मुस्लिम के घर कुछ ऐसी है एक हिन्दू की ईद
ये किस्सा उस सौहाद्र का है जिसने मुझे ये सोचने पर मजबूर कर दिया कि यकीनन धर्म और जाति चाहें जो भी हो इंसान तो इंसान ही रहता है.
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ईद और मेरी बहुत पुरानी दोस्ती है. ईद के दिन दोस्तों को बधाई देना, ईद मुबारक कहकर गले मिलना हर साल का यही नियम है. चाहें मीठी ईद हो या बकरईद दोनों ही दिन मेरे लिए तो खास सेवईं बनती हैं. नौकरी के कारण भले ही दूर रह रहे हों दोस्तों से, लेकिन जिस वक्त भी मिलते हैं उसे ही ईद बना लेते हैं. पर एक बात जरूर है कि शुरू से ही ये दोस्ती नहीं थी. शुरुआत मेरी भी ऐसी ही थी कि मैं मुसलमानों से नफरत करूं. शायद हमारे समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो छोटे बच्चों को भी नफरत का पाठ पढ़ा देते हैं.
बात बहुत पुरानी हो गई है अब शायद मैं 7 या 8 साल की रही होंगी. ये किस्सा उस सौहार्द्र का है जिसने मुझे ये सोचने पर मजबूर कर दिया कि यकीनन धर्म और जाति चाहें जो भी हो, इंसान तो इंसान ही रहता है.
ईद का दिन भी दिवाली की तरह ही शुभ होता है
बीते बचपन की एक कहानी...
बचपन में मुझे सिखाया जाता था कि पंडित ही सबसे ऊंचे होते हैं. कुछ भी हो दूसरे धर्मों में इतनी बेहतर संस्कृति नहीं है. कन्या भोजन के लिए जाते समय जब लोग मेरे पैर छूते थे, पैसे देते थे और मेरी थाली लगाई जाती थी तब लगता था कि यकीनन सबसे ऊंचे हम लोग ही हैं. बाल मन शायद होता ही ऐसा है. जो सिखाओ सीख जाता है. घर से कुछ दूर एक बस्ती थी जिसे नीची जाति की बस्ती कहा जाता था. हमेशा मेरे सामने यही नाम लिया जाता था और मुझे लगता था कि हां शायद यही उस मोहल्ले का नाम होगा. मैं भी अपने दोस्तों के सामने इसी नाम से उस मोहल्ले के बारे में बात करती थी. वहां जाना मना था. वहां के बच्चों से दोस्ती करना मना था. मेरे लिए वो मोहल्ला बहुत अजीब सी एक दुनिया थी जिसे मैं सिर्फ दूर से देख सकती थी.
सांकेतिक तस्वीर
खैर, ये जात-पात के मामले में मेरा पहला एक्सपीरियंस था. दूसरे जिससे नफरत करनी सिखाई गई थी वो थे मुसलमान. जी हां, चमारों और नीच जात मोहल्ले के बाद मुसलमानों के बारे में मुझे बताया गया था. ये वो समय था जब मुझे पापा के चार-पांच मुस्लिम दोस्त जिन्हें अब तक मैं चाचा कहती थी वो सब खराब लगने लगे थे. मेरी दादी हमेशा ही इन सब मामलों में बहुत आगे रही हैं और उनके लिए जात-पात और छूत-अछूत जैसी बातें बहुत मायने रखती थीं. उन्होंने मुझे बताया था कि मुसलमानों के घर बहुत गंदे होते हैं, मुसलमानों के घर हमेशा मटन ही पकता है, मुसलमान कई दिनों तक नहाते नहीं हैं. वो बलि देते हैं. मुसलमानों के घर कभी नहीं जाना चाहिए. मुसलमानों के घर का पानी तक नहीं पीना चाहिए.
मेरे माता-पिता जो इस सब सोच से थोड़े अलग हैं उन्हें इस बारे में भनक भी नहीं थी कि आखिर मेरे दिमाग में क्या भरा जा रहा है. फिर आई ईद. ये तो याद नहीं कि वो मीठी ईद थी या बकरईद, लेकिन मुझे इतना याद है कि हमें पापा के दोस्त खान चाचा के यहां जाना था. मेरे पापा की मित्र-मंडली में अली अंकल, खान चाचा, खालिक अंकल और इकबाल अंकल सभी मुस्लिम थे. और उस वक्त तक मैं ये नहीं पूछ पाती थी कि आखिर उन्होंने इतने गंदे लोगों से दोस्ती क्यों की है. क्योंकि दादी ने तो कहा था कि ये लोग गंदे होते हैं.
मेरी मां भी बहुत धार्मिक हैं, लेकिन वो बहुत ज्यादा जाति और धर्म के मामले में बोलती नहीं हैं. जब खान चाचा के घर गए तो सबसे पहले हमारे सामने पानी आया. मम्मी और पापा ने तो पानी ले लिया, लेकिन मैंने नहीं. ये कह गई कि प्यास नहीं है. मम्मी-पापा को पानी पीता देख मैं समझ गई थी कि घर जाकर मुझे इन दोनों को दादी से डांट खिलवानी है कि ये गंदे लोगों के घर लेकर गए मुझे और पानी पीने को भी कहा.
हंसी ठिठोली का दौर चल रहा था, लेकिन मेरे मन में तो कुछ और ही था. थोड़ी देर में चाय नाश्ते की बात होने लगी, लेकिन पापा ने कहा हम तो आज सिर्फ सेवईं खाएंगे. मेरे मन में बहुत से ख्याल एक साथ आ रहे थे कि क्या दादी ने पापा को कुछ भी नहीं सिखाया? क्या दादी को ये नहीं पता कि पापा ऐसी हरकतें करते हैं उनके पीठ पीछे.
जब सेवईं सामने आई तो मेरे मन में भी लालच आ गया. इतनी बेहतरीन खुशबू और इतनी अच्छी कटोरी लग रही थी कि लगा मैं भी खा लूं, लेकिन दादी को फिर क्या जवाब देती. मेरे पापा बड़ी देर से ये कश्मकश देख रहे थे और आखिर पूछ ही बैठे कि मैं क्या सोच रही हूं. मैं जो बड़ी देर से मन में शंका लिए थी आखिर रो ही पड़ी.
'पापा आप गंदे लोगों के घर मुझे क्यों लेकर आए, यहां खाना भी खा रहे हो, धर्म भ्रष्ठ हो जाएगा हमारा.' मैंने मां के गले लग सब कुछ बोल दिया.
पापा थोड़ा हैरान थे, मां परेशान होने लगीं और खान चाचा के घर सबको बताने लगीं कि बच्ची है न जाने कहां से ये सब बोल गई. इतने में खान चाचा उठकर आए और बोले कि तुमको लगता है घर गंदा है, पर मेरा घर तो साफ है देखो. उन्होंने मुझे पूरे घर की सैर करवाई. किचन देखने पर मैं दंग रह गई. साफ सुथरा था, मांस भी नहीं था. दरअसल, उन्होंने दो किचन बना रखे थे और उनके यहां मीट घर के बाहर ही पकता था. जिस जगह सेवईं बनाई गई थी वहां सब कुछ साफ सुथरा था और पंडितों के लिए खाना बनाया गया तो भी शुद्ध तरीके से.
खान चाचा ने बताया कि वो नवदुर्गा के पंडाल लगाने में भी मदद करते हैं और गणपति भी. उनके घर के सामने ही दोनों बैठाए जाते हैं. खान चाचा और पापा ने उस दिन मिलकर समझाया कि दादी ने जो भी बताया है वो उनकी अपनी सोच है, लेकिन इस दुनिया में कई धर्म हैं और सभी धर्म इंसानों के ही बनाए हुए हैं. जो किसी अन्य घर में होता है वो हमारे घर में नहीं होता तो फिर हम ये क्यों सोच लेते हैं कि जो हमारे घर के नियम कायदे हैं वो अन्य घरों में भी माने जाएंगे.
इंसान का धर्म अलग हो सकता है, लेकिन सोच से वो छोटा या बड़ा कहलाएगा और दोस्ती धर्म देखकर नहीं बल्कि मन देखकर की जाती है. तब से लेकर आज तक मैं पापा और खान चाचा की दी हुई इसी सीख को मन में लेकर चल रही हूं.
दुनिया में 4200 धर्म हैं और अगर ऐसे ही हर धर्म से नफरत करते रहेंगे तो यकीनन हम अपने मान सम्मान को ही नहीं बल्कि अपने धर्म को भी नीचा दिखाएंगे. किसी इंसान की परख ऐसे करना कि वो ईद मनाता है या दिवाली, ये गलत है. मेरे सभी दोस्त हैं, जिन्हें मैं कभी हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई में नहीं देखती, मेरे लिए वो दोस्त ही हैं.
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