राष्ट्रपति चुनाव से पहले मोदी के 'अब्बास' का मिल जाना - संयोग है या कोई प्रयोग?
अब्बास (Abbas) यानी अपने बचपन के मित्र का जिक्र कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने नयी बहस छेड़ दी है - ये चर्चा नुपुर शर्मा विवाद और राष्ट्रपति चुनाव (President Election 2022) के बीच होने से राजनीतिक मायने अलग हो जाते हैं - और अहम भी.
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने अपनी मां हीराबेन के 100वें जन्मदिन के मौके पर एक ब्लॉग लिखा है - और स्मृतियों के झरोखे से तमाम बातें बताते हुए मोदी ने खासतौर पर अब्बास (Abbas) का जिक्र किया है.
प्रधानमंत्री मोदी के मुताबिक, उनके पिता के करीबी दोस्त के गुजर जाने के बाद वो उनके बेटे अब्बास को घर ले आये थे. अब्बास मोदी के घर पर ही पले-बढ़े. मोदी की मां हीराबेन ने अब्बास को भी अपने बच्चों जैसा ही प्यार दुलार किया - यहां तक कि ईद पर अब्बास की पसंद के खास पकवान बनाती थीं.
सितंबर, 2021 में भी प्रधानमंत्री मोदी ने अलीगढ़ में ऐसे ही एक ताला बेचने वाले मुस्लिम मेहरबान का किस्सा सुनाया था. तब प्रधानमंत्री मोदी ने बताया था, 'मेरे पिताजी से मुस्लिम मेहरबान की बड़ी अच्छी दोस्ती थी... आते थे तो चार-छह दिन हमारे गांव में रुकते थे... अभी भी मुझे याद है, वो काली जैकेट पहनते थे.'
अव्वल तो अब्बास का जिक्र मोदी ने बचपन को याद करते हुए किया है - लेकिन ये भी संयोग ही है कि ये मौका और अब्बास का जिक्र भी राष्ट्रपति चुनाव (President Election 2022) की तैयारियों के बीच ही आया है. थोड़ा दायरा बढ़ा कर देखें तो नुपुर शर्मा विवाद के बाद और राष्ट्रपति चुनाव से पहले. अलीगढ़ में तालेवाले मेहरबान का जिक्र भी मोदी ने जब किया था तब उत्तर प्रदेश में बीजेपी विधानसभा चुनावों की तैयारियां कर रही थी.
जब भी मोदी किसी ऐसे शख्स का जिक्र करते हैं, लोग उसके बारे में जानने के लिए गूगल करने लगते हैं. आज तक ने अपनी जांच पड़ताल के बाद पाया है कि गुजरात सरकार की नौकरी से रिटायर होकर अब्बास अभी ऑस्ट्रेलिया में अपने बेटे के पास रह रहे हैं.
प्रधानमंत्री मोदी के जिक्र के फौरन बाद ही अब्बास का नाम सोशल मीडिया पर ट्रेंड करने लगा है. अब्बास के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने की कोशिश हो रही है. मीडिया में भी अब्बास को लेकर रिपोर्ट आयी है. सोशल मीडिया पर अब्बास को लेकर लोग अपने अपने हिसाब से सवाल भी पूछ रहे हैं.
अब तो सवाल ये उठता है कि क्या अब्बास का जिक्र प्रधानमंत्री ने सिर्फ अपने बचपन का किस्सा ही सुनाने के लिए किया है? क्या ये जिक्र मोदी ने सिर्फ अपने बचपन की यादों की वजह से मां के जन्म दिन के मौके पर किया है? क्या ये महज संयोग है - और प्रधानमंत्री मोदी की इस बात के कोई राजनीतिक मायने नहीं हो सकते?
असल में, 'संयोग या प्रयोग' का देश की राजनीति में पहला प्रयोग करने वाला कोई और नहीं बल्कि, वो प्रधानमंत्री मोदी ही हैं. 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने शाहीन बाग के धरने और कुछ अन्य मुद्दों को लेकर ये सवालिया स्लोगन शुरू किया था - और अब जबकि खुद मोदी ने राष्ट्रपति चुनाव से पहले अब्बास का खास तौर पर जिक्र किया है, ये सवाल पूछना और समझना तो बनता ही है.
सबसे बड़ा सवाल क्या अब्बास के जरिये राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए के उम्मीदवार को डिकोड भी किया जा सकता है?
1. क्या ये सेक्युलरिज्म के प्रति कोई खास आकर्षण है?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हिंदुत्व की हार्डकोर राजनीति के मौजूदा दौर में रोल मॉडल हैं - और यही वजह है कि मोदी को 'कायर' और 'मनोरोगी' तक कह डालने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी तब तक उन पर निजी हमलों से बचते हैं जब तक खुद किसी बड़ी मुश्किल में नहीं फंस जाते. चुनावों के दौरान तो अरविंद केजरीवाल देशद्रोही जैसा बताये जाने और आतंकवादियों से रिश्ते के इल्जाम लगने पर भी चुप रह जाते हैं, लेकिन मामला जब सत्येंद्र जैन जैसा गंभीर हो जाता है तो गुस्सा स्वाभाविक ही है.
मां के जन्मदिन पर मोदी को याद आये बचपन के दोस्त अब्बास - ये राजनीतिक निशाना कहां तक जाता है?
ये हिंदुत्व की राजनीति का दबदबा ही है कि शिवसेना की विरासत संभालने की तैयारी में आदित्य ठाकरे को अयोध्या पहुंच कर और पीतांबर धारण कर 'सियाराम मय सब जगजानी...' का प्रदर्शन करना पड़ता है. राहुल गांधी को सॉफ्ट हिंदुत्व जैसे प्रयोग करने पड़ते हैं - और मायावती के मंच पर शंख और त्रिशूल के बीच जय श्रीराम के उद्घोष होने लगते हैं.
जय श्रीराम से चिढ़ जाने वाली ममता बनर्जी भी काली मां की शरण में चली जाती हैं और भरी सभा में चंडी पाठ करने लगती हैं - सवाल ये है कि जब हिंदुत्व का भारतीय राजनीति में इतना ज्यादा प्रभाव कायम हो चुका है तो प्रधानमंत्री मोदी को अचानक से अब्बास का जिक्र कर कोई नया संदेश देने की जरूरत क्यों पड़ रही है?
अपने जमाने में लौह पुरुष कहे जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी भी बाद में वाजपेयी बनना चाहते थे, लेकिन मोदी स्टाइल पॉलिटिक्स में तो ऐसा कभी नहीं लगा - फिर क्या समझा जाये ये सब सेक्युलरिज्म के प्रति कोई खास आकर्षण है जो रह रह कर अपनी तरफ खींचना शुरू कर देता है?
लेकिन देश में बड़े बहुमत के साथ सत्ता में लौटी बीजेपी की सरकार के नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मन में भी ऐसा कोई आकर्षण हो सकता है. क्या विपक्ष के एक नेता का जिक्र कर दो बार प्रधानमंत्री बन जाने के बाद की इच्छा के जिक्र में जो संदेश था, अब्बास के जिक्र में भी वैसा ही कुछ है?
2. ये जो ब्रांड मोदी है!
अभी जो ब्रांड मोदी है, सिर्फ वही अभी के हिंदुत्व की राजनीति की सबसे बड़ी ताकत है - और ये चीज सोशल मीडिया ट्रेंड या व्हाट्सऐप संदेशों में ही नहीं, गली-मोहल्लों से लेकर चाय-पान की दुकानों या फिर जहां कहीं भी आम लोगों की नियमित बैठकें हुआ करती हैं, बड़े आराम से लोगों के मूड को समझा जा सकता है.
संघ और बीजेपी की ये कोशिशें जैसे भी संभव हुई हों, लेकिन उनका समर्थक मानता भी है और खुलेआम कहता भी है कि अगर मोदी सरकार नहीं रही या बीजेपी सत्ता से बाहर हो गयी तो हिंदू कमजोर हो जाएगा. तस्वीर का दूसरा पहलू वही है जो स्वाभाविक तौर पर समझ में आता है - मतलब, जिनके लिए चुनावों के दौरान श्मशान और कब्रिस्तान में फर्क समझाया जाता है.
ऐसी बातें आज कल लोग खुलेआम करने लगे हैं. वे मान कर चल रहे हैं कि बीजेपी के सत्ता में रहने से ही या मोदी सरकार में ही एक दिन पाकिस्तान खत्म हो जाएगा - और ये लोग मानते हैं कि अगर जनसंख्या नियंत्रण जैसा कोई कानून नहीं बना तो हिंदू अल्पसंख्यक बन कर रह जाएगा - और इस बात को लेकर भरोसा सिर्फ मोदी पर ही है. बीजेपी नेताओं से इतर, बाकियों पर तो बिलकुल नहीं.
अब वो अब्बास हों या मुस्लिम मेहरबान - अगर कोई छोटा मोटा फायदा भले दिला दें या बीजेपी के वोटर तक कोई खास संदेश पहुंचाने में भले ही काम आ जायें, लेकिन ब्रांड मोदी के लिए ये अच्छा तो बिलकुल नहीं लगता.
3. क्या ये नुपुर शर्मा विवाद का असर है?
मेहरबान की तरह अब्बास की बात भी आई गयी हो गयी होती, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी का बयान चूंकि नुपुर शर्मा प्रकरण के बाद और राष्ट्रपति चुनाव से ठीक पहले आया है, इसीलिए सुनते ही कान खड़े हो जाते हैं. राजनीति में संदेश देने के तरीके भी तो ऐसे ही होते हैं.
जब दुनिया भर में धार्मिक स्वतंत्रता को लेकर अमेरिकी विदेश मंत्रालय की 2021 की रिपोर्ट से कोई फर्क नहीं पड़ता. जब अमेरिका के राष्ट्रपति रहते बराक ओबामा की भारत आकर धार्मिक मामलों को लेकर टिप्पणी से कोई फर्क नहीं पड़ता तो भला नुपुर शर्मा मामले पर बयान देकर पीछे हट जाने वाले अरब मुल्कों से किस बात का डर हो सकता है?
2014 में प्रधानमंत्री मोदी ने बीजेपी के स्लोगन 'सबका साथ, सबका विकास' को आगे बढ़ाया और 2019 तक पहुंचते पहुंचते उसमें 'सबका विश्वास' भी जोड़ दिया - क्या 2024 को लेकर कुछ और भी जोड़ने का इरादा किया गया है?
4. क्या राष्ट्रपति चुनाव से जुड़ा कोई संदेश है?
क्या ये हिंदुत्व की राजनीति में बीजेपी समर्थकों को समझाने की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कोई नयी कोशिश हो सकती है? क्या ये हिंदुत्व के दायरे से आगे बढ़ कर किसी समुदाय विशेष तक पहुंच बनाने की कवायद हो सकती है?
ऐसे दौर में जबकि अपनी आधिकारिक प्रवक्ता रहीं नुपुर शर्मा के बयान को लेकर बीजेपी को बैकफुट पर आना पड़ा है. मोदी सरकार की तरफ से नुपुर शर्मा को फ्रिंज एलिमेंट बतना पड़ा है, राष्ट्रपति चुनाव में भी बीजेपी के सामने ऐसी चुनौती है कि कोई ऐसा उम्मीदवार उतारे जिसका विरोध करना विपक्ष के लिए मुश्किल हो - और आगे बढ़ाने के बावजूद कदम पीछे खींचने पड़े.
चर्चाओं का आलम तो ये है कि राष्ट्रपति चुनाव की घोषणा होते ही, सोशल मीडिया पर केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खां का नाम ट्रेंड करने लगता है - जिसका मतलब है कि बीजेपी एपीजे अब्दुल कलाम की तरह फिर से किसी मुस्लिम को उम्मीदवार बना सकती है.
और ये सब तब हो रहा है जब राज्य सभा से बीजेपी के सारे मुस्लिम सांसदों का कार्यकाल खत्म होने वाला है. बल्कि, उनकी जगह नये सदस्यों का चुनाव भी हो चुका है - क्या बीजेपी को किसी तरह की भरपायी के लिए मजबूर होने की नौबत आ चुकी समझी जा रही है?
क्या 'अब्बास' के नाम में बीजेपी नेता मुख्तार अब्बास नकवी का अक्स भी देखा जा सकता है?
मुख्तार नकवी न सही, कोई और 'अब्बास' भी तो हो सकता है - क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने बचपन की यादों से अब्बास को निकाल कर किसी समुदाय विशेष को कोई खास मैसेज देना चाहते हैं?
मुख्तार अब्बास नकवी को लेकर ये भी चर्चा चल ही रही है कि वो शिया समुदाय से आते हैं जिनसे बीजेपी को कोई दिक्कत नहीं है. तीन तलाक कानून भी बीजेपी ने शिया समुदाय की महिलाओं को ध्यान में रख कर ही बनाया है, ऐसा माना जाता है कि बाकी मुस्लिम घरों की महिलाओं के बीजेपी से जुड़ने का स्कोप भी खुला हुआ है.
बहरहाल, जब तक बीजेपी राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए उम्मीदवार के नाम की घोषणा नहीं करती, प्रधानमंत्री मोदी के अब्बास में मुख्तार अब्बास नकवी अपना भी छोटा सा हिस्सा समझ कर उम्मीदें कायम रख सकते हैं - और ये तो वो भी मानते हैं कि 'मोदी है तो मुमकिन है'. कुछ भी मुमकिन है. आखिर बीजेपी के राजनीतिक विरोधी भी तो कटाक्ष में ही सही, कहते ही हैं - 'मोदी है तो...'
5. ये दांव उलटा पड़ सकता है
लेकिन ध्यान रहे, ये दांव उलटा भी पड़ सकता है. कभी भी, कहीं भी - कहीं ऐसा न हो बीजेपी नेतृत्व स्वर्णिम काल की उम्मीद में मुस्लिम राजनीति की तरफ बढ़े - और फिर अचानक ही हिंदू समाज भविष्य के 'अग्निवीरों' की तरह 'अग्निपथ' पर उतर आये!
फर्ज कीजिये, अभी हिंदू समुदाय को लगने लगे कि बीजेपी नेतृत्व को भी सेक्युलरिज्म वाली पॉलिटिक्स अच्छी लगने लगी है, ध्यान रहे - ब्रांड मोदी की वैल्यू एक झटके में गिर जाने का जोखिम है.
कहानी में अब्बास आ गया है, मस्तान भी आ सकता है।
— Imran Pratapgarhi (@ShayarImran) June 18, 2022
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