‘दही-हांडी’ की राजनीति का धार्मिक रूप
क्यों दूसरे धर्मों में बलि प्रथा, घुड़सवारी, शबेरात, मुहर्रम पर भी रोक नहीं लगाई जाती जिसमें कई लोग बेवजह मारे जाते हैं और जिसकी वजह से आम आदमी को कई परेशानियां झेलनी पड़ती हैं.
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दक्षिण भारत में लोकप्रिय 'जल्लीकट्टू' की परंपरा पर रोक लगाने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र मं दही-हांडी अनुष्ठान को लेकर एक अहम फैसला सुनाया है, जिसके बाद से मजहबी जंग के साथ राजनीति शुरू हो गई है.
जन्माष्टमी पर हर साल बढ़ते हादसों को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाईकोर्ट के 2014 के फैसले को बरकरार रखते हुए इस साल दही-हांडी की ऊंचाई 20 फीट से ज्यादा न रखने और 18 साल से कम उम्र के 'गोविंदाओं' के भाग लेने पर रोक लगा दी है.
हांलाकि, न्यायमूर्ति ए आर दवे और न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव की पीठ ने याचिका पर नए सिरे से गौर करते हुए इस मसले पर अक्टूबर में विस्तार से सुनवाई करने का निर्णय लिया है.
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इसके साथ ही पीठ ने दही-हांडी समारोह के नियमन के लिए हाईकोर्ट की ओर से जारी दो अन्य निर्देशों के पालन को निलंबित कर दिया है. इसमें 18 साल से कम उम्र के बच्चों को खतरनाक प्रस्तुतियों में शामिल होने से रोकने के लिए कानून में संशोधन से जुड़ा निर्देश निहित है. वहीं दूसरे निर्देश जिसमें ‘गोविंदाओं’ के जन्म प्रमाण पत्र पर अंकित जन्मतिथि को जांचने वाले अधिकारियों से 15 दिन पहले मंजूरी लेने की बात कही गई है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई भी कम उम्र का बच्चा इसमें हिस्सा नहीं ले रहा है, को भी निलंबित कर दिया है.
अब बच्चे नहीं दिखेंगे दही-हांडी के खेल में खतरा मोल लेते |
दोनों जज महाराष्ट्र सरकार की ओर से उपस्थित अतिरिक्त सॉलीसीटर जनरल तुषार मेहता की दलीलों से सहमत नहीं हुए, जिसमें उन्होंने कहा था कि गोविंदा भगवान कृष्ण का प्रतीक है और 12 से 15 साल के बच्चों को गोविंदा की भूमिका के लिए अधिक उपयुक्त माना जाता है. इस पर पीठ ने उन्हें जवाब में कहा कि हमने भगवान कृष्ण के मक्खन चुराने की बात सुनी है, लेकिन हमने भगवान के करतब दिखाने की बात नहीं सुनी है.
गौरतलब है कि हर साल जन्माष्टमी पर आयोजित होने वाले दही-हांडी कार्यक्रम में अधिक उंचाई पर टंगे दही और मक्खन की हांडी को तोड़ने पर करोड़ों रुपये की पुरस्कार राशि दी जाती है. इस कार्यक्रम को देखने के लिए बड़े से बड़ा बॉलीवुड स्टार भी पहुंचता है, वहां बोली लगाई जाती है कि कौन कितना उंचा जाएगा. लेकिन इन बड़ी रकमों के लालच में आकर न जाने कितने बच्चे मौत को गले लगा लेते हैं, कई बच्चे गंभीर रूप से घायल भी हो जाते हैं. 2012 के जन्माष्टमी कार्यक्रम के दौरान भी एक बच्चे की गिरकर मौत हो गई थी और 40 बच्चे गंभीर रूप से घायल हो गए थे.
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वहीं दूसरी ओर राजनीतिक दल सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से नाखुश नजर आ रहे हैं. महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे ने शीर्ष न्यायालय के फैसले पर निराशा व्यक्त करते हुए कहा कि अदालतों को परम्पराओं और संस्कृति के मामले में दखल देने से अलग रहना चाहिए, जो साथ-साथ चल रहे हैं. इसके साथ ही उन्होंने कोर्ट के फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा कि हिंदू त्यौहारों पर न्यायपालिका हमेशा से कठोर रही है. वहीं मुस्लमानों के त्यौहार मुहर्रम में बच्चों के हिस्सा लेने वाले मुद्दे पर वह कोई कार्रवाई क्यों नहीं करती है. जब सब कुछ अदालत की ही मर्जी से होगा, तो चुनाव कराना बंद कर सरकार चलाने की जिम्मेदारी भी कोर्ट को ही सौंप देनी चाहिए.
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सामाजिक कार्यकर्ता स्वाति पाटिल ने बॉम्बे हाईकोर्ट का आदेश न मानने का दावा करते हुए राज्य सरकार के खिलाफ याचिका दायर की थी. जिससे यह मामला एक बार फिर प्रकाश में आया. सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला जन्माष्टमी के त्यौहार पर बहुत ही महत्वपूर्ण हो गया है, जिसमें दही-हांडी उसका अहम हिस्सा है. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने भी लोगों को सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइंस को ध्यान में रखते हुए त्यौहार मनाने के निर्देश जारी कर दिए हैं. लेकिन इससे हिंदू समुदाय में घोर निराशा फैल गई है. उन्हें लगता है कि वह आजाद भारत में रहने के बावजूद कई तरह के नियम और शर्तों से बंधे हुए हैं. साथ ही अपने धर्म पर लगने वाली पाबंदी से वह आहत है, क्योंकि उनका मानना है कि वह तो केवल सदियों से चली आ रही अपनी परंपराओं को आगे बढ़ा रहे हैं, न कि किसी को ठेस पहुंचा रहे हैं. फिर हमारे ही धर्म पर हमेशा शीर्ष फैसला क्यों आता है, क्यों दूसरे धर्मों में बलि प्रथा, घुड़सवारी, शबेरात, मुहर्रम पर भी रोक नहीं लगाई जाती जिसमें कई लोग बेवजह मारे जाते हैं और जिसकी वजह से आम आदमी को कई परेशानियां झेलनी पड़ती हैं. शबेरात पर बाइकर्स का हुड़दंग मचाना, रात में सड़क हादसों को निमंत्रण देना. क्या इन पर रोक नहीं लगनी चाहिए? क्या इनसे किसी को खतरा नहीं?
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