कश्मीर को लेकर भला किस तरह का दबाव महसूस कर रहे होंगे पर्रिकर?
अंबेडकर जयंती समारोहों का शुक्रिया जिनकी बदौलत दो नेताओं से जुड़े राज जनता के सामने आये. मायावती ने लिखा हुआ भाषण पढ़ने की वजह बताई तो पर्रिकर ने दिल्ली छोड़ने का कारण.
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अब तक यही समझा जा रहा था कि फिश करी मनोहर पर्रिकर को गोवा खींच ले गई. अब मालूम हुआ है कि पर्रिकर के दिल्ली छोड़ने का कारण कश्मीर जैसे मसले रहे. जब पर्रिकर ने गोवा लौटने की असल वजह बता दी है तो सहज सवाल उठता है कि आखिर कश्मीर जैसे मसलों पर वो किस तरह का दबाव महसूस कर रहे होंगे?
जहां तक कश्मीर मसले की बात है तो उसमें ज्यादातर गृह मंत्री राजनाथ सिंह की ही शिरकत नजर आती है. फिर ऐसी कौन सी बात रही होगी जिसके चलते पर्रिकर इतना दबाव महसूस कर रहे थे?
कश्मीर जैसे मसले!
अंबेडकर जयंती समारोहों का शुक्रिया जिनकी बदौलत दो नेताओं से जुड़े राज जनता के सामने आये. मायावती ने लिखा हुआ भाषण पढ़ने की वजह बताई तो पर्रिकर ने दिल्ली छोड़ने का कारण. मायावती ने बताया कि गले के ऑपरेशन के चलते वो बगैर लिखा भाषण नहीं देतीं क्योंकि फिर तेज बोलना पड़ता है. पर्रिकर ने बताया कि वो दिल्ली में कश्मीर को लेकर दबाव महसूस कर रहे थे.
दिल्ली से दूर ही अच्छा!
"दिल्ली में रक्षामंत्री के तौर में काम करने के दौरान कश्मीर जैसे मुद्दे उन कारणों में थे, जिसके चलते मैंने गोवा वापस लौटने का चयन किया," इस खुलासे के साथ पर्रिकर आगे बोले, "मुझे जब मौका मिला तो मैंने गोवा वापस आने का निर्णय किया. जब आप केंद्र में होते हैं, आपको कश्मीर और अन्य मुद्दों से निपटना होता है."
किस तरह का दबाव?
रक्षा मंत्री रह चुके पर्रिकर मानते हैं कि कश्मीर मुद्दे को सुलझाना कोई आसान काम नहीं था और इसके लिए एक दीर्घकालिक नीति की जरूरत है. पर्रिकर कहते हैं, "कुछ चीजें है जिस पर कम चर्चा की जरूरत है... कश्मीर जैसे मुद्दों पर कम चर्चा और अधिक कार्रवाई की जरूरत है, क्योंकि जब आप चर्चा के लिए बैठते हैं मुद्दे जटिल हो जाते हैं."
कश्मीर के हालात फिर से बेहद नाजुक हो चले हैं. श्रीनगर उपचुनाव में 7 फीसदी वोटिंग और दोबारा हुए मतदान में 38 में से 20 बूथों पर एक भी वोटर का न पहुंचना स्थिति की गंभीरता की ओर साफ इशारा कर रहा है. ऐसी स्थिति 1989 में भी देखी गयी थी जब महज 5 फीसदी वोटिंग दर्ज की गई थी. कुलभूषण जाधव को जासूस बता कर पाकिस्तान में मौत की सजा सुनाये जाने के चलते भारत-पाक रिश्ता और भी तनावपूर्ण हो गया है.
जम्मू और कश्मीर के उड़ी सेक्टर में सेना के कैंप पर हमला और उसके बाद पाकिस्तान के खिलाफ सेना द्वारा सर्जिकल स्ट्राइक पर्रिकर के कार्यकाल की प्रमुख घटनाएं रहीं. सर्जिकल स्ट्राइक के बाद सेना और प्रधानमंत्री के साथ साथ अगर किसी और की खूब तारीफ हुई तो वो पर्रिकर ही रहे. प्रधानमंत्री ने उन्हें नवरत्नों में से एक बताया तो गोवा की रैली में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने यहां तक कह दिया कि पर्रिकर अगर दिल्ली में भी रहे तो गोवा की सरकार का नेतृत्व वही करेंगे.
जहां तक कश्मीर मसले की बात है तो गृह मंत्री हर छोटी बड़ी गतिविधि पर बारीक नजर रखते हैं और संसद से लेकर सड़क तक सरकार का पक्ष भी वही रखते हैं. मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने से पहले महबूबा मुफ्ती को भी प्रधानमंत्री मोदी के बाद अगर किसी दूसरे नेता पर यकीन रहा तो वो राजनाथ सिंह ही हैं. बाद में भी महबूबा के साथ प्रेस कांफ्रेंस में भी राजनाथ सिंह ही साथ होते है.
पर्रिकर के कार्यकाल में कश्मीर पर आर्मी चीफ बिपिन रावत के बयान पर भी काफी सियासत हुई थी - जिस पर बीजेपी के कई नेताओं ने आगे बढ़ कर बचाव किया और सेना को सियासत से अलग रखने की गुजारिश की. रावत ने चेताया था कि सेना के ऑपरेशन के दौरान अगर कोई कश्मीरी नौजवान रोड़ा बनने की कोशिश करता है तो उसके साथ भी आतंकियों जैसा ही सलूक किया जाएगा. पर्रिकर ने इस मुद्दे पर रावत का सपोर्ट किया था - जबकि कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने ऐतराज जताया था.
दिलचस्प बात ये है कि कश्मीर मसले से पर्रिकर और राजनाथ दोनों का जुड़े रहना सरकारी कामकाज का हिस्सा रहा, लेकिन जब गोवा लौटने की बात आई तो पर्रिकर ने हां कह दिया और राजनाथ ने यूपी लौटने से मना कर दिया. इंडिया टुडे कॉनक्लेव में यही सवाल शिवराज सिंह चौहान और देवेंद्र फडणवीस से भी पूछा गया था. जवाब दोनों ने ही गोल मोल दिये - लेकिन इतना जरूर समझ आया कि हर किसी का अपना कंफर्ट जोन होता है. बावजूद इसके पर्रिकर ने कश्मीर को लेकर जो बात कही है वो बहुत गंभीर है.
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