आज का किसान सौ साल बाद भी उसी 'चंपारण' में !
क्या यही माना जाए कि सरकार चाहे किसी की हो, उसकी जुबान पर किसान होते हैं लेकिन दिल में धन्नासेठ, और उन्हीं धन्नासेठों पर सरकारी पैसे सबसे ज्यादा उड़ाए जाते हैं?
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दो तस्वीरें एक साथ उभरती हैं. एक सौ साल पुरानी तस्वीर, जब दक्षिण अफ्रीका से लौटे बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी ने चंपारण में नीलहे किसानों के हक की लड़ाई लड़ी. उस लड़ाई ने देश की आजादी को निर्णायक मोड़ तक पहुंचाया और दुनिया के सामने एक तस्वीर पेश की कि अगर किसान जागरुक हो गए तो बड़ी से बड़ी सत्ता के अपदस्थ होते देर नहीं लगती. 1917 की गांधी की लड़ाई तीस साल बाद 1947 में फलीभूत हुई जब देश को आजादी मिली.
चंपारण आंदोलन
अब दूसरी तस्वीर देखिए. जिस वक्त देश, समाज और सरकार गांधी के चंपारण आंदोलन की सौवीं सालगिरह मना रहा है, उसी वक्त तमिलनाडु के किसानों की बेबसी दिल्ली के चौराहे पर अपना निदान मांग रही है. वे किसान जंतर-मंतर से लेकर प्रधानमंत्री आवास तक दौड़ लगा गए लेकिन उनकी कोई सुनने वाला नहीं है. रसातल में पड़ी खेती सत्ता के शिखर को छूना तो चाहती है लेकिन शायद उसे पता नहीं कि आज देश में गांधी का नाम तो है लेकिन गांधी जैसा कोई नेतृत्व नहीं जो उनके हक की चीख को हुकूमत के बहरे कानों तक पहुंचा सके.
आज विपक्ष निष्प्राण पड़ा है और सत्ता पक्ष 2019 की तैयारी में जुटा है. इन दोनों के बीच उत्तर प्रदेश की योगी सरकार जरूर साधुवाद का पात्र हैं कि इसने किसानों के 30,729 करोड़ रुपये का कर्ज और 563 करोड़ रुपये का नॉन पर्फार्मिंग एसेट्स यानी एनपीए माफ कर दिया. माफी का यह पैसा कहां से आएगा, ये साफ नहीं है. वित्त मंत्री अरुण जेटली पहले ही साफ कर चुके हैं कि जिन राज्यों को कर्जा माफ करना हो, वे खुद चुकाएं. रिजर्व बैंक के गवर्नर से लेकर सबसे बड़े सरकारी बैंक भारतीय स्टेट बैंक की चेयरपर्सन अरुंधति भट्टाचार्य तक ऋण अनुशासन के नाम पर किसानों की कर्जमाफी को कोस चुकी हैं. लेकिन किसानों की कर्जमाफी पर अनुशासन ऋण की दुहाई देने वाले इन बैंक बहादुरों को 1 लाख 14 हजार करोड़ का कॉर्पोरेट को दी गई एनपीए माफी नहीं दिखती, जिसे 2012 से 15 के बीच माफ किया गया. यानी मनमोहन राज में भी, मोदी राज में भी.
तो क्या यही माना जाए कि सरकार चाहे किसी की हो, उसकी जुबान पर किसान होते हैं लेकिन दिल में धन्नासेठ, और उन्हीं धन्नासेठों पर सरकारी पैसे सबसे ज्यादा उड़ाए जाते हैं? सवाल सिर्फ एक विजय माल्या का नहीं है जिसने मनमोहन राज में सरकारी बैंकों से पैसा उड़ाया और मोदी राज में विदेश भाग गया. सवाल यह है कि किसानों की कर्जमाफी के वक्त अर्थव्यवस्था का अनुशासन बिगड़ने का हवाला देने वाले बैंक वाले कॉर्पोरेट कंपनियों की कर्जमाफी के वक्त चुप क्यों रह जाते हैं? वे चुप ही नहीं रहते बल्कि चुप रहकर पूरी मदद करते हैं. दिल खोलकर बड़ी औद्योगिक कंपनियों को पैसा देते हैं. अब वित्त मंत्री कृषि ऋण माफ करने का जिम्मा भले राज्य सरकारों पर ठेल दें लेकिन कॉर्पोरेट की एनपीए माफी का एक लाख 14 हजार करोड़ का बोझ तो केंद्र ही उठा रहा है. किसानों पर काम करने वाले देवेंदर शर्मा का क्रेडिट रेटिंग एजेंसी इंडिया रेटिंग के हवाले से कहना है कि सरकार कॉर्पोरेट कंपनियों पर चार लाख करोड़ रुपये का एनपीए माफ कर सकती है.
अगर सरकार की सोच को ही आखिरी सोच मान लें और यह सोच लें कि अर्थव्यवस्था में रफ्तार तो कॉर्पोरेट ही लाएगा, तो भी खेती-किसानी न्यूनतम ध्यानाकर्षण तो मांगती ही है. देश की जीडीपी में 14 फीसदी भागीदारी खेती की है जबकि 82 फीसदी आज छोटे और हाशिए पर खड़े किसानों की है. साथ ही 45 फीसदी लोगों के लिए रोजी भी खेती है और रोटी भी खेती. फिर इनके लिए कोई बेहतर कदम क्यों नहीं उठाया जाता? संसदीय लोक लेखा कमेटी के मुताबिक सरकार के डूबे हुए पैसे का 70 फीसदी हिस्सा बड़े बड़े औद्योगिक घरानों के पास है जबकि किसानों के पास यह रकम सिर्फ एक फीसदी आती है. फिर भी किसानों को चवन्नी का दान दिखता है, डॉलर में रूपये को ढालने वाले धन्नासेठों की चमक-दमक नहीं दिखती.
प्रधानमंत्री किसानों की आय दोगुनी करने की बात कर चुके हैं लेकिन यह होगा कैसा, इसकी रूप-रेखा साफ साफ दिखती नहीं. पहले तो यही साफ नहीं है कि किसानों की आत्महत्या कैसे रुकेगी? यह जानकर आपको रोना आ जाएगा कि 1995 से 2016 तक यानी 21 साल में 3 लाख 18 हजार से ज्यादा किसान खुदकुशी कर चुके हैं. यानी 41 किसान हर रोज. इनमें से 70 फीसदी खुदकुशी के पीछे का कारण कर्ज है. इसीलिए सवाल है कि खाद्य सुरक्षा की गारंटी सरकार कब देगी?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देश आशा भरी नजरों से देखता है. उनके बचपन का संघर्ष किसी किसान की तरह ही रहा है, जहां जिंदगी हमेशा वक्त की ठोकरों पर उछाली जाती है. इसीलिए यह उम्मीद की जाती है कि वे किसानों के उस दर्द को अपने दिल में महसूस करेंगे, जिस पीड़ा को बचपन में कभी उन्होंने भी भोगा है और उसकी टीस जब-तब उनकी आंसुओं में निकल आती है. लेकिन प्रधानमंत्री की अच्छी नीयत के बावजूद जमीन पर सच्चाई बदलती नजर नहीं आती. फसल बर्बादी के नाम पर सरकार ने गेहूं पर लगे 25 फीसदी आयात कर को किस्तों में हटा दिया. यह आयात कर इसलिए लगा था ताकि बाहर से आने वाला सस्ता गेहूं भारतीय किसानों की बिक्री को बर्बाद ना कर दे. अब यह समझ में नहीं आता कि आयात कर निल बटा सन्नाटा करके सरकार किसानों की मदद कैसे कर रही है?
एक बार संसद की कैंटीन में खाना खाने के बाद प्रधानमंत्री ने लिखा- अन्नदाता सुखी भव. वह सुखी होगा, जब उसके अन्न का मोल उस तक पहुंचेगा. इसके लिए कर्जमाफी एक छोटा कदम है, क्योंकि ज्यादातर किसान सरकारी बैंकों से नहीं बल्कि स्थानीय साहुकारों से कर्ज लेते हैं जो फिल्म 'मदर इंडिया' के सुखी लाला की तरह कर्ज के एवज में किसानों का खून पीते हैं. सबसे बड़ी बात ये है कि बड़े बड़े महाजन और साहुकार बड़ी पार्टियों से जुड़ जाते हैं, जिससे उनके शोषण को सत्ता का अघोषित संरक्षण मिल जाता है.
सत्ता के ऐसे ही शोषण और संरक्षण के विरुद्ध 100 साल पहले एक दुबले पतले से अधेड़ नायक ने किसानों को जगाया था. आज उसी गांधी के देश के किसान शोषण से मुक्ति के लिए छटपटा रहे हैं.
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