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Updated: 25 दिसम्बर, 2016 05:56 PM
अक्षय दुबे ‘साथी’
अक्षय दुबे ‘साथी’
  @akshay.saathi
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छत्तीसगढ़ में लाखो की संख्या में रह रहे बंजारा और कलाकार जाति 'देवार' जिनकी स्थिति भारत के आजाद होने और पृथक छत्तीसगढ़ बनने के बाद सुधरने की बजाय और भी बदहाल हो रही है. जहां एक ओर सरकारें स्वच्छ भारत अभियान का ढिंढोरा पीट रही है वहीं समूची देवार जाति घुरे में रहने के लिए विवश हैं. इनकी बदहाली का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बिलासपुर जिले के तखतपुर कस्बे में रहने वाले देवारों की बस्ती तक पहुंचने के लिए कोई सड़क नहीं है, जबकि यह नगर पालिका के दायरे में आता है.

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बस्ती तक पहुंचने के लिए सड़क भी नहीं हैं

यहां रहने वाले दारा सिंह देवार बताते हैं कि 'यहां साफ सफाई तो दूर, पूरे शहर भर की गंदगी को यहीं डंप की जाती है. सड़क के उस पार जहां पानी की उचित व्यवस्था है लेकिन हमारी बस्ती की कोई सुध नहीं लेता क्योंकि हम लोग देवार हैं.’ अनुसुचित जाति में आने वाले इस समुदाय के बारे में एक मान्यता है कि पहले ये गोंड राजा के दरबार में नाच गाकर, अपनी कला के जरिए जीवन यापन किया करते थे, लेकिन किसी कारणवश एक दिन इन्हें राजा ने दरबार से निकाल दिया, जिसके बाद वे घुमंतू हो गए.

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दारा सिंह देवार अपने समुदाय का परिचय देते हुए कहते हैं कि 'चिरई म सुन्दर रे पतरेंगवा, सांप सुन्दर मनिहार. राजा सुन्दर गोंड रे राजा, जात सुन्दर देवार. लेकिन रेशमा देवार अपने समुदाय की तकलीफों को प्रकट करती हुई देवार गीत की एक पंक्ति सुनाती हैं कि 'आज कहां डेरा बाबू काल कहां डेरा, नदिया के पार मां बधिया के डेरा, तरी करे सांय-सांय रतिहा के बेरा' (आज हमारा डेरा कहां है, कल कहां होगा, नदी के किनारे सुअर का डेरा होगा जहां रात सांय-सांय करती है). इन उदास पंक्तियों के द्वारा आप कुछ हद तक इनकी दिक्कतों से रूबरू हो सकते हैं.

कला को ही प्रमुख आजीविका बनाने वाले देवार गली-गली घूमकर नृत्य-गीत का प्रदर्शन किया करते थे. साथ ही गोदना (टैटू) बनाने, रीठा की माला, सिलबट्टा बनाकर बेचने का काम भी करते थे.

लोककला पर शोध करने वाले साहित्यकार संजीव तिवारी बताते हैं कि ‘ऐसा नहीं है कि इनकी स्थिति सदैव दयनीय रही है, नाचा के उत्सव के समय में मंदराजी दाऊ से लेकर दाऊ रामचंद्र देशमुख तक ने इनकी कला को पहचाना और मान दिया. चंदैनी गोंदा के बैनर तले देवार डेरा का भव्य मंचन हुआ. हबीब तनवीर ने देवार बालाओं को नया थियेटर में महत्वपूर्ण भूमिकाएं दी. महिलाओं की प्रभुत्व वाली नाच (नृत्य) पार्टियां बनीं जिसमें बरतनीन बाई, गजरा बाई, तारा बाई, गीता बाई, गुलाब बाई और मिर्चा बाई मुख्य नर्तकी और गायिकाएं थी. उसी दौर मे किस्मत डांसर पार्टी की संचालिका गायिका और नर्तकी किस्मत बाई छत्तीसगढ़ में बहुत मशहूर हुई.’ संजीव तिवारी चिंता जाहिर करते हैं कि 'सामंती और नागरी लोककला के बीच इन सब प्रगति के बावजूद देवारों का कोई संगठित स्वरूप सामने नहीं आ पाया.’

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 मूलभूत सुविधाओं का भी आभाव

देवारों को संगठित कर उनके अधिकारों की बात करने वाली लीला बाई बताती हैं कि ‘जागरूकता के अभाव में देवार सरकारी सुविधाओं के लाभ से हमेशा वंचित रहते हैं. जनप्रतिनिधी भी इनसे मुलाकात नहीं करते. अभी हम लोगों ने एक मोर्चा बनाकर नगरपालिका के दफ्तर की ओर कूच किया, तब नगर पालिका अध्यक्ष ने हम लोगों को भगा दिया.’ वे सरकार पर आरोप लगाती हैं कि ‘ऐसे दोयम दर्जे का बर्ताव ना केवल तखतपुर में बल्कि पूरे छत्तीसगढ़ में देवारों के साथ हो रहा है. केवल कुछ किलो चावल देने भर से इस समाज का उद्धार नहीं हो जाएगा, सरकार को इनकी जागरूकता और स्थिति सुधारने के लिए विशेष प्रावधान करने चाहिए.'

इस समुदाय के प्रति सरकार की बेरूखी को इस घटना से समझा जा सकता है. हाल ही में छत्तीसगढ़ की लता मंगेशकर के नाम से प्रसिद्ध किस्मत बाई देवार ने उचित इलाज के अभाव में दम तोड़ दिया. अस्सी के दशक में आकाशवाणी और दूरदर्शन के जरिए अपनी गीतों से पहचान बनाने वाली किस्मत बाई के परिजनों के पास इलाज के लिए पैसे नहीं थे. परिजनों का आरोप है कि ‘लकवाग्रस्त किस्मत बाई को सरकार द्वारा उचित इलाज मुहैय्या करवाया जाता तो उन्हें कम से कम ऐसी मौत नहीं मिलती.’

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उचित इलाज नहीं मिलने के कारण किस्मत बाई नहीं रहीं

हालांकि किस्मत बाई की मौत के बाद छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह का बयान आ गया था कि ‘स्वर्गीय श्रीमती किस्मत बाई ने अपनी सुदीर्घ कला साधना के जरिए छत्तीसगढ़ के लोक जीवन की संवेदनाओं को अपनी आवाज दी.’

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हीना देवार बूढ़ी दादी की ओर इशारा करते हुए कहती हैं कि ‘’इन्हें स्वास्थ्यगत समस्या तो है ही लेकिन इनकी वृद्धा पेंशन की राशि भी इन तक नहीं पहुंच पाती.‘’ साथ ही आठ साल के दिव्यांग बलराम के बारे में बताते हुए कहती हैं कि ‘हमें इसके भविष्य की फिक्र है, हम तो अक्षम है ही, सरकार की भी कोई सुविधा इसे अब तक नहीं मिली है, ना जाने आगे क्या होगा?’’

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 न वृद्धा पेंशन मिलती है और न ही दिव्यांगों को कोई सुविधा

देवारों पर काम करने वाली लीलाबाई बताती हैं कि ‘यहां के अधिकतर बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, आंगनबाड़ी भी दूर है इनके मां-बाप कूड़ा करकट इकट्ठा करने और कबाड़ी का काम करते हैं, जिसकी वजह से वे सुबह से शाम तक बाहर ही रहते हैं और बच्चे भगवान भरोसे बड़े होते हैं.’

लीलावती भी काफी उदास होकर कहती हैं कि ‘’अगर इनकी सुध नहीं ली गई तो इस बार मैं वोट के बहिष्कार के लिए इन सबको संगठित करूंगी.’

सही मायनों में लीलाबाई और देवारों की ये उदासी हमारे भारतीय लोकतंत्र के लिए एक चिंता की लकीर है जिसे जल्द ही मिटाने की आवश्यकता है.

लेखक

अक्षय दुबे ‘साथी’ अक्षय दुबे ‘साथी’ @akshay.saathi

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

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