एक धर्मांध इंसान की खतरनाक दिनचर्या !
वो व्यक्ति कभी भी स्वस्थ नहीं होगा जो 25 साल की उम्र में पागलपन की हद तक धार्मिक हो. और ऐसे बच्चे को जितना हो सके अपने मौलानाओं से दूर रखिये. क्योंकि मनोविज्ञान की उन्हें रत्ती भर समझ नहीं होती.
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लखनऊ में जिस लड़के को ATS ने ISIS समर्थक कह कर मार गिराया है, मैं उसकी दिनचर्या पढ़ रहा था जो उसने डायरी के दो पन्नों पर लिखकर अपने कमरे की दीवार पर चिपका रखी थी. सुबह चार बजे उठकर पहले वो तहज्जुद पढता था, फिर फ़ज्र कि नमाज़, फिर व्यायाम, फिर नौ बजे कुरान की तिलावत के बाद खाना बनाता था. 12:30 पर ज़ुहर की नमाज़ के बाद खाना खा के कैलूला (दोपहर में सोना), चार बजे उठ कर अस्र की नमाज़, उसके बाद कुरान की तफसीर और हदीस पढना, फिर छः बजे मगरिब की नमाज़ और फिर 8:30 पर इशा की नमाज़ के बाद धर्मशास्त्र पढना, फिर खाना खा के सो जाना.
ये दिनचर्या है एक 25 साल के लड़के की. कोई आम धार्मिक जब किसी इंसान की इस तरह की दिनचर्या देखता है तो उसे लगता है कि वाह ! क्या इंसान है.. कितना इबादतगुज़ार है. और इस तरह की दिनचर्या में उसको कुछ गलत नज़र नहीं आता. मगर ये दिनचर्या 'प्राकृतिक' नहीं है. मुझे इसमें बीमारी दिखती है. जब भी आपका लड़का या आपके आस-पास कोई भी इतनी बुरी तरह से धार्मिक बने तो उससे बात कीजिये. कुछ गड़बड़ मिलेगी आपको उसके भीतर. टूटा हुआ दिल, दबी हुई कामवासना, सामाजिक बहिष्कार, कोई न कोई छुपी हुई मानसिक या शारीरिक बीमारी. या इन सब जैसा कुछ.. वो व्यक्ति कभी भी स्वस्थ नहीं होगा जो इस उम्र में इस हद तक धार्मिक हो और वो भी पागलपन की हद तक. और ऐसे बच्चे को जितना हो सके अपने मौलानाओं से दूर रखिये. क्योंकि मनोविज्ञान की उन्हें रत्ती भर समझ नहीं होती. उनके हिसाब से अल्लाह के लिए जो जितना पागल हो जाए उतना अच्छा क्योंकि उन्होंने ये कभी जाना ही नहीं है कि मनोविज्ञान में 'रिलीजियस मेनिया' नाम की बीमारी होती है.
डायरी के पन्नों पर लिखी सैफुल्ला की दिनचर्यासोचिये ज़रा कि उसकी दिनचर्या में अगर रात की 'इशा' नमाज़ के बाद एक घंटा 'संगीत के रियाज़' का होता और दोपहर की नमाज़ के बाद 'कुछ घंटे लैपटॉप' में मूवी देखने के होते तो हालात क्या से क्या होते. ये स्वस्थ मस्तिष्क के लक्षण होते. मगर वो नहीं हो सका, क्योंकि आप मौलाना साहब से बच भी जाएं तो यहां इन्टरनेट पर लाखों बैठे हैं जो आपको टार्चर करने की हद तक धार्मिक बनाने में लगे रहते हैं. मैं जब भी गाने या अपने बच्चे के गाने का वीडियो डालता हूं तो मुझे इनबॉक्स में पूछने आ जाते हैं कि आपने नमाज़ पढ़ी या आपके बच्चे ने पढ़ी या बस आप लोग गाते ही हैं? ये जब मुझे समझाने आ जाते हैं तो सोचिये अपने आसपास रहने वालों को ये कैसे जीने देते होंगे.
सैफ़ुल्ला जिस भी तरह का इंसान बना वो हमारे कुंठित समाज की वजह से बना. मुझे क्यों नहीं ISIS आकर्षित करता है? मेरे जैसे लाखों करोड़ों को क्यों नहीं करता है? क्योंकि मुझे उनकी बीमारी दिखती है. वो बीमार लोग हैं. और बीमार ही सिर्फ बीमारी की तरफ आकर्षित हो सकता है. इस पागलपन की हद तक धार्मिक होना बिमारी है. मगर हर समाज उसे बढ़ावा देता है. और फिर सोचता है कि कैसे मेरा बच्चा ऐसा पागल हो गया आखिर? जिस उम्र में उसे भरपूर नींद लेनी चाहिए थी. लड़की/लड़के/प्रकृति से प्यार करना चाहिए उस वक़्त आप उसे 'अल्लाह' से प्यार करना सिखा रहे थे. जो कि इस समझ और इस उम्र के लिए पूरी तरह अप्राकृतिक है. मगर आप इसे समझ ही नहीं पाते हैं.
मुझ से जब कोई 18/20 साल का लड़का पूछता है कि 'ताबिश भाई मुझे थोडा सुफ़िस्म के बारे में बताइये... ये बताइये कि अल्लाह कैसे मिलेगा? कैसी इबादत करूं मैं', तो मैं उस से पूछता हूं कि 'कोई लड़की मिली आज तक तुम्हें? प्यार किया किसी से कभी? कभी किसी से धोखा खाया?'.. तो ज़्यादातर लड़के जवाब देते हैं कि 'क्या ताबिश भाई.. कैसी बात करते हैं आप.. ये सब तो गुनाह है'.. मैं उन्हें समझाता हूं कि 'पहले दुनिया से प्यार करो.. यहां प्यार करना सीखो, पहले आकार से प्यार करो, प्रकृति से प्यार करो, स्थूल से प्यार किया नहीं और निराकार के पीछे पड़े हो इस उम्र में, जाओ मूवी देखो.. संगीत सुनो.. संगीत सीखो.. नाचना सीखो'
कुछ को मेरी बात समझ आती है, मगर कुछ फेसबुक और मौलानाओं के आकर्षण में फंस जाते हैं और फिर वही सैफुल्ला वाली इबादत की रूटीन अपना लेते हैं. उन्हें यहां की लड़कियां और लड़के 'मांस का लोथड़ा' लगने लगते हैं. और जन्नत में पारदर्शी हूरों की पिंडलियां उनकी नींदे हराम करने लगती हैं.
(यह पोस्ट सबसे पहले लेखक के फेसबुक वॉल पर प्रकाशित हुई है.)
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