हर व्यक्ति कलाकार है बस उसे पहचानना जरूरी है
मेरा मानना है कि हर एक व्यक्ति प्रतिभावान है. हां, ये मैं मान सकता हूं कि उसमें से अधिकांश को अपनी प्रतिभा का ज्ञान नहीं या भान नहीं.
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1989-90 की बात होगी, रेल यात्रा में सहपाठी मिल गया, बातचीत का अनन्त दौर शुरू हुआ. अचानक मैंने उनसे पूछ लिया कल जब तुम्हारी संतान होगी तो तुम कैसी संतान चाहोगे-शिक्षित या सुसंस्कृत? उसने कहा- सुसंस्कृत. मैने पूछा सुसंस्कृत का अर्थ समझते हो? उसका उत्तर था- जिसे अपनी कलाओं की, साहित्य की, इतिहास की जानकारी हो, पर यार सच पूछो तो इन सबका जीवन में क्या महत्व है? मैंने कहा- कलाएं ही हैं जो आदमी को बेहतर इंसान, समाज को बेहतर समाज और इस संसार को बेहतर संसार बनाने की शक्ति प्रदान करती हैं.
आज कई वर्षों बाद घटना याद आई तो सोचा क्यों न कुछ लिखा जाए. यहां सबसे पहले कलाओं के अर्थ को पारम्परिक अर्थ में न लेकर उसके समूचे अर्थ में ग्रहण करना होगा. हर एक क्रिया जो आपके भीतर के सौंदर्यबोध को जगाए, कला है. यही कारण है कि लेखक हो, गायक हो, नर्तक हो, नाटककार हो, मूर्तिकार हो, यहां तक कि एक सुघड़ गृहिणी- ये सभी कलाकार होते हैं. इनकी कला साधना, इनके चारों ओर एक चुम्बकीय क्षेत्र को जन्म देती हैं, इसी कारण सामान्य जन इनके आकर्षण में दीवाने बन जाते हैं.
कलाओं का विकास क्यों हुआ होगा? सबसे पहले मनुष्य के आविष्कार और जद्दोजहद, पेट के लिए भूख मिटाने के लिए थी. पेट भरने के बाद मनुष्य की दूसरी खोज सुरक्षा के उपाय ढूंढना रहा होगा, 'कि जो कुछ है उसे कैसे सुरक्षित रखें’ समाज, परिवार, घर, आखेट जैसे शब्दभाव उसके लिए अर्थपूर्ण हुए होंगे. फिर बीमारियों के जन्मे ने शरीर को विषमुक्ति करने के लिए चिकित्साशास्त्र को जन्म दिया होगा. पर इस संघर्ष में कहीं उसने ये महसूस किया कि “मन या विवेक या आत्मा जैसी एक आंतरिक शक्ति भी लगातार काम कर रही है जिसे विषमुक्त करना भी बेहद जरूरी है”.
आनंद की खोज में ही उसने अंदर प्रस्फुटित होती प्रतिभाओं का आंकलन कर उसे प्रयोग में लाना शुरू किया होगा. गाकर, बजाकर, नाचकर, नकल करके उसने अपने आनंद स्रोतों को खोज निकाला होगा. मन के रंजन से जो कलायात्रा शुरु हुई वही आगे चलकर आत्मा के रंजन की दिशा में बढ़ने लगी. वो समझ रहा था कि भौतिक संसाधन सुख का कारण तो बन सकते हैं पर आनंद किसी और माध्यम से मिलता है.
लोक कलाओं के अध्ययन ने ये प्रमाणित किया है कि मनुष्य ने पशु-पक्षियों की आवाज़, उनकी चाल, उनकी भंगिमाओं की नकल से अभिनय को जन्म दिया होगा. पर संगीत तो उससे भी पहले जन्मा होगा. जब गोद में लेटे शिशु को मां ने लोरी गुनगुनाई व सुनाई होगी. अपने अनुभवों को गुफाओं और पत्तों में उकेर कर सहेजने की वृत्ति ने चित्रकला को जन्म दिया होगा. तो मिट्टी के ढेले को सहेजते हुए उसे मूर्ति का आकार देने की प्रेरणा मिला होगी. मानव की कलात्मक अभिव्यक्ति ने उसे आनंद की अनुभूति दी होगी.
मेरा मानना है कि हर एक व्यक्ति प्रतिभावान है. हां, ये मैं मान सकता हूं कि उसमें से अधिकांश को अपनी प्रतिभा का ज्ञान नहीं या भान नहीं. अधिकतर जीवन की चक्की में पिसते हुए अपनी प्रतिभा को जान ही नहीं पाते. विशेषकर भारत में, महिलाओं के मामले में ये अधिक हुआ. पारिवारिक सामाजिक दबाव के चलते अधिकांश प्रतिभाएं कुण्ठित रह गईं. पुरुषों को भी ये दबाव झेलने पड़ते हैं. अपना ही उदाहरण दूं तो 39 साल पहले जब मुम्बई आया तो मेरे माता-पिता से लोग पूछते थे, क्या करता है बेटा? पिता कहते हैं संगीत के क्षेत्र में भाग्यम आजमाना चाहता है तो प्रतिप्रश्न करते थे लोग, “वो तो ठीक है पर काम क्या करता है?”
अच्छा क्या आपको याद आता है कि हमारे बचपन में हमने कभी सुना हो कि किसान ने आत्महत्या की थी. बाढ़, सूखा, आकाल, महामारी तब भी फैलती थी पर आत्महत्या कभी नहीं. गत चार दशकों से हम भारतीय इस अपराध भाव के साथ अन्न ग्रहण करते हैं कि हमारा अन्न दाता, आत्महत्या करने पर विवश है. रासायनिक खेती, कर्ज, हाय ब्रीड बीज जैसे कारणों के साथ हम कहीं भूल जाते हैं कि गत चार दशकों से किसान की ढोलक, पेटी ओटले पर रखे-रखे खराब हो गई. पहले भी किसान दुखी, विषाद्युक्त, निराश लौटता था, पर ढोलक निकालकर गाता, नाचता, बजाता तो उसके मन का सारा विषाद धुल जाता था.
हमारी कलाओं की शक्ति को पहचानने का समय है, दोस्तों आप या तो भौतिकवाद के विष से भिनभिना सकते हैं या संगीत, नृत्य, नाटक, साहित्य, चित्रकारी के सुरों में गुनगुना सकते हैं.
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