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Updated: 06 दिसम्बर, 2021 09:11 PM
रीवा सिंह
रीवा सिंह
  @riwadivya
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अजीब है कि लोकतंत्र व राजनीति में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व सभी चाहते हैं लेकिन उन्हें मौका देना किसी को भी कम ही रास आता है. उनका प्रतिनिधित्व भी आप करेंगे, महिलाओं का प्रतिनिधित्व भी आप करेंगे और सीट के बंटवारे पर बगलें झांकने लगेंगे. 2022 में होने वाले उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव के लिए AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी संग कोई दल गठबंधन नहीं करना चाह रहा है, सभी किनारा कर रहे हैं. अखिलेश ने राजभर संग गठबंधन मंज़ूर किया लेकिन ओवैसी को साथ नहीं लिया. कांग्रेस और बसपा उनपर भाजपा का टीम बी होने के आरोप लगाते रहे हैं, वजह - उनके चुनावी मैदान में उतरने से वोटों का बँटवारा. राजनीतिक समझ और बौद्धिक क्षमता से किसी का कोई ख़ास राब्ता नहीं है.

अभी डिबेट के लिये आमंत्रित किया जाए तो तत्कालीन राजनीति में बमुश्किल मुट्ठीभर नेता ऐसे मिलेंगे जो ओवैसी से विमर्श अथवा बहस कर सकें. राजनीति, इतिहास को लेकर उनकी समझ, उनकी तर्कशक्ति, वाक्चातुर्य बेमिसाल है लेकिन चुनाव तो यहां जातिगत समीकरण पर होने हैं. सोशल, सेक्युलर, रिपब्लिक जैसे शब्द प्रिएम्बल में सुंदर लगने के लिये लिखे गये हैं.

AIMIM, Asaduddin Owaisi, UP, Assembly Elections, Alliance, Muslim, Samajwadi Partyजैसे हालात हैं तमाम दलों की नजर में वोट कटवा ही हैं ओवैसी

सभी को मुसलमानों का हितैषी बनना है लेकिन उनके प्रतिनिधित्व को तरजीह देने में हिचकिचाना भी है. ओवैसी को वोट काटने वाला घोषित कर दिया गया और ख़ूब उछाला गया. किसी भी प्रांत में जहां दो बड़े दल आपस में भिड़े हों, तीसरे-चौथे दल वोटों का कुछ प्रतिशत अपनी ओर खींचते ही हैं. ओवैसी के अलावा चिराग पासवान ने खुले तौर पर नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ बिगुल फूंका था, लिहाज़ा, जदयू तीसरे पायदान पर थी.

महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना साथ लड़े और चुनाव के बाद अलग हो गये. कौन-सा शोध बताता है कि वहां के किस क्षेत्र की जनता ने किसके समर्थन में वोट करने की ख़ातिर भाजपा अथवा शिवसेना के गठबंधन को वोट दिया? लेकिन सरकार उद्धव ठाकरे की है. कर्नाटक में पिछले विधान सभा चुनाव के बाद से अबतक नाटक ही चल रहा है लेकिन कहीं किसी पर वोट काटने का आरोप उस तरह नहीं लगा जिस तरह ओवैसी पर लगा.

हैदराबाद का नेता आपके घर में आकर आपकी जनता के वोट ले जाने की कुव्वत रखता है तो उसे कोई टीम बी अथवा वोट काटने वाला बताने से पहले यह देखने की ज़रूरत है कि आप कहां हैं. आपके पांव तले ज़मीन बची भी है या दलदल है? आपने अपने आंगन में इतना काम क्यों नहीं किया कि कोई बाहरी आकर आपको नुकसान न पहुंचा सके.

राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को लेकर भी यही हाल है. इस बार कांग्रेस ने 'लड़की हूं, लड़ सकती हूं' के ज़रिये नया दांव खेला है. ज्ञात है कि यह चुनावी तिकड़म ही है लेकिन इस बहाने भी महिलाओं को जगह मिले, उनका प्रतिनिधित्व बढ़े तो हालात में फ़र्क़ आये. लेकिन उस लोकतंत्र से इसकी कितनी उम्मीद की जाए जहां अपराधी जनप्रतिनिधियों को चुनाव लड़ने से रोकने वाला अध्यादेश सदन में फाड़ दिया जाता है.

ओवैसी वोट कटवा देते हैं इसलिए दरकिनार कर दिये जाते हैं, अपराधियों को सिर-माथे पर बिठाया जाता है क्योंकि बाहुबली वोट खींचकर लाते हैं. सत्ता की लोलुपता और कुर्सी पर काबिज़ होने से मतलब है, वह ध्रुवीकरण करके हो या निरपेक्षता का दिखावा कर के.

ओवैसी की पार्टी दूध की धुली नहीं है, उनके भ्राताश्री स्वयं राजनीति को अपनी महान टिप्पणियों से अलंकृत करते रहे हैं. दूसरी बात यह कि दक्षिण की कोई पार्टी उत्तर में आकर दावेदार बने यह भी किसी को क्या भायेगा लेकिन यह भी विडम्बना ही है कि उत्तर की क्षेत्रीय पार्टियों को हैदराबाद के नेता से असुरक्षा का भान हो रहा है.

हिंदू वोटों का कटना और मुसलमानों का किनारा करना चुनाव की धुरी हैं और इसे झुठलाया नहीं जा सकता लेकिन कहलाना हमें धर्मनिरपेक्ष है और लोकतांत्रिक तो हम हैं ही.

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लेखक

रीवा सिंह रीवा सिंह @riwadivya

लेखिका पेशे से पत्रकार हैं जो समसामयिक मुद्दों पर लिखती हैं.

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