आखिर सबसे ज्यादा अग्निपरीक्षा अन्नदाता की ही क्यों?
यूं तो इस कोरोना काल (Coronavirus Pandemic) में हमारे समाज का हर तबका परेशान है लेकिन जिसे सबसे ज्यादा चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है वो देश का अन्नदाता यानी किसान (Farmer) है जिसकी शायद ही कहीं पर सुनवाई हो रही हो.
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इस कोरोना काल (Coronavirus Pandemic) में वैसे तो हर तबका परेशान है लेकिन यह परेशानी आर्थिक आधार पर भिन्न भिन्न है. सबसे ज्यादा तबाह वही तबका है जो आर्थिक रूप से सबसे ज्यादा कमजोर है, क्योंकि उसके पास बिना काम किये खाने का इंतज़ाम नहीं है. सरकारी नौकरी वाले, बड़े व्यवसाय वाले या आर्थिक रूप से बेहद संपन्न लोगों के लिए यह आराम करने, टी वी पर अपने मनपसंद शो देखने और जी भरकर सो लेने का समय था. हां एक तबका ऐसा भी था जिसे भी इस महामारी ने परेशान तो किया लेकिन यह तबका अपने आप को कुछ महीने तक जिन्दा रख पाने में सक्षम था. मैं बात कर रहा हूं अपने देश के अन्नदाता की, या साधारण शब्दों में कहा जाए तो देश के किसान (Farmers) की. इस बार अधिकांश मजदूर (Workers) और छोटे काम करने वाले लोग जो अपना गांव सदियों पहले छोड़ आये थे, वो भी वापस अपने गांवों की तरफ लौट गए. वजह सिर्फ यही थी कि कम से कम वहां वे लोग भूखों नहीं मरेंगे. और इस बार प्रकृति ने भी किसानों का साथ दिया, रबी की फसल बहुत अच्छी हुई थी.
मध्य प्रदेश में गेहूं की पैदावार इतनी हुई थी कि अधिकांश किसानों के पास खूब पैसा आया. ऊपर से लॉकडाउन के चलते न तो उनके यहां शादी ब्याह हुए और न उन्होंने कोई और बड़ा कार्यक्रम किया जिससे उनका पैसा खर्च नहीं हुआ और उन्होंने कुछ महीने ठीक से बिताये. इसके चलते बैंकों में भी दिक्कत हो गयी कि उनका कृषि ऋण का आकार घट गया.
ये अपने में दुर्भाग्यपूर्ण है कि कोरोना वायरस ने किसानों की कमर तोड़ कर रख दी है
किसान ने अपना किसान क्रेडिट कार्ड इस्तेमाल नहीं किया और जो पैसा आया था उससे अपना ऋण कम कर दिया. खैर ऐसा कभी कभी ही होता है और उम्मीद की जा रही थी कि किसानों के लिए खरीफ का मौसम भी बेहतर साबित होगा. ऐसा हो भी रहा है, अच्छी बारिश हो रही है और उम्मीद की जा रही है कि देश में धान और अन्य रबी की फसलें अच्छी होंगी. लेकिन मध्य प्रदेश में मामला कुछ और ही हो गया है, प्रकृति एक बार फिर से अन्नदाता की परीक्षा लेने पर उतारू है.
यहां उज्जैन और आस पास के जिलों जैसे शाजापुर, देवास आदि में किसान इस समय सोयाबीन लगाते हैं और अमूमन यह फसल उनको अच्छी कीमत देकर जाती है. लेकिन इस बार हुई बारिश ने सोयाबीन की फसल को लगभग बर्बाद कर दिया है. खेतों में दूर दूर तक पीली पड़ी सोयाबीन की फसल को देखकर किसानों के चेहरे पर छाये पीलेपन को आसानी से महसूस किया जा सकता है.
अब ऐसे में फसल बीमा का पैसा कितना मिलेगा, कब तक मिलेगा और क्या वह किसानों द्वारा लिए गए ऋण की भरपाई कर पायेगा, यह एक बड़ा सवाल है. लेकिन शायद अन्नदाता को प्रकृति के इस कोप को सहने की आदत पड़ चुकी है, शायद ही कोई साल ऐसा जाता हो जब किसान की फसल बर्बाद न होती हो. और इसके उलट अगर बहुत बम्पर फसल हो गयी तो भी दाम इतने गिर जाते हैं कि अन्नदाता के लिए लागत भी निकाल पाना कठिन हो जाता है.
और सबसे बड़ी बात यह है कि प्रकृति के इस कोप के लिए बेचारा अन्नदाता किसी भी तरीके से जिम्मेदार नहीं होता है, न तो वह पेड़ काटता है, न बड़े उद्योग लगाकर प्रदूषण को बढ़ाता है. लेकिन शायद सबसे कमजोर कड़ी ही सबसे ज्यादा भुगतती है, चाहे उसकी गलती हो या न हो.
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