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Updated: 16 नवम्बर, 2018 05:39 PM
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दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी ऑडिटोरियम में 16 नवंबर से साहित्य आजतक शुरू हो गया है और ये तीन दिन तक चलने वाला कार्यक्रम कई साहित्यकारों को साथ लाएगा. इस कार्यक्रम में दो मंच हैं एक दस्तक दरबार और दूसरा हल्ला बोल. साहित्य आजतक 2018 के दूसरे अहम मंच हल्ला बोल के पहले सत्र 'साहित्य का राष्ट्रधर्म' में केंद्रीय हिंदी संस्थान के डायरेक्टर नंदकिशोर पांडे, लेखिका ममता कालिया और लेखक अखिलेश ने शिरकत की. इस सत्र का संचालन रोहित सरदाना ने किया.

इस पूरे सत्र के दौरान जो अहम रहा लेखिका ममता कालिया का जवाब जिन्होंने बहुत सशक्त तौर पर अपनी बात रखी.

रोहित सरदाना का एक सवाल बहुत आकर्षित कर सकता है वो ये कि, 'देश की बेहतरी के लिए लेखन किया जा रहा है, देश को लेकर अलग-अलग चीज़ें हो रही हैं, लेकिन वो हो तो कम से कम देश के परिप्रेक्ष में. क्योंकि एक कोने में केवल स्त्री विमर्श हो रहा है, एक कोने में दलित विमर्श हो रहा है. तो ये क्या है, तो साहित्य जो समाज को जोड़ने का काम करता है वो समाज को तोड़ने का काम तो नहीं कर रहा?'

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इसपर लेखिका ममता कालिया का जवाब था, 'ये बिलकुल सही नहीं है, देश इतना विशाल है और यहां कई समस्याएं हैं, लेकिन उनसे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता. एक सबसे बड़ी समस्या तो ये है कि आजकल भीड़ अपना अलग न्याय करने लगी है. भीड़ जिस तरह से काम कर रही है वो समस्या है और एक लेखक को इस चीज़ों के प्रति भी सचेत होना पड़ता है.'

चौपट राजा तो नहीं कहूंगी, लेकिन अंधेर नगरी तो जरूर है..

रोहित सरदाना ने ममता जी से सवाल किया था कि बंदूक उठाने वालों के लिए अगर साहित्य लिखा जाए तो उसे क्या साहित्य कहेंगे. अगर कोई लिखे कि भारत तेरे टुकड़े होंगे तो वो साहित्य होगा? साहित्य जो समाज को जोड़ने का काम करता है वो कहीं समाज को तोड़ने का काम कर रहा है?

लेखिका ममता कालिया ने बेहद संजीदगी से इस बात का जवाब भी दिया और उन्होंने अपनी बात रखी.

उन्होंने सीधे तौर पर कहा कि बंदूक उठाने वाले के पक्ष में आज तक कोई कहानी नहीं लिखी गई है. लेकिन आज भी कई पत्रिकाएं अलग विचारधाराओं को प्रतिपादित करती हैं. ममता ने कहा कि भेड़ियों पर रहम करना, बकरियों पर जुल्म है, आज आप सभी के लिए एक कोड नहीं बना सकते हैं, हम लेखक अपनी आवाज-कलम सुरक्षित रखना चाहते हैं. कोई ये नहीं निर्धारित नहीं कर सकता है कि लेखक क्या लिखेगा.

उन्होंने कहा कि अगर आज आप रिपोर्ट लिखाने जाएं तो उल्टा दारोगा आपसे पूछता है कि घर में 50,000 रुपये क्यों रखा था. आज नगरी अंधेर है, लेकिन राजा को चौपट नहीं कह सकती हूं.

रोहित सरदाना का सवाल था कि राष्ट्र को सरकार से कन्फ्यूज करना ये हो रहा है या किया जा रहा है.

हमें सरकारी साहित्य लिखना है या जनता का साहित्य लिखना है? ममता जी का ये जवाब बेहद लाजवाब था.

अगर केंद्रीय हिंदी संस्थान के डायरेक्टर नंदकिशोर पांडे की बात करें तो उनके साथ हुई बातचीत भी बेहद रोचक रही. उन्होंने हिंदू-मुस्लिम मामलों पर बात की और साहित्य में कैसे बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक होता है इसके बारे में भी बात की.

एक बेहद उम्दा सवाल रोहित सरदाना ने पूछा था जिसका जवाब देश भक्ति और राष्ट्रवाद दो अलग-अलग तरह की सोच है तो एक साहित्यकार को देश भक्त होना चाहिए या राष्ट्रवादी होना चाहिए?

उन्होंने कहा कि वाद शब्द से हमें दिक्कत होती है, लेकिन राष्ट्र का वाद क्या है? राष्ट्र केंद्रित जो सोच है वो राष्ट्रवाद है.

उन्होंने कहा कि, 'हम सिर्फ अल्पसंख्यक की चर्चा करते हैं, लेकिन अल्पसंख्यक साहित्य की चर्चा में आएं, उसके केंद्र में आएं ये नहीं चाहते, इसलिए कभी किसी सूफी कवी किसी प्रगतिशील लेखक ने कोई कविता कोई किताब नहीं लिखी.

उन्होंने कहा कि प्रतिरोध की कविता सिर्फ 'भारत तेरे टुकड़े होंगे' वाली नहीं है, उस समय में अगर शिवाजी के पक्ष में लिखना भी प्रतिरोध होता था. साहित्य और कविता की जिंदगी में देश को भूगोल और राष्ट्र को भूगोल-संस्कृति के अर्थ में याद किया है. जिस व्यक्ति को ये लगता है कि उनकी बात नहीं सुनी जा रही है तो वह साहित्य के जरिए अपनी मांगों को दुनिया के सामने रखता है.

अगला सवाल था लेखक अखिलेश जी से. रोहित सरदाना जी ने पूछा कि जिनके लिए प्रतिरोधी शब्द का इस्तेमाल हो रहा है वो आज होते तो क्या देश विरोधी होते? इसपर लेखक अखिलेश जी ने जवाब भी दिया.

इस सवाल के जवाब में बहुत अहम कहा गया कि लेखक कभी राजनीति की रचनाएं नहीं देखता वो देश से ज्यादा आकर्षित होता है.

ये सत्र बेहद रोचक रहा और साहित्य के मामले में इस सत्र में हमें बेहतरीन टिप्पणियां सुनने को मिलीं.

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