क्या यूपी की राजनीति का नया अध्याय लिखेगी चाचा-भतीजे की ये लड़ाई?
चाचा-भतीजे के बयान और उसके तेवर से साफ है कि ये युद्धविराम स्थायी नहीं बल्कि तात्कालिक है. असल में ये एक बड़े युद्ध का आगाज है, युद्ध वर्चस्व की लड़ाई का.
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शुक्रवार दोपहर के साढ़े बारह बजे जब देश की समूची मीडिया लखनऊ और दिल्ली में बैठकर या यूं कहे एक पांव पर खड़े होकर जब लगातार इस बात का कयास लगा रही थी कि, देश के मौजूदा यादव वंश की लड़ाई में अगला वार किसका भारी पड़ेगा तब मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इंडिया टीवी के एडिटर–इन-चीफ को लाइव इंटरव्यू दे रहे थे. इस दौरान उस कार्यक्रम में दिल्ली और लखनऊ के कई बड़े पत्रकार और गणमान्य लोग भी वहां मौजूद थे.
मुझे ध्यान नहीं पड़ता कि मैंने अपने अब तक के पत्रकारिता के करियर में कभी भी ऐसी राजनैतिक घमासान के बीच किसी मुख्यमंत्री को सब कुछ छोड़कर, टेलीविजन स्टूडियो में देश के सबसे बड़े पत्रकारों में से एक, वो भी जिन्हें दिल्ली का करीबी माना जाता है उसके तीखे सवालों का जवाब देते हुए देखा जाए. लेकिन अखिलेश यादव ने ऐसा किया और बखूबी किया.
इंटरव्यू में बड़ी बेबाकी और परिपक्वता के साथ जवाब दे रहे थे अखिलेश |
पूरे इंटरव्यू के दौरान वे काफी निडरता, बेबाकी और परिपक्वता के साथ सवालों के जवाब देते रहे, जिससे उन्हें पहली बार सुनने वाले लोग भी उनकी साफगोई के कायल हुए. हालांकि इंटरव्यू के दौरान ही रजत शर्मा ने उन्हें जानकारी दी कि नेताजी ने बर्खास्त मंत्री गायत्री प्रजापति को दोबारा मंत्रिमंडल में शामिल करने का ऐलान किया है. इसे सुनने के बाद, अखिलेश के चेहरे का एक रंग एक पल के लिए फीका पड़ गया लेकिन उन्होंने उस सिचुएशन को भी बड़ी ही गरिमा के साथ स्वीकारते हुए कहा कि वो किसी अपने को मुख्यमंत्री का पद देने के लिए भी तैयार हैं. लेकिन उनकी सिर्फ एक शर्त है कि और वो ये कि आगामी विधानसभा चुनाव के लिए जब टिकट दिए जाएं तो उसमें उनकी भी मंज़ूरी शामिल हो.
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दूसरी तरफ तथाकथित समझौते के बाद शिवपाल सिंह यादव जब मीडिया के सामने आए तो उनके बयान कुछ ऐसे थे- मुख्यमंत्री होने का अहं नहीं होना चाहिए, पढ़े-लिखे हैं तो अक्ल से काम लें और ये कि साल 2011 में मुझसे भी ऐसे ही प्रदेश अध्यक्ष का पद छीन लिया गया था.
चाचा-भतीजा के बयान और उसके तेवर से साफ है कि ये युद्धविराम स्थायी नहीं बल्कि तात्कालिक है. असल में ये एक बड़े युद्ध का आगाज है, युद्ध वर्चस्व की लड़ाई का. दोनों ही समाजवादियों के तमाम बयानों पर नजर डालें तो वहां सिर्फ एक बात समान है और वो ये कि नेताजी हमारे मुखिया हैं और उनकी इच्छा सर्वोपरी. लेकिन शायद इन दोनों के बीच की सबसे बड़ी विडंबना भी खुद नेताजी ही हैं.
अखिलेश के राजनीति में आने से पहले तक, शिवपाल सिंह यादव पार्टी में नंबर दो हैसियत रखते थे, धार्मिक रुपक दिया जाए तो वे अपने राम भईया के लक्ष्मण थे. इटावा जिले के जिस सैफई गांव में मुलायम सिंह यादव का जन्म हुआ, शिवपाल भी वहीं उनके साथ ही पले-बढ़े. मुलायम जब अखाड़े में कुश्ती करते थे, शिवपाल तब भी उनके साथ हुआ करते थे.
मुलायम जब राजनीति में आए तो यहां भी उनका सबसे भरोसेमंद कंधा शिवपाल सिंह यादव का ही था. जैसे-जैसे मुलायम सिंह यादव का कद राज्य और फिर राष्ट्रीय राजनीति में बढ़ता गया, वैसे-वैसे संगठन के स्तर पर शिवपाल सिंह यादव की भी साख बढ़ती गई, क्योंकि जब बड़े भाई तीन-तीन बार मुख्यमंत्री बने और एक बार रक्षा मंत्री तब पार्टी को गांव, प्रखंड और जिला स्तर पर एक बनाए रखने की बड़ी जिम्मेदारी शिवपाल सिंह यादव ने ही संभाली. जिस मुलायम सिंह की भाषा और राजनीति बड़ों-बड़ों और उनके बेटे को समझ नहीं आती है उसे उनके छोटे भाई बिना बोले ही समझ लेते हैं. और यही मुलायम सिंह यादव की कमजोरी और शिवपाल सिंह यादव की ताकत है.
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इसके उलट धौलपुर सैनिक स्कूल, मैसूर यूनिवर्सिटी और प्रतिष्ठित सिडनी यूनिवर्सिटी से मास्टर्स की डिग्री हासिल करने वाले अखिलेश एक नई पीढ़ी के नेता हैं. वे काफी पढ़े-लिखे, जानकार, अप्रोचएबल, सौम्य लेकिन दृढ़ और निडर नज़र आते हैं. वो नई तरह की राजनीति करना चाहते हैं जहां शिक्षा, विकास, समावेश, औद्योगिकीकरण, महिला सशक्तिकरण जैसे मुद्दों पर ध्यान दिया जा सके. हालांकि उन्होंने युवा वर्ग को आकर्षित करने के लिए लैपटॉप और स्मार्ट फोन जैसे लोक-लुभावन वादे भी किए हैं, जिसकी सफलता पर बहस की जा सकती है. पर ये लैपटॉप या स्मार्ट फोन हर हाल में जातीय राजनीति और हाथी की मूर्ति बनवाने से तो बेहतर विकल्प हैं.
अखिलेश चाहते हैं कि वे अगला चुनाव एक्सप्रेस-वे, मेट्रो, शिव-नाडर यूनिर्वसिटी, पतंजलि पार्क और महिला पेंशन और लैपटॉप जैसे मुद्दों पर लड़ें लेकिन नेताजी और शिवपाल चाहते हैं कि अब तक के आजमाए अपने राजनैतिक हथकंडों, जोड़-तोड़, दलीय मिलीभगत, मुसलमानों, यादवों और पिछड़ों की राजनीति के सहारे ही आने वाले चुनाव में मैदान में उतरें, जो अखिलेश को गवारा नहीं है. विवाद यही है. आखिर जिस लीक पर मुलायम और शिवपाल सालों से चलते आए हैं उसे भला ये आज का नौजवान बदल कैसे सकता है? और अगर वो बदलने में कामयाब होता है तो इससे पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच क्या संदेश जाएगा? शिवपाल और उनके गुट के लोगों का पार्टी के भीतर क्या स्थान रह जाएगा?
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आज के फैसले के बाद अखिलेश जरूर ठगा सा महसूस कर रहे होंगे, क्योंकि उन्होंने अपनी सरकार, पार्टी और राज्य की छवि बदलने के लिए काफी मेहनत की है, लेकिन अब उनकी उस मेहनत को ही सिरे से नकार दिया जा रहा है. देखा जाए तो सबसे बड़ी राजनीति खुद अखिलेश और फिर उत्तर-प्रदेश की जनता के साथ हुई है. चार साल तक जिस जनता को विकास का पाठ पढ़ाया गया, उन्हें फिर से दल-दल में धकेलने की तैयारी शुरू हो चुकी है. लेकिन कब तक...?
मुलायम कह चुके हैं कि वो अपने जीते-जी पार्टी का बंटवारा नहीं होने देंगे. वे 78 साल के हो चुके हैं और फिलहाल पूरी तरह से स्वस्थ हैं, हालांकि राजनीति से उनके रिटायरमेंट की चर्चा भी अक्सर सुनी जाती है. अगर ऐसा होता है तो क्या चाचा-भतीजे की महत्वकांक्षा की ये लड़ाई, यूपी के राजनैतिक इतिहास का एक नया अध्याय लिखेगी?
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