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Updated: 15 अगस्त, 2017 02:10 PM
प्रीति 'अज्ञात'
प्रीति 'अज्ञात'
  @preetiagyaatj
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तकनीक, सुविधा के लिए होती है पर इसने हमें पंगु बना दिया. आलस बढ़ा, बीमारियां बढ़ीं, तनाव बढ़ा और इतने वर्षों के विकास के बाद भी मनुष्य की औसत आयु लगभग पंद्रह वर्ष और कम हो गई. उम्र घटी, उदासी में वृद्धि हुई. जाने यह जल्दबाजी है या समझदारी कि बच्चे समय के पहले ही परिपक्व होने लगे. मशीनों के काम ने जीवन आसन कर दिया पर उन कार्यों के लिए अब भी समय नहीं मिलता जो इन मशीनों के न रहते हुए भी हो जाते थे.

इंटरनेट और वाट्सएप के युग में अब संवेदनाएं भी प्लास्टिक की हो चुकी हैं. चिट्ठियां, इमोजी की शक्ल में आने लगीं और भावनात्मक रिश्तों का कोई मूल्य ही नहीं रहा. रिश्ते कुंठा और अवसाद की बलि चढ़ने लगे. पैसा अब भी सुख-शांति नहीं खरीद सका. हमने भागते-भागते संवेदनाओं का भी मशीनीकरण कर दिया है.

अपराधों की वीभत्सता अब अपने चरम पर है. हर प्रदेश, हर शहर, गांव, कस्बे में नित नए अपराध सबकी नींद उड़ा देते हैं. जीना कितना मुश्किल हो गया है या फिर ये कहिये कि मरना आसान हो चला है. ऐसा नहीं कि यह सभी घटनाएं इन दिनों ही घट रही हैं, ये तो वर्षों से चला आ रहा है. अंतर मात्र इतना है कि अब मीडिया और सोशल साइट्स की सक्रियता से नोटिस में भी आने लगा है.

independence day

संवेदनाएं यूं ही समाप्त नहीं होती जा रहीं, ये एक अनवरत प्रक्रिया से गुजर रहीं हैं.

हर घटना के लिए सरकार को ही पूरी तरह से उत्तरदायी ठहराना सही नहीं. हम नारे लगाते हैं, हड़ताल करते हैं, तोड़फोड़ करते हैं और आवश्यकतानुसार दुर्बुद्धि का प्रयोग करते हुए राष्ट्रीय संपत्ति को नष्ट करने से भी नहीं चूकते. हमें अपने अधिकारों का तो खूब भान है लेकिन देश के प्रति अपने कर्त्तव्य अत्यंत सहजता से भूल जाते हैं. यहां 'हम' का तात्पर्य उन तमाम नागरिकों से है, जो-

* बेटी बचाओ' का आह्वान कर बेटों को 'गलतियों' की पूरी छूट देते हैं.

* जो बच्ची, युवती और वृद्धा से बलात्कार का दोषी उनके वस्त्र-चयन को ठहराते हैं.

* 'सफाई अभियान' की प्रशंसा करते हुए, पान की पिचकारी कहीं भी उछाल देते हैं. धीरे-धीरे वो दीवार एक सप्ताह के भीतर ही किसी दुर्गंधयुक्त कलाकृति में परिवर्तित हो जाती है. फिर ये व्यवस्था को कोसते हुए नाक सिकोड़कर उसी रास्ते से गुजरते हैं.

* 'सुलभ शौचालयों' की सुलभ गंदगी को खरीखोटी सुनाकर, पानी चलाना भूल जाते हैं.

* सार्वजानिक स्थानों पर खाली रैपर्स के हवाई-जहाज उड़ा अपने बचपन को जीवित रखने की भौंडी कोशिश करते हैं.

* पानी की बोतल को खाली करते ही चुपचाप किसी कोने में खिसका आते हैं.

* 'नो-पार्किंग' के ठीक सामने पार्किंग कर अपने वीर होने की पुष्टि करते हैं.

* जहां फोटो लेने की मनाही हो, उसी जगह पर विभिन्न मुद्राओं में अपना पोर्टफोलियो तैयार कर अपलोड भी कर देते हैं.

* राष्ट्रीय स्मारकों पर अपने पहले, दूसरे और हर सच्चे प्रेम की निशानी छोड़ आते हैं.

इसे अपना दुर्भाग्य ही समझिये कि देशप्रेम का बिगुल बजाने वाले उक्त देशवासियों की संख्या अभी तक पर्याप्त मात्रा में उपस्थित है. अतः देश को इन सभी मानसिकताओं से 'स्वतंत्र' होना भी शेष रह गया है. उसके बाद ही कुछ आशा की जा सकती है.

independence day

अब कुछ बातें सरकार/विपक्ष दोनों से-

* अगर समस्या को दूर करने में वाकई दिलचस्पी है. तो उस पर चर्चा कुछ इस तरह करें कि देशवासियों का समय और पैसा नष्ट न हों.

* पुलिस को उसके हिस्से का सम्मान और वेतन दिलवाइये कि इन पर आलस्य, बेईमानी और रिश्वतखोरी का आरोप न लगे.

* अपराधी के हृदय में, अपराध के परिणामस्वरूप भीषण सजा का भय उत्पन्न कीजिये.

* हर किस्म, हर उम्र के बलात्कारी की एकमात्र सजा फांसी तय हो और वो भी एक सप्ताह के भीतर ही.

* कानून द्वारा सही समय पर उचित न्याय देने की दिशा में भी पहल हो क्योंकि सबसे अधिक मख़ौल इसकी बंधी पट्टी और लचर ढांचे का ही बनाया जाता है.

* भ्रष्टाचार के विरुद्ध कठिन कानून बने और लागू भी हो.

* पुरुषों के मस्तिष्क में ये बात बिठाई जाए कि उनके घर के बाहर की स्त्रियों की संरचना भी उनके परिवार की स्त्रियों जैसी ही है. वैसे ये प्रत्येक नागरिक की व्यक्तिगत जिम्मेदारी अधिक है.

हम सबको सुन्दर, स्वच्छ, सुसंस्कृत, विश्वबंधुत्व का भाव लिए भारत का सपना साकार करना है पर इसके लिए आवश्यक है कि हम पहले स्वयं इंसानियत अपनाएं, फिर समाज बनाएं/ बचाएं. लेकिन पानी सिर से ऊपर निकले, उससे पहले संभलना अति आवश्यक है. और आजादी?

उसकी बातें छोड़ें अभी...पहले देश और समस्त देशवासियों को तो अपना समझ दिल से अपनाएं. जब ठीक-सा लगने लगे, तब ढोल ताशे बजाएं, नाचे गाएं और खूब जम के आजादी के गीत गुनगुनाएं. तब ये वाला गाना जरुर गाना..."है प्रीत जहां की रीत सदा ...!"

जय हिन्द!

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लेखक

प्रीति 'अज्ञात' प्रीति 'अज्ञात' @preetiagyaatj

लेखिका समसामयिक विषयों पर टिप्‍पणी करती हैं. उनकी दो किताबें 'मध्यांतर' और 'दोपहर की धूप में' प्रकाशित हो चुकी हैं.

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