पैमाना नहीं है देश में रोज़गार के अवसरों को आंकने का. वहीं CMIE के कंज्यूमर पिरामिड हाउज़होल्ड सर्वे के मुताबिक़ 25 से 64 साल के उम्र के स्लैब में नई नौकरियों के अवसर आए लेकिन 15 से 24 साल और 65 साल और उससे ऊपर की उम्र के लोगों में बेरोज़गारी इस क़दर बढ़ी कि रोज़गार के मौक़ों में इज़ाफ़ा बेहद मामूली रहा.
इन्हीं कारणों से सरकार से ये लगातार पूछा जा रहा है कि चुनाव से पहले हर साल जो दो करोड़ नौकरियों का वादा था उसका क्या हुआ. तो जवाब में मोदी सरकार अपनी मुद्रा योजना की बातें कर रही है. साथ ही दावा कर रही है कि इस योजना के तहत जो दस करोड़ लोगों को अपना रोज़गार लगाने के लिये लोन दिया गया है वो नौकरी नहीं तो और क्या है. और इसी झोंक में नरेन्द्र मोदी ‘पकौड़ा बनाना रोज़गार नहीं तो क्या है’ का दावा करके फंस भी गए. काफ़ी छीछालेदर हुई. वर्ल्ड बैंक ने भी कहा कि मोदी सरकार को मुद्रा योजना के ज़रिये स्वरोज़गार को बढ़ावा देने की जुमलेबाज़ी छोड़कर वेतन आधारित रोज़गार देने पड़ेंगे. इशारा यही था कि सरकार कब तक जुमलों का पकौड़ा बेरोज़गारों को खिलाती रहेगी.
रही बात प्रधानमंत्री मुद्रा योजना जैसे महत्वाकांक्षी प्लान की, तो उसमें मुद्रा लेकर लोगों के रफ़ूचक्कर हो जाने का अंदेशा बढ़ा हुआ है. इस योजना के तहत 2017-18 में लगभग पौने दो लाख करोड़ रुपये बिना ज़मानत के छोटे कारोबारियों को बतौर ऋण दिये गए. जानकारों का मानना है कि इसमें से 10 से 15 फ़ीसदी रक़म बट्टे खाते यानी एनपीए में बदल चुकी है. इसकी सबसे बड़ी वजह राष्ट्र भक्ति को परखने वाली उन्मादी योजना नोटबंदी को बताया जा रहा है. क्योंकि सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग में लेनदेन कैश में ही होता है. नोटबंदी के बाद अचानक मार्केट से कैश के ग़ायब हो जाने से मुद्रा योजना के तहत लोन लेने वाले ना धंधा चला पाए और ना ही समय से अपनी क़िस्त लौटा पाये. नोटबंदी के डेढ़ साल गुज़र जाने के बाद भी उसके झटकों को अभी भी महसूस किया जा रहा है. बैंकिंग विशेषज्ञों का मानना है कि मुद्रा योजना का इस वित्तीय वर्ष का टारगेट- रु. 2 लाख 44 हज़ार करोड़- बैंक शायद पूरा भी ना कर पाएं.
इसको बोलते हैं उन्मादी सोच का उन्मादी नतीजा. मुद्रा योजना के तहत लोगों को लोन तो दे दिया गया लेकिन साथ ही दूसरी महत्वाकांक्षी योजना नोटबंदी के तहत कारोबार को ख़त्म करने का इनोवेटिव क़दम भी उठाया गया.
माननीय प्रधानमंत्री उद्देश्य चेंजर हैं इसका अंदाज़ा देश को नोटबंदी के दौरान भी मिला. नोटबंदी का उद्देश्य भी कई कई बार चेंज किया. काला धन पकड़ने, जाली नोट का पर्दाफ़ाश करने, आतंकवाद पर लगाम कसने से लेकर उद्देश्य कैशलेस और लेस कैश तक पहुंचा.
अब हालात ये हैं कि लोग नौकरियों के लिये तरस रहे हैं और राष्ट्रीय विकास दर बहुत शानदार है. बिना रोज़गार सृजन के ये विकास कुछ ऐसा ही है जैसा कि मोदी जी और उनके चाहने वालों का दावा कि दुनिया भर में देश का नाम रौशन हो रहा है. जबकि देश के अंदर अच्छी शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य सुविधाओं पर अंधेरा सा छाया हुआ है.
जब तक ये अंधेरा नहीं छंटता, आंखों से भक्ति का चश्मा नहीं हटता. तब तक देश नौकरी का ख़याली पकौड़ा खाए.
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