इस समाजवादी 'महाभारत' का धृतराष्ट्र, भीष्म और शकुनि कौन?
उत्तर प्रदेश के चुनावी महाभारत का बिगुल फूंके जाने से पहले यहां सत्ता में बैठी समाजवादी परिवार में एक नया महाभारत छिड़ा हुआ है. मामला राजनीतिक कम पारिवारिक ज्यादा है. परिवार बड़ा है..सत्ता में है, चुनावी महाभारत सामने है, लिहाजा काफी कुछ दांव पर लगा है
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महाभारत की जिन्होंने भी समीक्षा की, उन्होंने चार किरदारों को ही इसके लिए जिम्मेदार माना था. धृतराष्ट्र, जिन्होंने पुत्रमोह में सच का साथ नहीं दिया. भीष्म, जिन्होंने प्रण की रक्षा को सच का साथ देने से बड़ा माना. तीसरा, शकुनि, जो था तो बाहरी, लेकिन उसे अपने अपमान का बदला लेना था, उसे सच या सत्य से कोई लेना-देना नहीं था. और अंत में कृष्ण थे, जो सच के साथ थे और उनकी नजर में सच के लिए हर रास्ता जायज था.
अब उस महाभारत का मौजूदा समाजवादी परिवार के महाभारत से कोई लेना-देना तो नहीं और न ही कोई तुलना संभव है, लेकिन जिन किरदारों की हम चर्चा करते हैं, वे आस-पास अलग-अलग चेहरों में अलग-अलग भूमिका में जरूर दिख जाते हैं.
उत्तर प्रदेश के चुनावी महाभारत का बिगुल फूंके जाने से पहले यहां सत्ता में बैठी समाजवादी परिवार में एक नया महाभारत छिड़ा हुआ है. मामला राजनीतिक कम पारिवारिक ज्यादा है. परिवार बड़ा है, सत्ता में है, चुनावी महाभारत सामने है, लिहाजा काफी कुछ दांव पर लगा है. लोगों को 2017 दिखता है, मुलायम को 2019 से कुछ उम्मीदें हैं. 2012 में जब उत्तर प्रदेश में प्रचंड बहुमत में समाजवादी सत्ता में लौटे तो मुलायम ने अचानक अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा की. तब सभी सकते में थे.
यहां तक कि पार्टी के भीतर भी कइयों के लिए यह किसी आश्चर्य से कम नहीं था. तब चर्चा उठी थी कि मुलायम पुत्र मोह में पड़े है और तुलना धृतराष्ट्र से भी कर दी गई.
तब भी छन-छनकर खबरें आ रही थी कि शिवपाल और आजम खान जैसे नेता मुलायम के फैसले से सहज नहीं थे. एक अहं भी था कि इतने वरिष्ठ होकर जूनियर मुलायम के नेतृत्व में कैसे काम करे, जिनके पास कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं है. दरअसल, मुलायम ने भी जो कमान सौंपी थी, उसके पीछे की भी सच्चाई यही थी कि मुलायम राष्ट्रीय राजनीति में बड़े पद के लिए किस्मत आजमाने में जुटे थे. 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान मुलायम घूम-घूमकर समाजवादियों और मतदाताओं को अपनी इस इच्छा का अहसास करा भी रहे थे.
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रैलियों में कहा जा रहा था कि इतनी सीटें दो कि नेताजी को एक बार प्रधानमंत्री बनाया जा सके. 2012 में जब सत्ता का हस्तांतरण का समय आया तो शिवपाल को उम्मीद थी कि नेताजी की जगह कमान उन्हें सौंपी जाएगी. सोच के पीछे ठोस आधार पर भी था. संगठन में नेताजी के बाद पकड़ सबसे ज्यादा शिवपाल की मानी जाती है लिहाजा विधायक भी उनके पक्ष में थे. पर तब रामगोपाल वह प्रस्ताव लेकर आए, जो मुलायम खुद सामने लाने से थोड़ा हिचक रहे थे.
हालांकि, वह उनके मन की बात ही थी. तब फार्मूले के तहत शिवपाल और आजम को मंत्रालय में अच्छे विभाग देकर शांत रखा गया लेकिन टीस तो थी, जो बनी रही...बढ़ती रही और फैलती रही. अब जबकि सामने 2017 और 2019 का लक्ष्य है, लिहाजा लावा तो फूटना ही था.
ये है समाजवादी महाभारत... |
ऐसा नहीं था कि मुलायम को इसका अहसास नहीं था. महात्वाकांक्षा, उम्मीद और स्वकांक्षा के बीच संतुलन बनाना आसान काम नहीं था. पुत्र के सामने चुनौतियां थी, अपने को साबित करने की तो पिता के सामने चुनौती थी अपने फैसले को सही साबित करने की. अगर देखें तो शुरुआती दौर में मंत्रिमंडल के गठन से लेकर विभागों के बंटवारे में अखिलेश की कम, नेता जी और शिवपाल की ज्यादा चली. लेकिन यह कमान और कंट्रोल धीरे-धीरे अखिलेश के हाथों में चली गई.
शिवपाल थोड़ा समझने में देर कर गए. संतुलन के नाम पर मुलायम समय-समय पर अखिलेश को सार्वजनिक मंचों से नसीहत भी देते आए, अधिकारियों को फटकार लगाते रहे और यह भी अहसास कराने से नहीं भूले कि पार्टी और सरकार में अंतिम वाक्य उनका ही रहेगा.
लेकिन अंदरखाने में यह तय था कि वह अखिलेश को पूरा मौका देने के पक्ष में थे और सरकार में किसी के द्वारा रोड़ा अटकाए जाने के पक्ष में नहीं थे. लिहाजा पिता ने पुत्र को चुनौती देने वाली अधिकतर ताकतों, जिनमें नरेश अग्रवाल, रेवती रमण, अमर सिंह, बेनी प्रसाद वर्मा को राज्यसभा भेज दिया. सूत्रों की मानें तो मुलायम तो शिवपाल और आजम खान को भी राज्यसभा भेजना चाहते है, पर दोनों नहीं माने. आजम खान खुद नहीं गए, अपनी पत्नी को राज्यसभा भेज दिया.
कहते हैं न कि पतंग की डोर को लंबा ढील देने पर कटने का खतरा भी बढ़ जाता है. हाल-फिलहाल की तीन घटनाओं ने अखिलेश में यह दिखाना शुरू कर दिया, कि इस स्थिति को अब ज्यादा दिनों तक यूं ही नहीं छोड़ा जा सकता. चाहे डीपी यादव औऱ कौमी एकता दल के विलय का मसला हो या मथुरा का जय गुरूदेव कांड, शिवपाल की भूमिका को लेकर पार्टी और सरकार की काफी छीछालेदर हुई थी. प्रदेश में छवि यह बन रही थी कि अखिलेश विकास की धारा के साथ चलना चाहते हैं, और एक के बाद एक फैसले भी उस दिशा में लिए गए. लेकिन संगठन का उचित सहयोग नहीं मिल पा रहा, जहां पकड़ शिवपाल की ज्यादा है.
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लिहाजा जमीन पर पार्टी के पक्ष में जो सकारात्मक सोच दिखनी चाहिए, वह नहीं दिख पा रही है और इसका लाभ बीएसपी और बीजेपी को मिल रहा है. ऐसे में जब चुनाव नजदीक हो, तो इस हालात को जारी रखना पार्टी हित में नहीं था. ऐसे में जिन दो मंत्रियों और चीफ सेक्रेटरी को हटाया गया, उससे यही संदेश देने की कोशिश की गई, बस बहुत हुआ, अब औऱ नहीं. पूरी पटकथा दिल्ली में मुलायम और रामगोपाल के बीच लिखी गई, अमर सिंह बीच-बीच में शामिल रहे और फिर जो हुआ उसकी तो उम्मीद शिवपाल ने भी कभी नहीं की थी.
योजना के मुताबिक शिवपाल को सरकार से बाहर कर संगठन तक सीमित रखने की है और इसी के तहत फैसले भी लिए गए. बुधवार को अखिलेश ने लखनऊ में जिस अंदाज में यह बात कही कि अधिकतर मामलों में वह नेताजी से पूछ कर निर्णय लेते है, पर कुछ मामलों में वह खुद भी फैसले लेते हैं. लिहाजा अमर सिंह की जुबान में इसे समझे, तो बच्चा अब जवान ही नहीं हुआ, वह अभिभावक बन चुका है.
अब, अमर सिंह कहने को तो बाहरी हैं पर इस समाजवादी परिवार के भीतर पकड़ गहरी है. कहने को तो वह समाजवादी कम, मुलायम वादी ज्यादा हैं और उसका वह दंभ भी भरते हैं. परिवार में इस घमासान में अमर सिंह की भूमिका भी मानी जा रही है, लेकिन अब उनकी सोच में भारी बदलाव आ चुका है. कुछ दिनों पहले तक अखिलेश के प्रशासनिक क्षमता पर सवाल खड़े और कार्यकर्ताओं की उपेक्षा का आरोप लगाने वाले अमर सिंह की वाणी अब बदल चुकी है.
अब अमर कहते हैं कि अखिलेश एक संवैधानिक पद पर हैं और इसका सबको सम्मान करना चाहिए, वह अब बच्चे नहीं, उत्तर प्रदेश के करोड़ों लोगों के अभिवावक भी हैं. अब अमर सिंह को यह ज्ञान दर्शन भले ही रमा रमण को नोएडा प्राधिकरण से हटाने और जया प्रदा को फिल्म डेवलमेंट बोर्ड का उपाध्यक्ष बनवाने के बाद हुआ हो, वह इस महाभारत में फिलहाल सच के साथ हैं. और फिलहाल इस नतीजे पर पहुंचने में अभी थोड़ा वक्त लगेगा कि इस समाजवादी महाभारत का धृतराष्ट, भीष्म और शकुनि कौन निकला.
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