ये तो सोचा ही नहीं - 'गूगल-फेसबुक' कभी इतने खतरनाक भी हो सकते हैं!
एक अरबपति निवेशक और हाई कोर्ट के एक न्यायाधीश ने फेसबुक को लेकर बड़ी ही गंभीर टिप्पणी की है - एक ने लोकतंत्र के लिए तो, दूसरे ने समाज के लिए फेसबुक को खतरनाक बताया है. फिर सोचना तो पड़ेगा ही.
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अभी खबर आयी थी कि गुड-मॉर्निंग मैसेज के चलते सारे स्मार्टफोन स्लो हो रहे हैं. स्थिति ये हो चुकी है कि स्मार्टफोन के बगैर एक पल भी रहना मुश्किल हो चला है. कई काम तो ऐसे हो चुके हैं कि चाह कर भी अपने फोन से दूर रहना मुश्किल होता है.
ऐसे में अगर ये सुनने को मिले कि फेसबुक और गूगल के दिन गिनती के बचे हैं तो कैसा लगेगा? जाहिर है मामला गंभीर ही लगेगा. और वो भी तब जब कोई बड़ी शख्सियत ऐसी बात कहे.
अमेरिकी अरबपति इन्वेस्टर जॉर्ज सोरोस की नजर में फेसबुक और गूगल जैसी कंपनियां बस कुछ ही दिनों की मेहमान हैं. जॉर्ज सोरोस ने इनकी कार्यप्रणाली को लोकतंत्र के लिए खतरनाक बताया है. साथ ही, गुजरात हाई कोर्ट की एक टिप्पणी भी बेहद गंभीर है - 'फेसबुक के जरिये होने वाली शादियों का टूटना तय है!'
कठघरे में फेसबुक-गूगल!
गुजरात हाई कोर्ट में घरेलू हिंसा का एक मामला पहुंचा था. ये केस फेसबुक के जरिये 2011 में संपर्क में आये एक जोड़े का रहा जिन्होंने परिवारवालों की रजामंदी से 2015 में शादी कर ली. हालांकि, शादी के दो महीने बाद ही उनमें खटपट होने लगी. फिर घरेलू हिंसा और दहेज उत्पीड़न का मुकदमा दर्ज कराया गया.
फेसबुक वाली शादी...
सुनवाई करते वक्त गुजरात हाईकोर्ट के न्यायाधीश जेबी पर्दीवाला ने कहा, ‘‘उनकी शादी हुई और दो महीने के भीतर उनके वैवाहिक जीवन में समस्या आने लगी. मैं इस तथ्य पर गौर करूंगा कि पक्षों ने मामले का समाधान करने का प्रयास किया हालांकि समझौता नहीं हो सका.’’
फिर जस्टिस पर्दीवाला की टिप्पणी रही - ‘‘ये फेसबुक पर निर्धारित आधुनिक शादियों में से एक है, जिसका विफल होना तय है.’’
फेसबुक के खिलाफ ऐसी ही निगेटिव टिप्पणी वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम के कार्यक्रम में भी सुनने को मिली जब जॉर्ज सोरोस ने गूगल को भी कठघरे में खड़ा कर दिया.
'गिनती के दिन...'
जॉर्ज सोरोस की राय में सोशल मीडिया कंपनियों का लोकतंत्र के कामकाज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है - जिसका सीधा असर चुनावी राजनीति पर भी पड़ना तय है.
सोरोस ने कहा, "सोशल मीडिया कंपनियां अब काफी असर डालने लगी हैं - लोग कैसा सोचें और व्यवहार करें? ऐसी बातों से बेखबर लोग सोशल मीडिया के हिसाब से सोचने लगे हैं. - और लोकतंत्र के कामकाज पर इसका दूरगामी और विपरीत प्रभाव पड़ा है, खासकर चुनावों की शुचिता पर."
जॉर्ज सोरोस के भाषण को कई तरह से देखा जा सकता है. एक ऐसे दौर में जब तकनीक पल पल अपडेट होकर उन्नत और अति उन्नत होती जा रही हो, उसके प्रभाव से बचने की बात करना वैसे ही है जैसे वैलेंटाइंस डे पर तफरीह के मूड में निकले पर युवा जोड़ों को पकड़ कर कोई संस्कार सिखाने लगे. या फिर यूपी जैसे राज्य में योगी आदित्यनाथ का एंटी रोमियो स्कवॉड एक्शन के मामले में बजरंग दल कार्यकर्ताओं की तरह पेश आने लगे. यही वजह है कि जॉर्ज सोरोस की राय पर रिएक्शन में लोग उनकी उम्र की ओर इशारा करने लगे हैं. ऐसे लोग ये समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि वो बूढ़े हो चले हैं और ऐसी बातें इसलिए कह रहे हैं क्योंकि वो खुद को इन सबके कॉम्पैडिबल नहीं समझ रहे हैं.
जॉर्ज सोरोस की नजर फेसबुक-गूगल पर...
जॉर्ज सोरोस की बातों से ऐतराज होने की एक वजह उनका अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की विरोधी लॉबी का होना भी है. अपनी स्पीच में वो समझाते हैं कि ट्रंप प्रशासन से दुनिया को खतरा है और वो 2020 में अंतर्ध्यान हो जाएगा - लेकिन मुझे लगता है कि 2018 में ही डेमोक्रेडिक लैंडस्लाइड देखने को मिलेगा. उनका इशारा सोशल मीडिया खासकर गूगल और फेसबुक को लेकर है.
सोशल मीडिया बनाम मेनस्ट्रीम मीडिया!
तो क्या जॉर्ज सोरोस की भविष्यवाणी है कि फेसबुक और गूगल जल्द ही खत्म हो हो जाएंगे. जॉर्ज सोरोस की बातों पर गौर करें तो ऐसा नहीं लगता - क्योंकि वो उनकी कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान लगा रहे हैं. वो उसके रेग्युलेशन की बात कर रहे हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई लगाम नहीं चाहिये लेकिन इसकी आड़ में कुछ लोगों को बेलगाम होकर अपना हित साधने की छूट कहां तक दी जानी चाहिये. कुछ हद तक जॉर्ज सोरोस इसी की वकालत कर रहे हैं.
31 दिसंबर को मन की बात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने न्यू इंडिया के वोटर का स्वागत किया था. ये वे नौजवान हैं जो 2000 में पैदा हुए और पहली बार आम चुनाव में वोट डाल सकेंगे. ऐसे नौजवानों की तकरीबन पूरी आबादी सोशल मीडिया पर ही जीती, जागती और सोती है. जॉर्ज सोरोस ओपन सोसाइटी फाउंडेशंस के संस्थापक हैं. ये संस्था दुनिया भर में लोकतंत्र और मानवाधिकारों का मुद्दा उठाती है. जॉर्ज सोरोस को डर है कि सोशल मीडिया कंपनियां जान बूझ कर लोगों को अपनी सेवाओं की लत लगा रही हैं. जॉर्ज सोरोस कहते हैं, 'ये बहुत नुकसानदेह है, खास कर किशोरों के लिए.'
प्रधानमंत्री मोदी का सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा जोर रहता है. जॉर्ज सोरोस जिसे लत बता रहे हैं, प्रधानमंत्री मोदी कहा करते हैं कि ये सब किसी को सिखाने की जरूरत नहीं पड़ती. एक दूसरे से लोग वैसे ही सीख जाते हैं. अपने कार्यक्रमों में मोदी पूछते भी हैं, "व्हाट्सऐप चलाना किसी ने सिखाया क्या?" वैसे भी लत कोई भी हो असर सिर्फ संगत का होता है, सिखाने की जरूरत नहीं पड़ती. जॉर्ज सोरोस का आशय इसी बात से लगता है.
ये सोशल मीडिया के दौर का ही तकाजा है जब प्रधानमंत्री मोदी और उनके तमाम साथियों को ट्विटर और फेसबुक के जरिये लोगों से कनेक्ट होते तो देखा जाता है, लेकिन मुख्यधारा की मीडिया से पूरी तरह डिस्कनेक्ट नजर आते हैं.
प्रधानमंत्री मोदी को ही लें तो तो उन्हें प्रेस से इंटरैक्ट करने की जरूरत नहीं पड़ती. वो बातें ट्विटर पर ही कहा करते हैं. टेक्स्ट भी, फोटी भी - और लाइव भी. उनके संवाद का एक माध्यम रेडियो भी है और वो भी शायद इसीलिए क्योंकि वहां भी एकतरफा संवाद की बेहतरीन सुविधा है. अगर कभी कभार टीवी पर मोदी का इंटरव्यू देखने को मिलता है तो वो भी मन की बात का ही एक्सटेंशन लगता है.
सियासत और सोशल मीडिया...
कोई सवाल पूछने वाला नहीं. हालत ये हो गयी है कि संवाद भी एकतरफा है - और सवाल भी एकतरफा हो जा रहे हैं. एक बार कोई ट्विटर के जरिये मन की बात कह कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ले रहा है तो दूसरी तरफ उन्हीं मंचों पर सवाल पूछने वाले अंदर की बात बाहर कर के संतोष पाने की कोशिश कर रहे हैं. जब तक रियलटाइम सवाल-जवाब नहीं होगा, भला इसका क्या मतलब रह जाता है?
ट्विटर ने तो ऐसी स्थिति बना दी है कि - आधी लड़ाई और पूरा प्रचार वहीं हो रहा है. जब सारा काम सोशल मीडिया से होने लगे फिर भला मेनस्ट्रीम मीडिया का क्या काम?
इस बीच मीडिया मुगल रूपर्ट मर्डोक ने भी फेसबुक जैसी कंपनियों की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता पर सवाल खड़े किये हैं, लगे हाथ नयी डिमांड रख दी है - ऑनलाइन कंपनियों को उनके प्लेटफॉर्म पर पहुंचने वाले न्यूज कंटेंट का पैसा देना चाहिये. फिर तो सज में लगने लगा है कि काउंटडाउन शुरू हो चुका है.
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