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Updated: 29 जून, 2016 05:35 PM
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ब्लैक मनी पर तस्वीर भले ही साफ हो गयी हो, लेकिन एनएसीजी पर अब भी 90 फीसदी लोग (सिर्फ जस्टिस काटजू कैटेगरी वाले ही नहीं) कन्फ्यूज हैं. ब्लैक मनी की बात जुमला रही, तो ये एनएसजी क्या बला है?

कहीं एनएसजी भी कोई जुमला तो नहीं? कहीं एनएसजी का भी मामला ब्रेक्जिट जैसा ही तो नहीं है? "अ्अ... हं... सही पकड़े हैं!"

जुमला बोले तो?

गुणीजन कहते रहे हैं और भक्तजन सुनते रहे हैं. गुणीजन कहते हैं, 'जा मा सा माया' और भक्तजन आंख मूंदे हुए मान लेते हैं. कोई भी भक्त इस चक्कर में नहीं पड़ता कि गुणीजन के कहने का मतलब आखिर है क्या?

जब गुणीजन को लगता है भक्तों ने उनकी बातें रट ली होंगी तो वो अर्थ समझाना शुरू करते हैं - 'जा मा सा माया' का मतलब है - जो नहीं है वो माया है.

जो नहीं है वो माया है यानी जो है वो माया नहीं है! अब ये कैसे समझ में आये कि क्या है और क्या नहीं है?

अब माया पर और उलझन बढ़ जाती है - माया क्या है?

भक्त के सवाल पर फिर गुणीजन का वही जवाब होता है - जो नहीं है वो माया है.

कन्फ्यूजन गहराता जाता है, "तो क्या नहीं है?"

"जुमला!"

"जुमला?"

ओह, इतनी आसान बात समझने में इतनी मुश्किल हुई.

"समझ गया - जो नहीं है वो माया है..."

"...और जो नहीं है वो जुमला है."

इस तरह 'माया' ही 'जुमला' है. इति सिद्धम्.

भरोसा, भ्रांतिमान और संदेह

जब ये सिद्ध हो गया कि माया ही जुमला है तब तक कलियुग में गूगल का अवतरण हो चुका होता है. लोग गुणीजनों की संगत के साथ साथ गूगल पर भी सक्रिय हो जाते हैं.

कुछ लोग तो गुणीजन पर आजीवन वैसे ही श्रद्धावनत रहते हैं - पूरे भरोसे के साथ.

कुछ लोग कभी 'भ्रांतिमान' तो कभी 'संदेह' जैसे उलझनों में उलझे रहते हैं.

कुछ लोग संदेह मिटाने के लिए 'गूगलं शरणं गच्छामि' हो जाते हैं.

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ये सब होते होते चीन भी साफ कर चुका होता है कि अमेरिका का मतलब पूरी दुनिया नहीं होता. बिजनेस की मंशा से तकनीक और ताकत हासिल कर लेने का मतलब दुनिया की सबसे बड़ी आबादी को बौना समझना शायद सबसे बड़ी भूल होगी. संगठित आबादी हर तकनीक पर भारी पड़ती है. फेसबुक और ट्विटर के बिना भी संगठित आबादी वो हर काम कर सकती है जिसको लेकर उसका इरादा हो. अपना फेसबुक और अपना ट्विटर, खास अपनी संगठित आबादी के लिए.

आखिर भारत को ऐसा क्यों लगा कि चीन उसकी बात मान जाएगा?

मौजूदा समीकरण में जो पाकिस्तान को नामंजूर हो उसके लिए चीन भला 'हां' कैसे और क्यों कहेगा? आखिर पाकिस्तान, चीन का खास से भी कहीं ज्यादा खास दोस्त जो है.

तो क्या एनएसजी को लेकर भारत को सिर्फ एक उम्मीद थी या सिर्फ इतना कि कोशिश करने में क्या जाता है?

भारत ने एक उम्मीद भरी कोशिश की. कोशिश करना गलत नहीं होता. कोशिशें कामयाब हों ये भी जरूरी नहीं!

फिर क्या हर बात में कोशिश करते रहना चाहिए?

खैर, छोड़िये माया की बात - ये एनएसजी क्या जुमला है?

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असल में, एनएसजी भारत के खिलाफ एक दौर की लामबंद व्यवस्था है. भारत के पहले परमाणु परीक्षण के बाद खुद को दुनिया का नेता समझने वाले कुछ देशों ने सोचा कि कोई और देश ऐसी हिमाकत न कर बैठे. इसलिए दुनिया के पांच सबसे ताकतवर देशों ने कुछ और मुल्कों को मिलाकर एक फोरम बना लिया.

अब सवाल ये है कि भारत को एनएसजी पर इतनी दौड़-धूप और ऐसा माहौल बनाना चाहिये था या नहीं?

पूर्व विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा की नजर में तो बिलकुल नहीं. विपक्ष का तो धर्म है सरकार की आलोचना. हालांकि, इस मामले में सिन्हा भी फिलहाल 50 परसेंट विपक्ष जैसे ही हैं.

सिन्हा का कहना है कि भारत को इस ग्रुप का हिस्सा बनने और इसकी सदस्यता के लिए अर्जी देने की ज़रूरत ही नहीं थी.

बीबीसी से बातचीत में सिन्हा कहते हैं, "मुझे नहीं पता कि जो लोग सरकार में बैठे हैं वो इसे समझते हैं या नहीं. लेकिन मुझे पता है कि सरकार में ऐसे लोग बैठे हैं जो उसे रोजाना गुमराह कर रहे हैं."

देखा जाए तो देश में एनएसजी पर वैसी ही समझ निकल कर आ रही है जैसी ब्रेक्जिट पर अंग्रेजों की दिख रही है.

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अब तुम्हारे हवाले...

रेफरेंडम हुआ - करीब चार फीसदी के अंतर से तकरीबन आधे लोग पक्ष में और आधे उसके खिलाफ खड़े हो गये. नतीजे आते ही डेविड कैमरन की कुर्सी भी चली गई.

वोट देने वालों में ऐसे लोगों की भारी तादाद भी सामने आ रही है जिन्हें पछतावा हो रहा है.

तो क्या अंग्रेजों ने भी माया या जुमला की परवाह किये बगैर वोट कर दिया और फिर गूगल की शरण में उतरे - मालूम हुआ तो महसूस हुआ - ये तो गलती हो गयी.

अब गलती हो गई तो भूल सुधार की कोशिश होनी चाहिये. भूल सुधार का एक धांसू आइडिया भी आ गया. जिस अंग्रेज ने आइडिया दिया है संयोगवश वो दिल्ली में रहता है.

अंग्रेजों भारत जाओ!

अपने फेसबुक पोस्ट में निक बुकर ने सलाह दी है कि ब्रिटेन को लिटिल यूरोप को गुडबाय करके इन्क्रेडिबल इंडिया को नमस्ते कहना चाहिए. निक की राय है कि 'ब्रिटेन चाहे तो भारत का हिस्सा बन सकता है. ब्रिटेन को ऐसा करने में कोई दिक्कीत भी नहीं होगी, क्योंाकि वो पहले भी भारत के साथ रह चुका है.'

अपने आइडिया निक ने तथ्यों और तर्क के साथ पेश किया है. निक कहते हैं, "किसी बड़े देश का हिस्सा न बन पाने की चिंता मत करिए क्योंकि भारत की आबादी यूरोपीय संघ की आबादी से दोगुनी है. आधी आबादी 35 साल के नीचे हैं. इसलिए बूढ़ी होती जनसंख्या की भी चिंता नहीं होगी."

इस तरह निक की सलाह है - '21वीं सदी को गले लगाओ. ब्रुसेल्स को दिल्ली से बदल दो. लिटिल यूरोप को गुडबाय करके इन्क्रेडेबल इंडिया को नमस्ते कह दो.'

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