मायके से आई ईदी है बेटी के सुकून की ईएमआई!
बिटिया की ईदी के नाम पर छोटा मोटा दहेज़ जुटाने के बाद मां बाप अपनी बहु के मायके से यही एक्सपेक्ट करते हैं. और इस तरह एक जगह शोषित होते हुए दूसरी जगह शोषक बनकर वे भरपाई भी कर लेते हैं.
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रस्ते जिन्हें लू के थपेड़ों से झुलस कर बेरंग बियाबान होना था. उन्हें आजकल की दोपहरी में स्याह नकाबपोश औरतों ने सतरंगी बना रखा है. बीते दो साल कोरोना की रूदाली चलती रही. इस बार आंसू थमें हैं तो बहाने ईद के रौनक़े गुलज़ार हुई हैं. दिन ही कितने बचे हैं अब. कुर्ता पजामा दर्जी के यहां से उठवाना बाकी है. बच्चों के चिकन के कुर्ते मंगवा लिए हैं. लेडीज़ टेलर ने अभी तक कपड़े नहीं दिए. देखो, पिछली बार की तरह चांदरात को न भिजवाए. नागरे, चूड़ियां आ चुकी हैं. झुमके... ऑनलाइन लिए जा सकते हैं.
और बिटिया की ईदी? अरे रे... बाकी किसी का कपड़ा लत्ता बने ना बने. कोई पहने न पहने बिटिया की ससुराल ईदी पहुंच जाए बस. यह हर उस मां बाप की टेंशन है जिसके पास ब्याही बेटियां हैं.
शादी शुदा बेटी के घर लड़की वालों का ईदी भेजना लड़की पक्ष के लिए एक बड़ी मुसीबत है
वैसे तो ईदी का बेसिक मतलब सिर्फ रुपए से है. लेकिन जब बात बिटिया की ससुराल ईदी भेजने की हो तो सिवई, शक्कर, घी, मेवे, खजूरों के साथ अहम है कपड़े भी. सिर्फ बेटी दामाद ही नहीं, सास ससुर के कपड़े, ननद नंदोई के कपड़े, छोटे बच्चे हों तो उनके कपड़े. यहां तक की कामवाली के भी कपड़े. सिवई, शक्कर के साथ आटा, चावल तेल राशन भी. चप्पल चूड़ी के पैसे अलग.
कहने को तो यह तोहफ़ा है लेकिन दरअसल है उम्मीद. सास, ससुर, दामाद की अबोली उम्मीद... (बल्कि बेटी के ससुराल में सुख से रहने की गारंटी) कि ईद के कपड़े बहू के मायके से आ ही जाएंगे. सो अपनी तरफ से क्या बनवाना. (पैसा बचाओ पैसा) अब लड़की के मां बाप के लिए ईदी खुशी से दिया तोहफा न होकर मजबूरी बन जाती है. क्षेत्र के हिसाब से दिए गए सामान में घटा बढ़ी हो सकती है.
लड़कियां आम तौर पर इस पूरे मैटर में कोई खास रोल प्ले नहीं करती. इसलिए कि समधियाने मां बाप को अपनी साख मज़बूत रखनी होती है. और इसलिए भी कि ईदी न आने पर बीस बातें लड़की को ही सुनाई जाएंगी. लड़की मां बाप को ईदी के लिए मना करे तो भी वे देंगें ही. वजह, वही साख और धाक.
कई दफा लड़की समझती भी है कि उसके घर वालों की हैसियत नहीं है. लेकिन ससुराल वाले, मियां सब मिलकर उसको इतना मेंटली टॉर्चर करेंगे कि वो कह ही देगी, कहीं से भी कर के सारा तामझाम भिजवाएं. या कभी कभी वे खुद के बचाए पैसों से सामान खरीद कर मायके रख देती है कि इसे ईद के वक्त भेज देना. (बचाए बल्कि छुपाए पैसों उस वक्त भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं जब बात ससुराल में लेन–देन की हो. जैसे देवर, ननद का ब्याह. या बच्चे की पैदाइश.)
मुस्लिम माशरे की घर से ग्रेजुएट करने वाली लड़कियां, जिन्हें बगैर मर्द के घर से बाहर जाने की इजाज़त नहीं. खुद को एक्सप्लोर करने का जिन्हें सोचने नहीं दिया गया कभी. मां बाप के पक्ष में, या अपने हक के लिए बोलने की हिम्मत आए भी तो कैसे.
बिटिया की ईदी के नाम पर छोटा मोटा दहेज़ जुटाने के बाद मां बाप अपनी बहु के मायके से यही एक्सपेक्ट करते हैं. और इस तरह एक जगह शोषित होते हुए दूसरी जगह शोषक बनकर वे भरपाई भी कर लेते हैं.
अच्छा, अब जब मां बाप ने ही खूब 'देख सुन' के शादी की है बेटी की तो लामुहाला करना पड़ता है. (लव मैरिज की होती तो 'वो मर गई हमारे लिए' कह के पल्ला झाड़ लेते.) हां तो भईया अगर आपको हर साल बिटिया के ससुराल में सुकून से रहने की ईएमआई भरनी है तो देते रहिए ईदी. लेते रहिए ईदी.
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