तरुण सागर की शव यात्रा को क्रूर कह रहे लोग जैन संतों की अंतिम संस्कार प्रक्रिया समझ लें
जैन मुनि तरुण सागर की अंतिम यात्रा को लेकर अब विवाद शुरू हो गया है. सोशल मीडिया पर लोग उनकी अंतिम यात्रा को क्रूर कह रहे हैं. लेकिन क्या लोग ये जानते हैं कि इसके पीछे का कारण क्या है?
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जैन मुनि तरुण सागर की मृत्यु के बाद अब सोशल मीडिया पर उनकी अंतिम यात्रा को लेकर सवाल खड़े होने लगे हैं. एक मुनि की अंतिम यात्रा जिसमें लाखों लोग शामिल हुए उसे विवादों के घेरे में लिया जा रहा है. जैन मुनि की मृत्यु को लेकर दो विवाद गहरा गए हैं. पहला विवाद उनके अंतिम संस्कार के लिए बोली लगाने को लेकर हुआ है.
दूसरा उनकी अंतिम यात्रा को लेकर. सोशल मीडिया पर लोग लगातार जैन मुनि कि अंतिम यात्रा को लेकर बात कर रहे हैं. कुछ को ये क्रूर लगती है तो कुछ को लगता है कि ये सिर्फ एक दिखावा था.
Carrying a dead body like that..!! ????Barbaric/ Inhuman/ Pathetic/ Abhorrent OR Inspired by atal Shradhanjali Yojna Where we are heading ???? pic.twitter.com/mJFCsvzAG0
— Rajeev Jain (@gallerygrandeur) September 2, 2018
यह एक प्रतिनिधी ट्वीट है. इसी तरह कई लोगों ने फेसबुक-ट्विटर और बाकी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर तरुण सागर महाराज की अंतिम संस्कार प्रक्रिया को लेकर सवाल खड़े किए हैं और काफी हद तक जिज्ञासा जाहिर की है कि ऐसा करने की आखिर वजह क्या है. एक संत की देह को इस तरह से अंतिम संस्कार के लिए ले जाना शव यात्रा के अलग-अलग संस्कारों की बोली लगाना कहां तक ठीक है.
तरुण सागर की अंतिम यात्रा को लोग क्रूर कह रहे हैं
जैन मुनि तरुण सागर की विदाई का वीडियो-
तरुण सागर के जीवन के अंतिम पलों से शुरू हो गई थी चर्चा..
जैन मुनियों की मृत्यु को लेकर भी ये अक्सर कहा जाता है कि उनकी मृत्यु को आत्महत्या क्यों न कहा जाए. तरुण सागर जी ने भी कुछ समय पहले सल्लेखना शुरू कर दी थी. मरने से 2 दिन पहले ही ये उपवास शुरू किया गया था. जहां तक तरुण सागर जी महाराज की बात करें तो उन्हें डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था उनका पीलिया बिगड़ गया था. और उन्हें ये जानकारी थी कि उनकी मृत्यु नजदीक है और इस कारण उन्होंने सल्लेखना शुरू की यानी अन्न जल का त्याग कर दिया. लोग इसी सल्लेखना को भी आत्महत्या मानते हैं. और गैरवाजिब करार देते हैं. जानते हैं आखिर ये है क्या?
सल्लेखना आखिर है क्या?
सल्लेखना (समाधि या संथारा) मृत्यु को निकट जानकर अपनाए जाने वाली एक जैन प्रथा है. इसमें जब संतों को लगता है कि मृत्यु उनके करीब है तो वह खुद खाना-पीना त्याग देता है. सल्लेखना दो शब्दों से मिलकर बना है सत्+लेखना. इस का अर्थ है - सम्यक प्रकार से काया और कषायों को कमज़ोर करना. यह श्रावक और मुनि दोनो के लिए बताई गई है. इसे जीवन की अंतिम साधना भी माना जाता है.
तरुण सागर ने भी सल्लेखना से मृत्यु को अपनाया
जैन मुनियों के ग्रंथ तत्त्वार्थ सूत्र में भी इसके बारे में लिखा है और जैन मुनियों को इसके द्वारा ही अपनी देह त्यागने को कहा गया है. ऐसा नहीं है कि संथारा लेने वाले व्यक्ति का भोजन जबरन बंद करा दिया जाता हो. संथारा करने वाले संत स्वयं धीरे-धीरे अपना भोजन बंद कर देते हैं. जैन-ग्रंथों के अनुसार, इसमें व्यक्ति को नियम के अनुसार भोजन दिया जाता है. जो अन्न बंद करने की बात कही जाती है, वह मात्र उसी स्थिति के लिए होती है, जब अन्न का पाचन असंभव हो जाए.
ग्वालियर में 78 वर्षीय जैन मुनि विश्वअरुचि सागर की अंतिम यात्रा.
जैन मुनियों के शव को बांध कर बैठाया क्यों जाता है?
जैन मुनियों और ऐसे लोग सल्लेखना करते हैं उनकी अंतिम यात्रा एक पालकी में निकाली जाती है. उन्हें लकड़ी के एक तख्ते से बांधा जाता है. उनके हाथों और पैरों की स्थिति ऐसी रखी जाती है जैसे वो प्रार्थना कर रहे हैं. और जैन धर्म ग्रंथों में संतों के लिए मृत्यु को पाना भी साधना का ही हिस्सा तो है.
अंतिम यात्रा के रिवाजों की बोली लगाने का क्या तुक है?
खबरों के अनुसार तरुण सागर की अंतिम यात्रा में कुछ इस तरह बोली लगाई गई..
अग्नि संस्कार देने की बोली;1 करोड़ 94 लाख रुपए
सिक्के उछाल की बोली: सोना, चांदी 21 लाख रुपए
गुलाल उछाल की बोली: 41 लाख रुपए
मुहपति की बोली: 21 लाख 94 हजार 194 रुपए
बायां कंधा लगाने की बोली: 32 लाख रुपए
दायां कंधा लगाने की बोली: 21 लाख 21 हजार 111 रुपए
कई लोगों को ये बोलियां अजीब लगेंगी, लेकिन जैन धर्म को करीब से जानने वाले लोगों को ये अच्छी तरह पता है कि सिर्फ अंतिम संस्कार ही नहीं जैन संतों के जीवन के हर चरण पर समाज जन इस तरह से बोली लगाकर सामाजिक कार्यों में अपना अंश दान देते हैं फिर चाहे वो इकट्ठा किए गए पैसे से मंदिर निर्माण करवाना हो या कोई और काम संतों की अगुवाई में उस पैसे का उपयोग होता है. और समाज के लोग इसमें बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं. सिर्फ उनका अंतिम संस्कार ही क्यों कम उम्र में किसी का मुनि बनना या उनका वस्त्र त्याग करना भी कई लोगों के समझ में नहीं आता. जिन्हें भ्रम हो वे जैन मुनियों के सन्यास को समझे उनके त्याग और साधना के कठिन अनुशासन को जाने. कई भ्रम अपने आप दूर हो जाएंगे.
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