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Updated: 10 फरवरी, 2022 04:17 PM
सुशोभित सक्तावत
सुशोभित सक्तावत
  @sushobhit.saktawat
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हिजाब या बुरक़े के प्रश्न पर एक वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में बात की जानी चाहिए. मिसाल के तौर पर, अगर आपका सामना किसी हिजाब पहनने वाली स्त्री से हो और आप उससे कहें कि यह तो सच है कि आपको अपनी पसंद का कपड़ा पहनने की आज़ादी है, आप अपने धर्म का भी पालन कर सकती हैं और संविधान ने भी इसकी अनुमति दी है (अलबत्ता यह संवैधानिक अनुमति किस प्रकार दोषपूर्ण है, इस पर हम आगे बात करेंगे) तो कदाचित् वह आपकी बात सुनकर प्रसन्न हो और आपको अपना मित्र समझे. किन्तु जब आप बात को आगे बढ़ाने की ग़रज़ से उस स्त्री से यह पूछें कि अब जब हम इस पर सर्वसम्मति बना चुके हैं कि आपके हिजाब पहनने से मुझे कोई आपत्ति नहीं, तब क्या मैं निजी रूप से आपसे यह जान सकता हूं कि आप यह क्यों पहनती हैं, तो बहुत सम्भव है इस पर आपको कोई सुनिश्चित उत्तर नहीं मिले. इस तरह के प्रश्नों को आउट-ऑफ़-सिलेबस कहा जाता है. सिलेबस के भीतर जितने भी प्रश्न थे, उनके उत्तर पहले ही दिए जा चुके थे- यथा यह निजी स्वतंत्रता है, यह धर्म-पालन की आज़ादी है और यह संवैधानिक है आदि-इत्यादि- किन्तु जैसे ही आप प्रयोजन के प्रश्न पर जाएंगे तो वो इससे असहज हो सकती हैं.

Hijab Controversy In Karnataka, Protest Over Hijab Row, Karnataka, Hijab, School, Girlsतमाम मुस्लिम महिलाएं हैं जो हिजाब को अपना अधिकार बता रही हैं और उसके समर्थन में प्रदर्शन कर रही हैं

मुमकिन है आपको यह उत्तर मिले कि यह प्रश्न मुझसे पूछने वाले आप कौन? यह बात अपनी जगह सही भी है. किन्तु कोई तो होगा, जिसे यह प्रश्न पूछने का अधिकार होगा? इसका कारण यह है कि हिजाब या बुरक़ा एक स्वाभाविक परिधान नहीं है, सामान्यतया स्त्रियां इसे नहीं पहनतीं. संसारभर की स्त्रियां  अपने पहनावों को लेकर बहुत सचेत रहती हैं और बड़ी सुरुचि से उनका चयन करती हैं.

ऐसे में जब आप किसी स्त्री को सिर से पैर तक एक ऐसे आवरण में ढंकी हुई देखते हैं- जो सभ्य समाज में स्वाभाविक या प्रचलित नहीं- तो आपके भीतर यह प्रश्न उठना जायज़ है कि इसका प्रयोजन क्या है. यह भी हो सकता है कि इस पर वह स्त्री यह कहकर प्रतिकार करे कि यह मेरी व्यक्तिगत पसंद है, इसे मैंने अपनी इच्छा से पहना है.शायद आप यह उत्तर सुनकर मुस्करा दें, क्योंकि आप पाएंगे कि यह एक ईमानदार उत्तर नहीं है.

कारण, अगर हिजाब या बुरक़ा निजी पसंद होता तो इसे केवल एक समुदाय-विशेष की महिलाएं ही क्यों पहनतीं, इसे दुनिया की दूसरी महिलाएं क्यों नहीं पहनतीं? आज दुनिया में स्त्रियों के लिए जीन्स, स्कर्ट, पतलून, कुर्ते, टॉप आदि लोकप्रिय परिधान हैं. किसी स्त्री को ये परिधान पहने देखकर आप उसके धर्म का अनुमान नहीं लगा सकते. किन्तु हिजाब या बुरक़ा पहनी किसी स्त्री को देखकर आप उसका धर्म जान सकते हैं.

निश्चय ही यह एक रिलीजीयस ड्रेसकोड है. इसे पहनने के लिए निर्देशित किया जाता है, इसे कोई अपनी निजी स्वतंत्रता से नहीं पहनता. जबकि सामान्यतया प्रचलित परिधान धर्मनिरपेक्ष होते हैं. इस बिंदु पर आकर आप पाएंगे कि वास्तव में हिजाब पहनने वाली स्त्रियों का रवैया रक्षात्मक है. उनमें आत्मविश्वास होता तो वे कहतीं कि हमारे मज़हब में इसे पहनने का निर्देश दिया गया है और हम अपने रिलीजन में प्रिस्क्राइब की गई चीज़ों की अवहेलना नहीं करतीं, तो बात समाप्त हो जाती.

किन्तु शायद वे इस तरह के बयान के साथ ख़ुद ही सहज नहीं, इसलिए कहती हैं कि यह हमारी निजी पसंद है. अलबत्ता निजी पसंद- या यहां तक कि- संवैधानिक प्रावधान भी किसी चीज़ पर निर्णय करने के अंतिम और परम मानदण्ड नहीं हैं, आप इनका हवाला देकर औचित्य और प्रयोजन के प्रश्नों को नकार नहीं सकते. आपसे यह बतलाने की अपेक्षा सहज ही की जाती है कि आप जो करते हैं, वह क्यों करते हैं.

किंतु हिजाब पहनने को लेकर आत्मविश्वास की वह कमी अकारण नहीं है. उसे पहनने के मूल कारणों को अगर छुपाया जाता है, तो उसे भी समझा जा सकता है. वह एक असहज कर देने वाली कुरूप सच्चाई है. आप पाएंगे कि पुरुषों के लिए इस प्रकार का कोई भी बंधनकारी परिधान निर्दिष्ट नहीं किया गया है, केवल स्त्री के लिए किया गया है.

इसके मूल में पितृसत्ता तो है ही, यौन-वर्चस्व भी है. पुरुष स्त्री को अपनी सम्पत्ति समझता है और उसका यह आग्रह है कि वह उसी के सम्मुख स्वयं को अनावरित करे और परपुरुष की आंखों से स्वयं को छुपाकर रखे. यह कोई बहुत सभ्य, सुसंस्कृत और सराहनीय बात नहीं है. जब पुरुष स्त्रियों को यह कहते देखते हैं कि हिजाब हमारी निजी पसंद है और इसे हम पहनेंगी, तो मन ही मन वो उस तरह से मुस्कराते होंगे, जैसे किसी कारावास का अधीक्षक बंदियों को अपनी बेड़ियों को चूमते देखकर मुस्कराता होगा.

जब बंदी को ही अपने बंधनों से प्रेम हो तो कोई क्या कर सकता है?यह भी सच है कि मनुष्य का मन हठधर्मी होता है. उससे कहो कि यह नहीं करना है तो वह उसी चीज़ को ज़िद से करता है. विशेषकर भारत में जिस ताज़ा परिप्रेक्ष्य में हिजाब का प्रश्न उभरकर सामने आया है, उसमें तो बहुसंख्यकवाद का दबाव भी है, जिसका अल्पसंख्य-असुरक्षा से ग्रस्त मन प्रतिकार करता है और कहता है कि हम ऐसा नहीं करेंगे.

क्योंकि दुनिया के अन्य क्षेत्रों में आप पाएंगे कि उस समुदाय-विशेष की स्त्रियों ने स्वेच्छा से हिजाब और बुरक़ा का त्याग किया है, भले उतनी संख्या में नहीं किया हो, जितनी कि अपेक्षा की जानी चाहिए. सच तो यही है कि कोई भी स्वतंत्रचेता व्यक्ति किसी ऐसे बंधनकारी, गरिमाहीन और बलात् थोपे गए परिधान को नहीं पहनना चाहेगा, जो उसे दोयम दर्जे का मनुष्य बनाता हो, उसकी अस्मिता के साथ समझौता करता हो और उसकी स्वतंत्रता में एक अवरोध हो

इसीलिए मैंने ऊपर कहा कि हिजाब पहनने वाली स्त्री से उसके इस निर्णय पर प्रश्न ना करते हुए केवल इस निर्णय के औचित्य पर प्रश्न किया जाना चाहिए और वह भी बड़ी विनम्रता से. जो बग़ावती होता है या ख़ुद को बग़ावती समझता है, वह नारा उछालने के लिए तो मानसिक रूप से तैयार होता है, लेकिन अपनी बात को उचित परिप्रेक्ष्य में रखने की उसकी उतनी तैयारी अमूमन नहीं होती है.

ऊपर मैंने पाठकों से यह वादा भी किया था कि संवैधानिक अनुमति के दोषपूर्ण होने के प्रश्न पर लौटकर आऊंगा. मेरी निजी राय है कि एक धर्मनिरपेक्ष देश में नागरिकों को उनके धर्म का पालन करने की पूर्ण स्वतंत्रता नहीं दी जानी चाहिए और अगर लेनिनवादी या सोवियत-शैली में इस धार्मिक स्वतंत्रता का दमन भी किया जावे तो उससे भी मुझे संतोष ही होगा.

कारण, धर्म एक विचित्र अवधारणा है और इसका हवाला देकर ऐसी-ऐसी चीज़ें भी की जा सकती हैं, जो घोर आपराधिक हैं. वस्तुत: धर्म एक काल्पनिक ईश्वर की काल्पनिक नियमावली है. ईश्वर तो है नहीं, किन्तु उसके नाम का उपयोग करके प्रभुजनों ने समाज को नियंत्रित करने का कार्य सदियों से किया है. ईश्वरीय विधान भी मनुष्यों ने ही लिखे हैं.

इनका मूल चरित्र सत्तावादी होता है और मानवमुक्ति- और प्रकारान्तर से स्त्रीमुक्ति- के विचार के साथ वो सुसंगत नहीं हैं. इसीलिए आप पाएंगे कि मानवमुक्ति और स्त्रीमुक्ति की विचारधाराएं तो हैं, किन्तु धार्मिक निष्ठाएं नहीं हैं. पर स्त्रियों को ये प्रश्न तो पूछने ही चाहिए कि जो नियम उन पर लादे गए हैं, वो पुरुषों पर क्यों नहीं हैं? उनमें और पुरुषों में क्या भेद है?

पुरुष स्त्री के सेक्शुअल-डॉमिनेंस के लिए इतना व्यग्र क्यों है कि वह स्वयं उसके लिए नियमों को रचकर उन्हें ईश्वरीय विधान की संज्ञा देता है और फिर स्त्री के मुंह से ही यह कहलवाता है कि यह तो हमारी निजी पसंद है? इसमें संवैधानिक त्रुटि का परिप्रेक्ष्य यह है कि जब तथाकथित ईश्वरीय विधान ही परम नहीं है तो संविधान तो मनुष्यों ने रचा है. मैं देख रहा हूं आजकल संविधान शब्द का उपयोग उसी तरह किया जाने लगा है, जैसे अतीत में पवित्र ग्रंथों का नाम लिया जाता था कि इस पर प्रश्न करना पाप है.

तिस पर मैं कहूं कि संसार में ऐसा कोई नियम, विधान या विचार नहीं है, जिसके औचित्य पर प्रश्न नहीं किया जा सकता और जिस पर संवाद नहीं किया जा सकता. अलबत्ता मैं संविधान-निर्माताओं की मजबूरी समझता हूं. जहां समाज के निन्यानवे फीसदी से अधिक लोग धर्मप्राण हों और धर्म में निर्दिष्ट नियमों का बिना कोई प्रश्न पूछे पालन करते हों, वहां पर वे चाहकर भी यह नहीं लिख सकते थे कि नागरिकों को धर्म-पालन की अनुमति नहीं होनी चाहिए.

आम्बेडकर जैसा मेधावी भी वहां निरुपाय हो गया था. किन्तु इससे यह सच नहीं बदल जाता कि धर्म मूलत: मिथकों, कल्पनाओं, रूढ़िवादी विचारों और तिथिबाह्य धारणाओं का संकलन है और मनुष्य इससे जितनी जल्दी मुक्त हो जाए, उतना ही बेहतर. लोकविमर्श का वर्षों का मेरा अनुभव मुझसे यह कहता है कि आप तर्कों से किसी को समझा नहीं सकते. किसी व्यक्ति की चेतना, बुद्धि, प्रज्ञा और विवेक का जो स्तर होगा, वह उसी के अनुरूप सोचेगा.

उससे अधिक अगर उसे समझाया जावे तो वह आक्रामक भी हो सकता है. अगर कुछ स्त्रियां हिजाब ही पहनना चाहती हैं और उसके पीछे निहित तात्पर्यों को जानकर भी ऐसा करना चाहती हैं या उन तात्पर्यों से वे पूरी तरह से अनजान हैं तो आप उन्हें एक या दो दिन में जाग्रत नहीं कर सकेंगे.

समाज कमोबेश इसी परिपाटी पर चलता रहेगा. अधिक सम्भावना तो यही है कि उनकी देखादेखी- प्रतिस्पर्धा या प्रतिकार के भाव से- दूसरे समुदाय भी पिछड़ी सोच को अंगीकार करने लगें और प्रगतिशीलता का परित्याग कर दें- जैसा कि आप देख सकते हैं- भारत में हो ही रहा है. इति!

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लेखक

सुशोभित सक्तावत सुशोभित सक्तावत @sushobhit.saktawat

लेखक इंदौर में पत्रकार एवं अनुवादक हैं.

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