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Updated: 19 जून, 2021 09:46 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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बेशक मोदी कैबिनेट में नयी भर्ती उसी की होगी जिसके बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी फैसला कर चुके होंगे या करने वाले होंगे - प्रधानमंत्री मोदी के अलावा ये बात भी सिर्फ और सिर्फ उसी को मालूम हो सकती है जिससे वो अपनी बात शेयर करना मुनासिब समझते हों - और ये बात भी प्रधानमंत्री मोदी ने 2019 का आम चुनाव जीतने के बाद खुद ही कही थी. नये सांसदों को नसीहतें पेश करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने उनको ऐसे संभावित कयासों से बच कर रहने की सलाह दी थी.

हमेशा की तरह एक बार फिर मोदी कैबिनेट (Modi Cabinet) में फेरबदल की चर्चा के बीच संभावित नामों की चर्चा चल रही है. जो नाम मंत्री बनने लायक समझे जा रहे हैं, वे हैं - ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया, भूपेंद्र यादव, दिनेश त्रिवेदी, वरुण गांधी, अश्‍विनी वैष्‍णव, और जमयांग सेरिंग नामग्याल.

बाकी नेताओं के मंत्रिमंडल में शामिल किये जाने की भी अपनी अलग वजह है और वरुण गांधी के भी मंत्री बनने की संभावना यूं ही नहीं लगती. ज्योतिरादित्य सिंधिया तो मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार गिराने के बाद से ही इंतजार में बैठे हैं और भूपेंद्र यादव ने तो बिहार में दिन रात जो काम किया है उनका हक भी बनता है. भूपेंद्र यादव ने एनडीए की सत्ता में वापसी तो करायी ही है, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव की राजनीति को जिस तरह ठिकाने लगाने की रणनीति तैयार कर काम किया है वो तो अलग ही है. मुकुल रॉय के तृणमूल कांग्रेस में लौट जाने के बाद पश्चिम बंगाल चुनावों से पहले बीजेपी ज्वाइन करने वाले दिनेश त्रिवेदी के लिए भी रास्ता साफ हो ही चुका है.

लेकिन सूची में जो सरप्राइज नाम है, वो है बीजेपी सांसद वरुण गांधी (Varun Gandhi) का - 2014 में बीजेपी के केंद्र की सत्ता में आने और उसके बाद मोदी-शाह के प्रभाव बढ़ने के साथ ही वरुण गांधी को हाशिये पर भेज दिया गया था - और अभी तक वो अपने इलाके में कुछ कुछ करते हुए खबरों में आते रहे हैं. पहले तो वो अपने बयानों से सुर्खियां भी ठीक ठाक बटोर लेते थे, लेकिन बाद में उस पर भी आलाकमान की तरफ से बैन जैसा ही लगा दिया गया.

अब समझना ये जरूरी है कि आखिर वरुण गांधी का नाम संभावित मंत्रियों की सूची में कैसे शामिल कर लिया गया - हालांकि, समझना बहुत मुश्किल भी नहीं लगता अगर अगले साल होने वाले यूपी चुनाव और हाल फिलहाल मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) की मुश्किलें समझ में आ रही हों.

वरुण गांधी की अहमियत अचानक क्यों बढ़ी?

पीलीभीत से बीजेपी सांसद वरुण गांधी ने हाल ही में एक ट्वीट में एक मीडिया संस्थान की खबर को फेक न्यूज बताते हुए लीगल नोटिस भेजने को कहा था. हालांकि, अब खबर वाली वो ट्वीट डिलीट कर दी गयी है. मीडिया संस्थान का दावा था कि वरुण गांधी कांग्रेस में जा सकते हैं.

वरुण गांधी को लेकर ऐसी खबर कोई पहली बार नहीं आयी थी, 2019 में जब प्रियंका गांधी को कांग्रेस में औपचारिक तौर पर महासचिव बना कर लाया गया था, तब भी ऐसी खबरें आती रहीं, लेकिन हमेशा ही वरुण गांधी की तरफ से ऐसी खबरों का खंडन किया जाता रहा है.

varun gandhi, yogi adityanathयोगी आदित्यनाथ के चलते वरुण गांधी की किस्मत चमकने वाली है क्या?

वरुण गांधी का भले ही कांग्रेस में जाने का कोई इरादा न हो, लेकिन अगर बीजेपी को ऐसी कोई भनक भी लगती है तो वो उनके पक्ष में ही जाएगा. वजह साफ है. बीजेपी अगले चुनाव में कोई जोखिम उठाने तैयार नहीं है - और थोड़ी देर के लिए, मान लेते हैं कि अगर वरुण गांधी कांग्रेस में चले ही जाते हैं तो वो कोई छोटी-मोटी डील तो होने से रही. यूपी चुनाव के ऐन पहले मुख्यमंत्री पद के चेहरे से नीचे तो कोई बात बनेगी नहीं. ऐसी स्थिति में बीजेपी के लिए मुश्किलें तो बढ़ ही सकती हैं.

ये सब सिर्फ कांग्रेस की वजह से नहीं, बल्कि वरुण गांधी की अपनी टीम उनको मजबूत बनाती है - और उसका जलवा वो एक बार प्रयागराज में बीजेपी की कार्यकारिणी के वक्त दिखा भी चुके हैं. तब वरुण गांधी के लाव लश्कर की तुलना राजनाथ सिंह के काफिले से हुई थी.

असल बात तो ये है कि वरुण गांधी मौजूदा बीजेपी नेतृत्व को कोपभाजन बने हुए हैं. 2014 में बनी मोदी सरकार में तो वरुण गांधी की मां कैबिनेट मंत्री भी रहीं, लेकिन 2019 आते आते लोक सभा टिकट पर भी आफत आ गयी थी. वो तो मेनका गांधी ने अपने संघ कनेक्शन की बदौलत बीजेपी के सामने बेटे के साथ अपनी सीट बदलने का प्रस्ताव दिया और दोनों का टिकट पक्का हो गया. दोनों चुनाव भी जीते लेकिन मंत्री कोई एक भी नहीं बन सका. असल वजह जो भी हो, लेकिन सुल्तानपुर में मेनका गांधी के एक विवादित बयान को ही लगता है मुद्दा बना दिया गया.

वरुण गांधी को टिकट मिलने के साथ ही एक बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ी. वरुण गांधी को न सिर्फ अपनी दादी और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ जाना पड़ा, बल्कि सार्वजनिक रूप से बयान देना पड़ा था कि उनके परिवार से भी लोग प्रधानमंत्री हुए हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी जैसा तो कोई नहीं हुआ.

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के मुख्यमंत्री बनने के बाद 2013 में वरुण गांधी को तत्कालीन बीजेपी राजनाथ सिंह ने महासचिव बनाया और उसके साथ ही पश्चिम बंगाल का प्रभारी भी. इंटरव्यू में वरुण गांधी से जब भी बीजेपी में उनकी उपेक्षा को लेकर सवाल पूछे जाते हैं तो वो यही उदाहरण देते हैं कि छोटी सी उम्र में इतनी जिम्मेदारियां दी गयीं, कम हैं क्या? बिलकुल नहीं, लेकिन उसके बाद.

2014 के बाद जैसे ही अमित शाह का प्रभाव बढ़ने लगा, एक एक करके वरुण गांधी से सारी जिम्मेदारियां वापस ले ली गयीं. कई मुद्दों पर उनकी बातों से नाखुशी जताते हुए आलाकमान की तरफ से संदेश भी दिया गया कि अनावश्यक बयानबाजी से वो परहेज करें. हालांकि, बीजेपी नेतृत्व की वरुण गांधी से नाराजगी की वजह नरेंद्र मोदी को लेकर उनकी एक मन की बात रही. जब बीजेपी के एक प्रवक्ता ने मोदी की एक सभा में लाखों की भीड़ होने का दावा किया तो वरुण गांधी बोल पड़े कि जिस मैदान का जिक्र है उसमें तो कुछ हजार लोग ही आ सकते हैं.

अब सवाल ये उठता है कि वरुण गांधी ने ऐसा क्या कर दिया जिससे अचानक उनकी अहमियत इतनी बढ़ी नजर आने लगी?

और अगर वरुण गांधी ने ऐसा कुछ नहीं किया है तो वो कौन है जिसकी वजह से वरुण गांधी बीजेपी नेतृत्व को बड़े काम के लग रहे होंगे?

हाल फिलहाल की खबरों में तो ऐसी कोई चीज सामने नहीं ही आयी है जो राहुल गांधी के महत्व बढ़ जाने के हिसाब से उल्लेखनीय हो. फिर तो दूसरे सवाल का ही जवाब खोजना होगा. ध्यान देने पर मालूम होता है कि ऐसा एक शख्स जरूर है जिसकी वजह से वरुण गांधी की अहमियत बढ़ी हो सकती है - और वो हैं यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ.

योगी आदित्यनाथ को लेकर कई दिनों तक यूपी में भी उत्तराखंड की तरह नेतृत्व बदलने की चर्चा रही, लेकिन उनके दिल्ली दौरे के बाद ये साफ हो चुका है कि ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है - कम से कम 2022 के विधानसभा चुनाव के नतीजे आने से पहले तो कतई नहीं.

लेकिन ये भी साफ साफ नजर आ रहा है कि कैसे योगी आदित्यनाथ पर काफी पहले से ही नकेल कसने की तैयारी चल रही है. ऐसा आशंका तो योगी आदित्यनाथ को भी तभी हो गयी थी जब आनन फानन में वीआरएस लेकर आईएएस अफसर रहे अरविंद शर्मा लखनऊ पहुंचे और बीजेपी ने विधान परिषद भेज दिया. जब कोरोना संकट में हालात बेकाबू हुए तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में स्थिति पर काबू करने के लिए भेजा गया. अरविंद शर्मा ने वाराणसी मॉडल पेश कर ऐसी मिसाल पेश कर दी कि प्रधानमंत्री मोदी तक उसकी तारीफ करते नहीं थक रहे हैं.

अभी तक तो योगी आदित्यनाथ को अरविंद शर्मा से ही मुकाबला करना पड़ रहा था, लेकिन अगर वरुण गांधी को मोदी कैबिनेट में शामिल कर लिया जाता है तो वो भी योगी आदित्यनाथ की ताकत के लिए बड़ा चैलेंज हो सकता है.

वरुण गांधी फिलहाल नेपथ्य में चले गये जरूर हैं, लेकिन कट्टर हिंदुत्व का बड़ा चेहरा रहे हैं - और चुनावी मैदान में योगी आदित्यनाथ के सामने वरुण गांधी निश्चित तौर पर उनके लिए चुनौती बनेंगे.

ये ठीक है कि योगी आदित्यनाथ के 'एक के बदले दस और सौ...' वाले भाषण काफी हिट रहे हैं, लेकिन वरुण गांधी का 'हाथ को काट...' वाला भाषण भी बीजेपी के कोर वोट बैंक के हिसाब से देखें तो कम जोशीला नहीं हैं. मुस्लिमों के खिलाफ अपने विवादित बयान के लिए वरुण गांधी जेल भी जा चुके हैं - बाद में छूट भी गये वो बात और है. वरुण गांधी ने पीलीभीत की एक रैली में कहा था, 'अगर कोई हिंदुओं की ओर हाथ बढ़ाता है या फिर ये सोचता हो कि हिंदू नेतृत्वविहीन हैं तो मैं गीता की कसम खाकर कहता हूं कि मैं उस हाथ को काट डालूंगा.'

वरुण के मंत्री बनने से नफा-नुकसान किसे होगा?

वरुण गांधी शुरू से ही गांधी परिवार के खिलाफ बयान देने से परहेज करते रहे हैं, लेकिन इंदिरा गांधी से नरेंद्र मोदी को बेहतर बता कर वो बीजेपी नेतृत्व की ये धारणा भी खत्म कर चुके हैं.

सवाल ये है कि अगर कांग्रेस की तरफ से प्रियंका गांधी को यूपी में मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर पेश किया जाता है तो बीजेपी वरुण गांधी को काउंटर करने में इस्तेमाल कर सकती है - लेकिन वरुण गांधी का उससे भी बड़ा इस्तेमाल योगी आदित्यनाथ के खिलाफ हो सकता है, ऐसा उनकी कट्टर हिंदुत्व वाली इमेज को देखते हुए. बीजेपी तो वरुण गांधी को एक और कट्टर हिंदू फेस के तौर पर इस्तेमाल करेगी, लेकिन उसका सीधा असर योगी आदित्यनाथ की मोनोपोली पर पड़ेगा.

जहां तक वरुण गांधी को मोदी कैबिनेट में शामिल किये जाने से नफे नुकसान का सवाल है, तो बेशक पहले लाभार्थी तो वरुण गांधी ही होंगे, लेकिन उससे कहीं ज्यादा फायदा बीजेपी नेतृत्व को हो सकता है - जो योगी आदित्यनाथ के बढ़ते प्रभाव को काफी हद तक न्यूट्रलाइज कर सकता है.

बीजेपी एमएलसी अरविंद शर्मा तो पहले से ही पूर्वांचल के 17 जिलों की रिपोर्ट ले रहे हैं. अरविंद शर्मा की कामयाबी का सीधा संबंध योगी आदित्यनाथ से है - राजनीतिक तौर पर अरविंद शर्मा की कामयाबी के किस्से कुछ और नहीं, बल्कि योगी आदित्यनाथ की नाकामियों के दस्तावेज बनते जा रहे हैं.

अब अगर अरविंद शर्मा के साथ साथ यूपी के सियासी मार्केट में वरुण गांधी को भी खड़ा कर दिया जाता है तो योगी आदित्यनाथ के कामकाज और प्रशासनिक क्षमता पर सवाल तो उठेंगे ही, संघ और बीजेपी के पिटारे में योगी आदित्यनाथ भी अकेले हिंदूवादी नेता नहीं रह जाएंगे. बीजेपी नेतृत्व का ये कदम उन चर्चाओं पर भी विराम लगाएगा जिनमें नरेंद्र मोदी के बाद योगी आदित्यनाथ को ही प्रधानमंत्री पद का दावेदार माना जाता रहा है.

कोई दो राय नहीं है कि योगी आदित्यनाथ भी ऐसी तमाम चीजों से वाकिफ नहीं हैं. या आंख मूंद कर हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं. एक सीनियर पत्रकार ने ट्विटर पर एक तस्वीर शेयर की है जिसमें योगी आदित्यनाथ एक मीटिंग कर रहे हैं. ट्वीट के मुताबिक योगी आदित्यनाथ अपने मठ में हिंदू युवा वाहिनी की एक महत्वपूर्ण बैठक कर रहे हैं - ये हिंदू युवा वाहिनी ही है जो यूपी खासकर पूर्वांचल में योगी आदित्यनाथ को ताकतवर बनाती है.

योगी आदित्यनाथ ने ही गोरखपुर से संसद पहुंचने के बाद 2002 में हिंदु युवा वाहिनी बनायी थी - और गोरखपुर के आस पास के इलाकों में धीरे धीरे काडर को काफी मजबूत कर दिया था, लेकिन 2017 में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद संगठन में गुटबाजी होने लगी और उसकी सक्रियता काफी कम हो गयी थी. मुख्यमंत्री बनने से पहले यूपी में योगी आदित्यनाथ ने 'लव-जिहाद' और घर वापसी जैसे कई कार्यक्रम चलाये जिन पर खासा विवाद भी हुआ. अब तो योगी सरकार ने लव जिहाद पर कानून भी ला रखा है.

जिस तरह की राजनीतिक चुनौतियों से योगी आदित्यनाथ फिलहाल जूझ रहे हैं, हिंदू युवा वाहिनी का फिर से एक्विट होना बहुत मददगार साबित हो सकता है. वैसे भी अपने संगठन की बदौलत ही योगी आदित्यनाथ बीजेपी में होते हुए भी एक गठबंधन साथी की तरह ही व्यवहार करते हैं - और ये बात बीजेपी नेतृत्व को काफी नागवार गुजरता है.

अब अगर उत्तर प्रदेश में चुनाव से पहले के राजनीतिक समीकरणों के चलते वरुण गांधी के लिए किस्मत करवट बदल पाती है तो उनको योगी आदित्यनाथ का ही शुक्रगुजार होना चाहिये - राजनीति तो चलती ही रहेगी.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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