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Updated: 05 मई, 2021 05:39 PM
रीवा सिंह
रीवा सिंह
  @riwadivya
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हर रोज़ अपने क़रीबियों को मरते देख रही हूं और हिम्मत बांधकर लौट रही हूं कि जो बचा है उसे बचाना है. हर रोज़ आपका स्वार्थ, आपका ग़ैरज़िम्मेदाराना रवैया मुझे चोटिल करता है, भीतर तक तोड़ देता है. कल गिनकर तीन ही केस देख सकी और तीनों ने निराश किया. तीनों तीन अलग राज्य की घटनाएं थीं, मैंने किसी मिडिलमैन की सहायता न लेते हुए सीधा सम्पर्क किया, पहले में एमएलए से, दूसरे में मंत्री से और तीसरे में सीएमओ से. ऐसा कम ही बार होता है लेकिन तीनों ने तत्परता दिखायी. एमएलए ने पेशेंट के अटेंडेंट को ख़ुद कॉल किया. अटेंडेंट ने मुझसे आईसीयू मांगा था, उनसे ऑक्सिज़न के लिये कहा और बाद में फ़रमाइश यह कि हमें फलां अस्पताल में नहीं जाना, फलां में जाना है. उसी अटेंडेंट ने डीएम तक की कॉल्स इग्नोर की क्योंकि दोस्तों से बात कर रहा था, लेटेस्ट अपडेट के नाम पर उसके पास कुछ नहीं था.

दूसरे केस में मंत्री ने अटेंडेंट को कॉल करायी तो बात ही नहीं हो सकी. मैं लगातार 30 मिनट तक कॉल करती रही, महोदय ने कॉल रिसीव करके बताया कि वर्कआउट कर रहे थे और म्यूज़िक में फ़ोन की रिंग नहीं सुनायी दी. तीसरे केस में भी वेंटिलेटर मिलना लगभग नामुमकिन था, मैंने सीएमओ से बहुत रिक्वेस्ट की. उन्होंने पेशेंट की डिटेल्स तुरंत भेजने को कहा, मैंने भेज दी. अटेंडेंट ग़ायब था, 20 मिनट बाद कॉल बैक करके पूछा कि क्या हुआ, इतनी बार कॉल क्यों किया आपने?

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आप कहीं से मैसेज या पोस्ट उठाते हैं, मुझे भेजते हैं या टैग कर देते हैं. हम सब मिलकर उसमें जुट जाते हैं, जी-जान लगा देते हैं, सारा वक़्त देते हैं और उसके बाद पेशेंट और अटेंडेंट का यह रवैया हमें परोस दिया जाता है. क्या लगता है आपको, कैसा महसूस होता होगा?

कल ये तीनों केसेज़ देखते हुए एक चौथा केस नहीं देख सकी क्योंकि पटना के मंत्री महोदय से बात नहीं हो सकी, आज सुबह सोचा था पहला काम यही करूंगी तबतक मैसेज मिला कि वो नहीं रहे. अपराधबोध में धंस जाती हूं कि जिन्हें वाकई ज़रूरत थी उन्हें मरना पड़ा क्योंकि मैं उन लोगों में लगी थी जिन्हें ख़ुद के लिये ही फ़ुर्सत नहीं. सो आज गांठ बांधकर ये कुछ बातें रख ले रही हूं.

आपके कहने से किसी केस को अर्जेंट/क्रिटिकल/सीरियस नहीं मानूंगी. साइंस स्ट्रीम की स्टूडेंट रही हूं, एमबीबीएस की दो-चार किताबें भी पलटी हैं, क्रिटिकल क्या होता है ख़ुद तय करूंगी और उसके अनुसार ही काम होगा.

कोई भी केस आगे बढ़ाने से पहले अटेंडेंट को कॉल करूंगी, अगर वह केस को लेकर गंभीर है तभी मदद करूंगी. वो शॉपिंग करने निकल जाए, वर्कआउट करने लगे और मैं पूरी ऊर्जा झोंक दूं ऐसा अब नहीं होगा.

उनकी ही सहायता करूंगी जिनके पास सोर्सेज़ की कमी हो, जिन्हें सहायता न मिल रही हो. सिल्वर स्पून वाले अब किनारे रहें.

75 से ऊपर ऑक्सिज़न लेवल वाले केसेज़ मेरा प्राइम फ़ोकस नहीं होंगे, मैं 75 वाले को बचाती हूं तबतक 50 वाले की मृत्यु हो जाती है. पहले उनकी मदद होगी जिनकी जान पर ज़्यादा जोखिम है.

यह कंफ़र्म करूंगी कि मरीज़ की ओर से जो मांगें की जा रही हैं उसे उनकी आवश्यकता है भी या नहीं. कई मरीजों को बेड दिलवाया और डॉक्टर ने उन्हें घर पर ही रहने की नसीहत दे दी.

अपने लिये कभी किसी सांसद या मंत्री का दरवाज़ा नहीं खटखटाया मैंने. अब ज़रूरत पड़ी है तो सब कर रही हूं और करूंगी लेकिन मैं किसी से आग्रह कर रही हूं, वे मामले का संज्ञान ले रहे हैं और आप हीरो बनकर निकल लेते हैं, सोचते हैं मेरी क्रेडिबिलिटी का क्या होगा? इकलौते आप ही हैं क्या, दोबारा मुझे उस व्यक्ति से मदद लेनी पड़ी तो कैसे मांगूंगी? कोई मुझपर क्यों यकीन करेगा क्योंकि मैंने पहले एक ग़ैरज़िम्मेदार व्यक्ति की ज़िम्मेदारी ली थी.

दूसरा यह कि आपको पता होना चाहिए कि गिनकर मुट्ठीभर नेता हैं जो आपकी सहायता को तत्पर हैं, आपका ग़ैरज़िम्मेदार रवैया उन्हें कैसा बनायेगा, कितना बूस्ट करेगा कभी सोचा है? या वही नेता चाहिए जो कभी झांकने ही न आये?

आप चिल्लाकर ब्लैक एण्ड बोल्ड में अर्जेंट लिखकर केस को कैसे अर्जेंट बना लेते हैं जब मरीज़ की स्थिति का इल्म ही नहीं है? क्या अब ऑक्सिज़न सप्लायर्स, रेमडेज़वियर, आईसीयू बेड, वेंटिलेटर बेड वैरिफ़ाय करने के साथ-साथ हम आपकी बला से यह भी वैरिफ़ाय करते चलें कि आपके अर्जेंट की अर्जेंसी कितनी है? ज़रा-सी गंभीरता हमारा काम आसान कर देगी लेकिन उतना भी आपसे नहीं होता.

आज फिर से कोई मर गया क्योंकि कल मैं कुछ परम आलसी और ग़ैरज़िम्मेदार लोगों की मदद में जुटी थी, कितनी घुटन होती है आपको अंदाज़ा भी नहीं होगा.

रोबॉट तो हो ही रहे हैं हम सब हर रोज़ शोक समाचार सुनकर, जिन्हें बेहद कठिनाई से बेड दिलाया था उन्हें अगले ही घंटे दम तोड़ता देखकर, संवेदनाएं वैसे ही क्षीण हो रही हैं लेकिन खड़े हैं हमलोग आपके साथ. फ़ोन सुबह के साढ़े तीन बजे तक रेडियो की तरह बजता ही रहता है, गिनकर दो घंटे सोने को नसीब होते हैं, मैं बारम्बार कह रही हूं कि मिलकर निकलेंगे इस महामारी से, आप साथ तो दें.

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लेखक

रीवा सिंह रीवा सिंह @riwadivya

लेखिका पेशे से पत्रकार हैं जो समसामयिक मुद्दों पर लिखती हैं.

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