कैश के लिए एटीएम पर नाकाम कोशिशों की हैट्रिक, फिर भी...
अपनी नाकामयाबी के बावजूद मैं मोदी के नोटबंदी वाले फैसले के साथ हूं. 8 दिन से कैश की कमी के कारण हो रही परेशानी अपनी जगह है.
-
Total Shares
पिछले 8 दिन से एक ही काम है. यदि सड़क पर हूं तो एक निगाह एटीएम पर जरूर रहती है. कहीं जगह मिल जाए और काम बन जाए. लेकिन 95 फीसदी एटीएम सूखे मिले, और बाकी 5 फीसदी पर पैर रखने की जगह न थी.
13-14 नवंबर की दर्म्यानी रात:
मैं और मेरे एक मित्र नवीन कुमार कैश की खोज में निकले. रात 12 से 2 बजे के बीच नोएडा के करीब 11 एटीएम खंगाले. ये समय इसलिए चुना गया कि शायद रात में कुछ राहत मिलेगी. लोग घर चले गए होंगे. लाइन होगी भी तो छोटी सी. मगर इसके उलट 11 में से 10 एटीएम या तो बंद या फिर मशीन खराब मिली. जिस एटीएम पर कैश था, वहां पहले से 50 लोग खड़े थे. अंदाज लगाया कि हर व्यक्ति यदि कैश निकालने के लिए 2 मिनट का समय लेता है तो इंतजार 100 मिनट यानी करीब दो घंटे का होगा. और इस बात की रिस्क तो है ही कि हमारे एटीएम मशीन पहुंचने तक उसमें कैश खत्म हो जाए.
ये भी पढ़ें- जहां नोटबंदी से पहले ही एटीएम मशीनों से गायब था कैश
कुछ दोस्त अपने अनुभवों का फीडबैक दे चुके थे कि कैसे घंटों इंतजार के बाद वे एटीएम में दाखिल हुए और पता चला कि कैश खत्म. नवीन ने टोका कि सुबह ऑफिस जाना है और हफ्ते की शुरुआत लेट ऑफिस पहुंचने से न की जाए. इम्प्रेशन खराब होता है. पैसा आज नहीं तो कल मिल जाएगा. इस चर्चा को खत्म करने से पहले हमने कुछ लोगों का मन टटोलना चाहा. मैं बिना झिझक से कह सकता हूं कि इतनी रात के बावजूद कोई मोदी के इस फैसले का विरोध नहीं कर रहा था. एक युवक, संभवत: छात्र रहा होगा, कहने लगा 'कल ही पास के एक पार्क में एक बोरी जले हुए नोट मिले हैं. अब जाहिर है यह कालाधन ही होगा. कुछ तो ताकत है इस फैसले में जिसने इस एक बोरी नोट को स्वाहा कर दिया'. इस युवक के थोड़ा आगे खड़े एक अधेड़ उम्र के सज्जन ने बात को काटा. कहने लगे 'ये सब ठीक है, लेकिन फैसले के पांच दिन बीतने के बाद भी बैंक वाले कुछ तो बेहतर इंतजाम कर ही सकते हैं'.
कतारों में लगा देश. |
14-15 नवंबर की दर्म्यानी रात: दिन शुरू हुआ पिछली रात के संघर्ष को याद करते हुए. जब ऑफिस पहुंचा तो बुरी खबर मिली कि हमारे एक सहयोगी दुर्घटना का शिकार हो गए हैं और गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती हैं. ऑफिस का काम खत्म हुआ. रात 9 बजे अपने ऑफिस के एक अन्य साथी के साथ निकल पड़े दिल्ली के पटपड़गंज के बड़े अस्पताल की ओर. वहां से लौटते हुए फिर कोशिश शुरू हुई कि कहीं कैश का इंतजाम हो जाए. अस्पताल जाते हुए एक एटीएम पर लाइन दिखी थी. सो लौटते हुए सबसे पहले उसी को चेक किया. लाइन अब भी थी, लेकिन थोड़ी छोटी. कार पार्क कर लाइन में खड़े हो गए. अंदाज लगाया कि 20 लोगों की यह कतार ज्यादा लंबा इंतजार नहीं करवाएगी. लेकिन तभी लगा कि सभी लोग बड़े इत्मीनान से खड़े हैं. आगे कुछ लोग तो जमीन पर बैठ गए हैं. एटीएम के भीतर से कोई बाहर नहीं आ रहा है. लाइन में हो रही खुसुर-पुसुर में हमने भी अपना सिर घुसा दिया. पता चला कि एटीएम में कैश तो है, लेकिन सर्वर डाउन है.
ये भी पढ़ें- परिवर्तन तो चाहिए, पर प्रक्रिया का दर्द नहीं ?
कुछ देर उम्मीद में खड़े रहे. फिर आगे खड़े दो छात्र लाइन से यह कहते हुए बाहर निकल गए कि आधा घंटा हो गया, अब और इंतजार नहीं होता. मैंने भी अंदाज लगाया कि यहां नहीं तो पास के मयूर विहार फेज 1 में कई एटीएम हैं, कहीं न कहीं तो पैसा मिल ही जाएगा. इसी उम्मीद के साथ एक के बाद एक एटीएम खंगालना शुरू किया. देशी-विदेशी सभी तरह के बैंकों के एटीएम देख डाले. सब सूनसान. कार रुकने से पहले ही एटीएम के गार्ड हाथ हिलाने लगते. 'नहीं है साहब, नहीं है'. अब अगला पड़ाव नोएडा का सबसे बड़ा मार्केट था- सेक्टर 18. मन से सौ फीसदी मजबूत थे कि वहां तो पैसा होगा ही. दुनियाभर के बैंक जो हैं वहां. अपनी ब्रांच के एटीएम में तो पैसा डाला ही होगा. लेकिन 68 साल बाद आसमान में निकले सबसे बड़े चंद्रमा की रोशनी भी किसी एटीएम में पैसे की झलक नहीं दिखा पाई. खैर, उस रात की नाकामी को यही सोचकर भुलाना चाहा कि हे ईश्वर, अस्पताल में भर्ती हमारे साथी को जल्द से जल्द स्वस्थ कर देना.
...और 16 नवंबर की जुल्मी दोपहर:
खबर आई कि ऑफिस में लगे एटीएम में कैश आ गया है. राहत. इससे पहले कि बेसमेंट में पहुंचता, 60-70 लोग मुझसे रेस जीत चुके थे. समस्या सबकी एक जैसी थी, इसलिए दो घंटे लाइन में लगे रहना भी उचित लग रहा था. उम्मीद थी कि 8 दिन के संयम का फल मीठा होगा और मिलेगा भी. कतार में लगे लोगों को ऑफिस की ओर से पानी पिलाया जा रहा था. काम की व्यस्तता का कहकर लाइन से हट गए. अब तो खुशी और बढ़ रही थी. एटीएम से निकलने वाले साथी हाथों में सौ-सौ के करारे नोट लेकर जा रहे थे, तो मेरा भी मन गुदगुदा रहा था. प्लानिंग चल रही थी कि जब मेरे हाथ में ये नोट होंगे तो कम से कम एक सेल्फी तो लूंगा ही और फेसबुक पर अपनी कामयाबी शेयर भी करूंगा. और अंतत: वो घड़ी आ गई. मैं एटीएम के दरवाजे पर था. भीतर एक महिला सहयोगी पैसे निकाल रही थी. वह मुस्कुराकर बाहर निकली और अब मैं महान एटीएम से मुखातिब था. भीतर जाने से पहले मैंने एक बार पीछे मुड़कर देखा. लाइन उतनी बड़ी थी, जितने बड़े आकार पर मैंने उसे ज्वाइन किया था. इस संघर्ष में मुझे जीत की खुशी तो थी, लेकिन साथ में नर्वसिया भी रहा था. कहीं कोई मामूली गलती न हो जाए. मन में तीन बार अपना एटीएम पिन दोहरा लिया. एटीएम के जो बटन आंखमूंद कर दबाए जाते थे, आज उन्हें संभल-संभलकर दबाया जा रहा था. सब सफल रहा. भीतर मशीन नोट गिन रही थी. बाहर मेरी अंगुलियां उनके स्वागत में मुंह बाए मचल रही थीं. फिर एक पल की खामोशी और मशीन ने दोबारा और तिबारा नोट गिनना शुरू किया. अब दिमाग में अनिष्ट का विचार आने लगा.
ये भी पढ़ें- 500 और 1000 की करेंसी संकट का ये रहा समाधान
...और जिसका डर था वही हुआ. नीयति का क्रूर मजाक एटीएम की स्क्रीन पर था. लिखा था- 'यह प्रक्रिया पूरी नहीं की जा सकती है'. मैंने दोबारा कोशिश की. लेकिन इस बार एटीएम के भीतर कोई हलचल नहीं हुई, सीधे वही संदेश दोहरा दिया गया. जेब में रखे एक अन्य एटीएम कार्ड से फिर किस्मत आजमाने की कोशिश की. लेकिन तभी वहां मौजूद गार्ड ने नियम का हवाला देते हुए टोक दिया- 'एक व्यक्ति, एक ही कार्ड'. मैं किनारे खड़ा हो गया. पीछे खड़े साथी ने जब कैश निकालने की कोशिश की तो उसे भी कुछ नहीं मिला. और निष्कर्ष ये निकला कि कैश खत्म हो गया है.
लगातार तीन दिन की नाकामी और निराशा. कैश का संकट. घर की चुनौतियां. मगर जब मैं ये अनुभव याद कर रहा हूं तो मैं उन करप्ट लोगों के बारे में सोच रहा हूं, जिनकी वजह से मुझे या मेरे जैसे लोगों को परेशान होना पड़ रहा है. मैं फिर कोशिश करूंगा. क्योंकि, मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि नोटबंदी सही है. अगर कोई कमी है तो आज नहीं तो कल दूर हो ही जाएगी.
आपकी राय