भूख मिटाने के मामले में नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश से भी पीछे क्यों है भारत ?
खाद्यान्न के रिकार्ड उत्पादन होने के बावजूद क्यों हमारे देश की लगभग एक चौथाई आबादी को भुखमरी से गुजरना पड़ता है? हालात ये हैं कि भुखमरी को खत्म करने के मामले में हमारा रिकॉर्ड कई देशों के मुकाबले बेहद खराब है..
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मानव जाति की मूल आवश्यकताओं की बात करें तो रोटी, कपड़ा और मकान का ही नाम आता है. इनमे भी रोटी यानी भोजन सर्वोपरि है. भोजन की अनिवार्यता के बीच आज विश्व के लिए शर्मनाक तस्वीर यह है कि वैश्विक आबादी का एक बड़ा हिस्सा अब भी भुखमरी का शिकार है. अगर भुखमरी की इस समस्या को भारत के संदर्भ में देखें तो अभी विगत वर्ष ही संयुक्त राष्ट्र द्वारा भुखमरी पर जारी रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के सर्वाधिक भुखमरी से पीड़ित देशों में भारत का भी नाम है.
अभी देश में लगभग 19.4 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं. इसे स्थिति की विडम्बना ही कहेंगे कि श्रीलंका, नेपाल जैसे राष्ट्र जो आर्थिक या अन्य किसी भी दृष्टिकोण से हमारे सामने कहीं नही ठहरते, उनके यहां भी हमसे कम भुखमरी है.
हाल में ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) ने दुनिया भर के देशों में भुखमरी की स्थिति को लेकर वार्षिक रिपोर्ट जारी की है. इस रिपोर्ट में भुखमरी को लेकर भारत की स्थिति बेहद चिंताजनक है. 118 देशों की इस सूची भारत का स्थान 97वां हैं.
रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 39 प्रतिशत बच्चे अविकसित हैं जबकि आबादी का 15.2 प्रतिशत हिस्सा कुपोषण का शिकार हैं. इस सूचकांक में भारत का स्कोर 28.5 है. विकासशील देशों की तुलना में तो ये काफी अधिक है. क्योंकि सूचकांक में विकासशील देशों का औसत स्कोर 21.3 है. लेकिन भारत के दूसरे पड़ोसियों की स्थिति बेहतर है. मिसाल के तौर पर नेपाल 72वें नंबर है, जबकि म्यांमार 75वें, श्रीलंका 84वें और बांग्लादेश 90वें स्थान पर है.
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जीएचआई द्वारा जारी भुखमरी पर नियंत्रण करने वाले देशों की सूची में पिछले साल भी भारत को श्रीलंका और नेपाल से नीचे रखा गया था. अभी ये हालत तब हैं, जब भारत ने अपनी स्थिति में काफी सुधार किया है. इस रिपोर्ट को देखते हुए तमाम सवाल उठते हैं, जो भुखमरी को लेकर भारत वर्तमान और पिछली सभी सरकारों की गंभीरता पर प्रश्नचिन्ह खड़े करते हैं.
पिछले साल की जीएचआई की रिपोर्ट में कहा गया था कि औसत से नीचे वजन के बच्चों (अंडरवेट चाइल्ड) की समस्या से निपटने में प्रगति करने के कारण भारत की स्थिति में ये सुधार आया है, लेकिन अभी भी यहां भुखमरी की समस्या गंभीर रूप से है जिससे निपटने के लिए काफी काम करने की जरूरत है.
ये स्थिति अब भी बनी हुई है. सवाल है कि गत वर्ष से अबतक इस समस्या से निपटने की दिशा में क्या कदम उठाए गए ?
उल्लेखनीय होगा कि नेपाल और श्रीलंका जैसे देश भारत से सहायता प्राप्त करने वालों की श्रेणी में आते हैं. ऐसे में ये सवाल गंभीर हो उठता है कि जो श्रीलंका, नेपाल, म्यांमार हमसे आर्थिक से लेकर तमाम तरह की मोटी मदद पाते हैं, भुखमरी पर रोकथाम के मामले में हमारी हालत उनसे भी बदतर क्यों हो रही है? इस सवाल पर ये तर्क दिया जा सकता है कि श्रीलंका व नेपाल जैसे कम आबादी वाले देशों से भारत की तुलना नहीं की जा सकती.
यह बात सही है, लेकिन साथ ही इस पहलू पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि भारत की आबादी श्रीलंका और नेपाल से जितनी अधिक है, भारत के पास क्षमता व संसाधन भी उतने ही अधिक हैं.
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इसलिए हम सीधे-सीधे नहीं कह सकते कि अधिक आबादी के कारण भारत भुखमरी पर नियंत्रण करने के मामले में श्रीलंका और दूसरे देशों से पीछे रह रहा है. इसका असल कारण तो यही है कि हमारे देश में सरकारों द्वारा भुखमरी को लेकर कभी उतनी गंभीरता दिखाई ही नहीं गई जितनी कि होनी चाहिए. यहाँ सरकारों द्वारा हमेशा भुखमरी से निपटने के लिए सस्ता अनाज देने सम्बन्धी योजनाओं पर ही विशेष बल दिया गया. कभी भी उस सस्ते अनाज की वितरण प्रणाली को दुरुस्त करने को लेकर कुछ ठोस नहीं किया गया.
महत्वपूर्ण सवाल ये भी है कि हर वर्ष हमारे देश में खाद्यान्न का रिकार्ड उत्पादन होने के बावजूद क्यों देश की लगभग एक चौथाई आबादी को भुखमरी से गुजरना पड़ता है? यहां मामला ये है कि हमारे यहां हर वर्ष अनाज का रिकार्ड उत्पादन तो होता है, पर उस अनाज का एक बड़ा हिस्सा लोगों तक पहुंचने की बजाय कुछ सरकारी गोदामों में तो कुछ इधर-उधर अव्यवस्थित ढंग से रखे-रखे सड़ जाता है. संयुक्त राष्ट्र के एक आंकड़े के मुताबिक देश का लगभग 20 फीसद अनाज, भण्डारण क्षमता के अभाव में बेकार हो जाता है.
इसके अतिरिक्त जो अनाज गोदामों आदि में सुरक्षित रखा जाता है, उसका भी एक बड़ा हिस्सा समुचित वितरण प्रणाली के अभाव में जरूरतमंद लोगों तक पहुंचने की बजाय बेकार पड़ा रह जाता है. खाद्य की बर्बादी की ये समस्या सिर्फ भारत में नही बल्कि पूरी दुनिया में है. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक पूरी दुनिया में प्रतिवर्ष 1.3 अरब टन खाद्यान्न खराब होने के कारण फेंक दिया जाता है.
कितनी बड़ी विडम्बना है कि एक तरफ दुनिया में इतना खाद्यान्न बर्बाद होता है और दूसरी तरफ दुनिया के लगभग 85 करोड़ लोग भुखमरी का शिकार हैं. क्या यह अनाज इन लोगों की भूख मिटाने के काम नहीं आ सकता? पर व्यवस्था के अभाव में ये नहीं हो रहा.
अनाज की बर्बादी पर रोक जरूरी |
उल्लेखनीय होगा कि यूपीए-2 सरकार के समय सोनिया गांधी की महत्वाकांक्षा से प्रेरित ‘खाद्य सुरक्षा क़ानून’ बड़े जोर-शोर से लाया गया था. सरकार का कहना था कि ये क़ानून देश से भुखमरी की समस्या को समाप्त करने की दिशा में बड़ा कदम होगा. इस योजना के तहत कमजोर व गरीब परिवारों को एक निश्चित मात्रा तक प्रतिमाह सस्ता अनाज उपलब्ध कराने की योजना थी.
लेकिन इस विधेयक में भी खाद्य वितरण को लेकर कुछ ठोस नियम व प्रावधान नहीं सुनिश्चित किए गए जिससे कि नियम के तहत लोगों तक सही ढंग से सस्ता अनाज पहुंच सके. मतलब, मूल समस्या यहां भी नज़रन्दाज ही की गई.
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बहरहाल, संप्रग सरकार चली गई है. अब केंद्र में भाजपा की राजग सरकार है और खाद्य सुरक्षा क़ानून भी है. मौजूदा सरकार इस कानून को चलाने की इच्छा जता चुकी है. ऐसे में सरकार से ये उम्मीद की जानी चाहिए कि वो इस क़ानून के तहत वितरित होने वाले अनाज के लिए ठोस वितरण प्रणाली आदि की व्यवस्था पर ध्यान देगी. जरूरत यही है कि एक ऐसी पारदर्शी वितरण प्रणाली का निर्माण किया जाए जिससे कि वितरण से सम्बंधित अधिकारियों व दुकानदारों की निगरानी होती रहे तथा गरीबों तक सही ढंग से अनाज पहुँच सकें.
साथ ही, अनाज के रख-रखाव के लिए गोदाम आदि की भी समुचित व्यवस्था की जाए जिससे कि जो हजारों टन अनाज प्रतिवर्ष रख-रखाव की दुर्व्यवस्था के कारण बेकार हो जाता है, उसे बचाया और जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाया जा सके. इसके अतिरिक्त जमाखोरों के लिए कोई सख्त क़ानून लाकर उनपर भी नियंत्रण की जरूरत है. ये सब करने के बाद ही खाद्य सम्बन्धी कोई भी योजना या क़ानून जनता का हित करने में सफल होंगे, अन्यथा वो क़ानून वैसे ही होंगे जैसे किसी मनोरोगी का इलाज करने के लिए कोई तांत्रिक रखा जाए.
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