भीमा गांव की हिंसा भारत को बांटने की साजिश?
भीमा कोरेगांव में सालों से शौर्य दिवस का आयोजन किया जाता रहा है और इसमें दलित समुदाय के लाखों लोग जमा भी होते रहे हैं. कभी किसी तरह की बात सामने नहीं आयी. लेकिन इस बार जिग्नेश मेवानी और उमर खालिद भी वहां मौजूद थे. सवाल ये है कि इस तरह के विवादित छवि के लोगों को क्यों आमंत्रित किया गया था?
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हिंदुस्तान से अंग्रेज़ विदा हो गए. लेकिन फूट डालो और राज करो का बीज़ जो उन्होंने बोया था, वह आज पूरे भारत में फैलकर विशाल वटवृक्ष बन गया है. इसकी वजह से हमारा समाज आज भी जाति, धर्म, भाषा, नस्लवाद और दलित, अगड़े, पिछड़े, हिंदुत्व और इस्लाम में विभाजित है. और रही सही कसर राजनीति और नेताओं की गंदी सोच ने पूरी कर दी है.
महाराष्ट्र के पुणे के नज़दीक कोरेगांव भीमा में दलितों पर हुए कथित हिंसा और हमले की बात उसी बोए हुए बीज का अंकुरण है. एक तरफ हम तरक्की और विकास की बात कर रहे हैं. भारत को सवा सौ अरब वाला देश कह रहे हैं. न्यू इंडिया, डिजिटल इंडिया और स्किल इंडिया की बात कर रहे हैं. और दूसरी तरफ उसी देश में अपनों के खिलाफ जीत का जश्न मनाया जा रहा है. फिर आखिर हम किस भारत के विकास और उसमें निहित सामाजिक समरसता की बात करते हैं? यहां देश पीछे है और पहली कतार में जाति, धर्म, भाषा और सम्प्रदाय है. अंग्रेज को ये अच्छे से पता था कि हमारे यहां जाति और धर्म का मसला इतना ज्वलनशील है कि सिर्फ एक तीली भारत को आजीवन जलाती रहेगी.
इस जातीय हिंसा में करोड़ों स्वाहा हो गए. मुम्बई की लाइफ लाइन कही जाने वाली लोकल ट्रेन और मेट्रो भी प्रभावित हुई. काफी संख्या में बसों को आग के हवाले कर दिया गया. आर्थिक नगरी मुम्बई थम गई. आखिर यह सब क्यों हुआ? इसका असली गुनहगार कौन है? किसने यह साजिश रची? उसका काला चेहरा बेनकाब होना चाहिए. काफी हद तक फड़नवीस सरकार भी जिम्मेदार है. पुणे में हुई घटना के बाद वक्त रहते अगर कदम उठाए लिए गए होते तो आग इतनी न फैलती.
सालों से होते आ रहे इस आयोजन में आग इस बार ही क्यों लगी?
अहम बात ये है कि कोरेगांव भीमा में ये आयोजन पिछले 200 सालों से होता चला आ रहा है, तब कभी इस तरह की हिंसा नहीं भड़की. फिर इस बार आखिर ऐसा क्या हुआ कि विजय दिवस की बरसी हिंसा और आगजनी की बलि चढ़ गई? जहां एक व्यक्ति की मौत हो गई, वहीं कई लोग घायल हो गए. महाराष्ट्र के 15 से अधिक जिले इसकी चपेट में आ गए. इस हिंसा से जहां सामाजिक तानेबाने की दीवार ध्वस्त हुई, वहीं देश को भारी आर्थिक नुकसान उठना पड़ा.
हिंसा की असली वजह क्या रही?
दलितों की तरफ़ से यह 'शौर्य दिवस' तो 200 सालों से मनाया जाता है. फिर इसका विरोध क्यों और कहां से शुरु हुआ? इस विवाद ने हिंदुत्व, आरएसएस, दक्षिण और वामपंथ को कैसे अपने ज़द में ले लिया? विजय दिवस के पीछे का छुपा इतिहास क्या है? क्या है भीमा-कोरेगांव की लड़ाई? कई सवाल हैं जो आम देशवासी के ज़ेहन में उठ खड़े हुए हैं.
इतिहास की मानें तो 1 जनवरी 1818 में ब्रिटेन की ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा साम्राज्य के पेशवा गुट के बीच, कोरेगांव भीमा में जंग लड़ी गई थी. इस लड़ाई में अंग्रेजों और आठ सौ महारों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय के 28 हज़ार सैनिकों को पराजित कर दिया था. महार सैनिक यानी दलित, ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से लड़े थे और कहा जाता है कि इसी युद्ध के बाद पेशवा राज का अंत हो गया.
उस दौर में देश ऊंच- नीच और छुआछूत जैसी कुरीतियों से घिरा हुआ था. अगड़ी जातियां दलितों को अछूत मानती थीं. महाराष्ट्र में मराठा अगड़ी जाति से हैं. वहीं महार समुदाय दलित वर्ग से हैं. अंग्रेजो ने इसका फायदा उठाया. हिंदुओं को बांटने के लिए ईस्ट इंडिया कम्पनी ने दलितों में महार के नाम पर एक अलग से रेजीमेंट बनाई. इसमें दलितों ने अंग्रेजों का साथ दिया और मराठों को पराजित कर दिया. बाद में अंग्रेजों ने युद्ध में शहीद हुए लोगों के सम्मान में भीमा नदी के किनारे बसे कोरेगाँव में एक स्मारक बनवाया. तभी से दलित उस जीत को विजय दिवस के रुप में मनाते आ रहे हैं. जबकि कुछ हिंदूवादी संगठन इसका विरोध करते हैं.
आरोप हैं कि पहली जनवरी को भीमा गांव में जमा हो रहे दलितों को रोका गया. जिसके बाद एक व्यक्ति की मौत के बाद पूरे महाराष्ट्र में हिंसा भड़क गई. उस आग में घी का काम डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के पोते और समाजसेवी प्रकाश अंबेडकर द्वारा महाराष्ट्र बंद के आह्वान ने किया. इस पूरी घटना से एक बात साफ जाहिर होती है कि ये सब पूर्व नियोजित था. हालांकि यह बात जांच के बाद साफ होगी. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस ने न्यायिक जांच के आदेश दिए हैं. मुख्यमंत्री ने कहा है कि पुणे में कोरेगांव हिंसा की न्यायिक जांच कराई जाएगी. राज्य सरकार ने सीसीटीवी फुटेज के आधार पर जांच कराने की बात कही है.
सालों से वहां लाखों की संख्या में दलित समुदाय के लोग जमा होते रहे हैं. कभी किसी तरह की बात सामने नहीं आयी. लेकिन इस बार के आयोजन में जिग्नेश मेवानी और उमर खालिद के अलावा वामपंथ के लोग भी मौजूद थे. सवाल ये है कि इस तरह के विवादित छवि के लोगों को क्यों आमंत्रित किया गया था? दूसरी तरफ उमर खालिद और जिग्नेश मेवानी किस तरह के नेता हैं, यह पूरा देश जानता है.
जिग्नेश मेवानी, उमर खालिद जैसे लोग वहां क्या कर रहे थे?
जिग्नेश मेवानी ने विधायक बनने के बाद प्रधानमंत्री मोदी पर किस तरह का बयान दिया था यह जगजाहिर है. वहीं जेएनयू के छात्रनेता उमर खालिद भी मौजूद थे. उनपर भी भड़काऊ बयान देने का आरोप है. जेएनयू में जो भारत विरोधी नारे लगे थे उसके केंद्र में यहीं उमर खालिद थे. जो देश के बंटवारे की बात करता हो, उसे इस तरह के आयोजन में आमंत्रित कर महार या दलित संगठन के लोग समाज को क्या संदेश देना चाहते थे? उनसे कौन सी उम्मीद रखी गई थी?
हालांकि इस हिंसा के पीछे हिंदू एकता अघाड़ी के मिलिंद एकबोते व शिवराज प्रतिष्ठान के संभाजी भिड़े का भी नाम आ रहा है. दोनों संगठनों ने भीमा-कोरेगांव युद्ध में अंग्रेजों की जीत को शौर्य दिवस के रूप में मनाने का विरोध किया था.
उधर इस पर संसद से सड़क तक राजनीति गरमा गई है. कांग्रेस और राहुल गांधी ने जहां भाजपा और आरएसएस पर हिंसा भड़काने का आरोप लगाया है. उनका आरोप है कि संघ और भाजपा, दलितों को समाज में सबसे नीचे पायदान पर रखना चाहती है. ऊना, रोहित वेमुला और भीमा-कोरेगांव की हिंसा दलितों के प्रतिरोध के उदाहरण हैं. वहीं भाजपा ने इसके लिए कांग्रेस की फूट डालो और राज करो नीति का परिणाम बताया है. जब बात दलितों से जुड़ी हो फिर मायावती पीछे कैसे रह सकती हैं. उन्होंने हिंसा में भाजपा का हाथ बताते हुए सारा दोष महाराष्ट्र की भाजपा सरकार पर मढ़ दिया. जबकि आरएसएस ने इस घटना को दुखद और दर्दनाक बताया है.
सवाल ये उठता है कि आजाद भारत में गुलामी के प्रतीक इस तरह के शौर्य दिवस मनाने की ज़रूरत क्या है? 200 साल पहले का भारत अब पूरी तरह बदल चुका है. फिर उस घाव को शौर्य दिवस के रुप में हरा करने की बात समझ में नहीं आती. वह दौर था जब दलितों के साथ अत्याचार होते रहे थे, ऊंची जातियां उनसे भेदभाव करती थी. लेकिन आज वक्त बदल गया है. अंग्रेजी हुकूमत का दौर नहीं रहा. देश विकास की तरफ बढ़ रहा है. उस स्थिति में अगर हम जाति और धर्म की बात करते रहेंगे तो यह बात अच्छी नहीं.
संसद में दलित उत्पीड़न का राग अलापने वालों को यह नहीं दिखता कि आधुनिक भारत का दलित समाज इतना मजबूत हो चला है कि वह अपनी ताकत से महाराष्ट्र सरकार को हिला देता है. हिंसा और आगजनी की बदौलत सारी व्यवस्था ठप कर देता है. करोड़ों की संपत्ति आग की भेंट चढ़ा देता है. यह बात सच है कि दलितों के साथ कुछ घटनाएं सभ्य समाज में निंदनीय हैं. लेकिन यह भी सच है कि वह आजादी भी किस काम की जिसके शौर्य दिवस से पूरा देश जलने लगे.
सरकार को इस तरह के जातिवादी, धार्मिक संगठनों और संस्थाओं पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए, जिससे देश की एकता और अखंडता को खतरा हो. इस तरह के सभी आयोजन प्रतिबंधित कर देने चाहिए. भीमा गांव की हिंसा का सच देश के सामने आना चाहिए. इस तरह की घटानाओं को राजनीतिक आईने से नहीं देखा जाना चाहिए. यह आधुनिक भारत में सभ्य समाज के लिए कलंक है.
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