प्रगतिशील दौर में भाषा विरोध की प्रासंगिकता...
आश्चर्य की बात है और ये अपने में दुर्भाग्यपूर्ण भी है कि विपुल शब्द भंडार और साहित्यिक सामग्री के होते हुए भी कोई भी भारतीय भाषा राष्ट्रव्यापी रूप में नही है.
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विचारों, भावों और अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने का माध्यम है संवाद, यह अवसर सुलभ करातीं हैं भाषाएं. जब भाषाएं ही आपसी विरोध और अलगाव का कारण बन जाएं तो एक सशक्त समाज और राष्ट्र के लिए चिंताजनक स्थिति बन जाती है. हिंदी और संस्कृत ऐसी भाषाएं हैं जिनका विरोध दक्षिण भारत की राजनीति का एक हिस्सा है. भाषा विरोध से पहले कुछ तथ्यों पर गौर कर लेना भी जरूरी है:
जनगणना 2011 के आंकड़ों के अनुसार भारत में 19500 से अधिक भाषाएं और बोलियां मातृभाषा के रूप में प्रचलित हैं. 121 भाषाएं ऐसी हैं जो 10,000 या उससे अधिक लोगों द्वारा बोली जाती हैं, जिनकी आबादी 121 करोड़ है.
भारतीय भाषा की अपनी विशिष्ट शैली और सार्थकता है
आज भारत की 42 भाषाएं या बोलियां विलुप्ति के कगार पर हैं, कुछ हजार या उससे भी कम लोग इन्हें प्रयोग करते हैं. पिछले 50 वर्षों में 20% भारतीय भाषाएं विलुप्त हो गईं हैं, तमाम मानकों के आधार पर बताया जाता है ऐसी 199 भाषाएं हैं. विलुप्त हो चुकीं भाषाओं की कुल संख्या के मामले में भारत रूस और अमेरिका के बाद तीसरे स्थान पर है.
लगभग 44% लोग हिंदी भाषा का प्रयोग करते हैं, जिसकी 57 उपभाषाएं या बोलियां हैं.
भाषाओं के उद्भव, इनके प्राचीन/वर्तमान स्वरूप, शब्दों के समावेश इत्यादि को लेकर तमाम तर्क और विचार रखे जाते हैं. जलवायु, जीन विविधता इत्यादि के कारण उच्चारण अशुद्धि से उपजे अपभ्रंश व देशज शब्दों और विदेशी भाषाओं के शब्दों के समावेश ने आम बोलचाल की भाषाओं के शब्दकोश का विस्तार किया है. आश्चर्य की बात यह है विपुल शब्द भंडार और साहित्यिक सामग्री के होते हुए भी कोई भी भारतीय भाषा राष्ट्रव्यापी रूप में नही है या सम्पर्क भाषा नही बन सकी है. वहीं अंग्रेजी भारत ही क्या विश्व की प्रमुख सम्पर्क भाषा बन गई है.
हिंदी के वर्तमान स्वरूप का इतिहास अधिक पुराना नही है लेकिन इसकी बोलियां इसके मानक स्थापित करने और फिल्में और साहित्य इत्यादि इसके विस्तार में सहायक बने. विविध कामों के लिए अन्य भारतीय भाषाओं का देवनागरी में लिप्यंतरण कर परिवर्धित देवनागरी लिपि विकसित हुई है, हिंदी का यही समावेशी स्वरूप इसकी व्यापकता में अहम भूमिका निभा रहा है. कुछ कमियों पर अब भी ध्यान देने की आवश्यकता है जिससे अन्य भाषाओं को भी उतना ही महत्व मिले जो क्षेत्रीय पहचान की सीमा में बंध कर रह गईं हैं.
हर भारतीय भाषा की अपनी विशिष्ट शैली और सार्थकता है, जिनका सदुपयोग समय की मांग है. सामाजिक, आर्थिक और तकनीकी विकास में हमारी भाषाएं अहम भूमिका निभा सकतीं हैं, जिसे हमने अंग्रेजी के भरोसे छोड़ा है. आम बोलचाल के शब्दकोश या वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली में व्यापक चलन के अंतर्राष्ट्रीय परिभाषिक शब्दों को सम्मिलित करने की व्यवस्था को अंग्रेजी के प्रतिष्ठित शब्दकोश ऑक्सफोर्ड की तर्ज पर भाषा विज्ञान में नई तकनीकों को प्रयुक्त कर अधिक सुदृढ़ और मानकीकृत बनाना चाहिए, जो भारत ही क्या वैश्विक स्तर पर सर्वमान्य नए शब्दों के सृजन में अग्रणी भूमिका निभा सके.
अपनी भाषाओं, बोलियां और शब्द भंडार के विशाल संसार के होते हुए भी हम उच्चारण की सरलता, अर्थ की सटीकता, समझने में आसानी के अभाव में अपनी भाषा में अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करने पर विवश हैं. वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली में अंग्रेजी परिभाषिक शब्दों के क्लिष्ट हिंदी रूपांतरण के कारण भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की अच्छी किताबें हिंदी में नहीं हैं.
विषय विशेष से सम्बन्धित एकरूपता से प्रयोग किए जा सकने वाले पारिभाषिक शब्दों को गढ़ने में केवल हिन्दी की तरफ ही नही देखना चाहिए, संस्कृत, तमिल सरीखी अधिक सटीक भाषाओं को भी इसमें प्रयुक्त हो सकतीं हैं. तमाम देशज शब्द, बोलियां और भाषाएं हमारी विविधतापूर्ण संस्कृति का आधार हैं, इन्हें तभी संरक्षित रखा जा सकेगा जब इन्हें साहित्य, वैज्ञानिक और तकनीकी, सामाजिक, राजकीय शब्दावलियों में सरल शब्दों के रूप में स्थान मिले.
साथ ही विभिन्न राज्यों की भाषाओं के आम बोलचाल के शब्दों के बारे में जानकारी को अन्य भाषियों तक सुलभ कराने की दिशा में काम करना आवश्यक है देश की भाषाएं क्षेत्रीय सीमाओं और पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर अखिल भारतीय स्तर पर प्रोत्साहन और संरक्षण प्राप्त कर सकें. राष्ट्रहित की दृष्टि से देखा जाए तो भाषाई अस्मिता के नाम पर दूसरी भाषा का विरोध एक तरह की जड़ता ही है, भाषाओं का स्वरूप समावेशी हो न कि अन्तर्विरोधी.
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