Kashmiri Pandit लड़की Shaheen Bagh की 'शेरनियों' से पूछ रही है 3 सवाल
19 जनवरी 1990 जब लाखों पंडितों (Kashmiri Pandit exodus) के कागज़ देखे बिना उनको मारा गया उनकी लाशों को झीलों में फेंका गया, बच्चियों और माताओं के साथ रेप किया गया तब ये शाहीन बाग़ (Shaheen Bagh protest) वाली शेरनियां अपना 'फ्री कश्मीर' का पोस्टर सजाना भूल गई होंगी?
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आज का नारा- हम क्या चाहते हैं 'आज़ादी' छीनकर लेंगे 'आज़ादी' शहर शहर 'शाहीन' 'सलाम शाहीन'.
आज का दूसरा नारा- फ्री कश्मीर.
30 साल पहले अज़ान कुछ ऐसे बदली- रलिव, गलिव या चलिव
समय बीत गया पर ये नारे कुछ एक से नहीं लगते? CAA-NRC के खिलाफ पूरे देश में विरोध हो रहा है. कहा जा रहा है कि देश के मुसलमानों को देश से निकाला जाएगा. वो कह रहे हैं कि ''कागज़ नहीं दिखाएंगे.'' शरिया की मांग करने वाले शेरों से पूछने का मन है- क्या मुझसे उन्होंने कागज़ मांगे थे? अब ये नहीं कहना कि तब आधार नहीं था, पर ये बता दीजिये क्या मैं कश्मीरी हिन्दू अपनी धरती का 'आधार' नहीं था? मेरे पास 'इलेक्शन कार्ड' तो था, मैंने तमाम नेताओं को अपनी और कश्मीर की सुरक्षा, व्यवस्था के लिए वोट तो दिया था. मैं कश्मीरी हिन्दू (Kashmiri Hindu) भारतीय हूं पर मेरे शाहीन बाग़ (Shaheen Bagh protest) की शाही शेरनियों तुमको बता दूँ 'मैं शरणार्थी हूँ' और अब मेरे पास 'आधार' भी है वो भी दिल्ली का. मुझे दिल्ली ने अपना बना लिया और कई अन्य राज्यों ने भी मुझे शरण दे दी, पर मुझे डर क्यों लग रहा है? मैं वोटर तो हूँ पर वोट बैंक नहीं हूँ फिर भी मैं डर में क्यों हूँ? मेरे कानों में फिर क्यों गूंज रही है वो वाली अज़ान -
''रलिव, गलिव या चलिव'' (इस्लाम कबूलो, मरो या भागो) ''मुझे बचाओ मुझे बचाओ'' ये फिर आज़ादी मांग रहे हैं. ये वही आज़ादी है क्या भुट्टो वाली? जिसकी आवाज़ पाकिस्तान से आई थी? या फिर ये छल से भरी वो आज़ादी है जो आपके अंदर भुट्टो की मैली गूँज से पहले ही पनप रही थी?
शाहीद बाग में प्रदर्शन कर रही महिलाओं से एक कश्मीरी हिंदू लड़की कुछ सवाल कर रही है.
आज़ादी से पहले वाला कश्मीर: सतीश तिक्कू और बिट्टा कराटे एक मित्र जो स्कूटर पर एकसाथ घुमते थे.
आज़ादी के बाद वाला कश्मीर: सतीश तिक्कू का कातिल बना बिट्टा कराटे.
19 जनवरी 1990 जब लाखों पंडितों के कागज़ देखे बिना उनको मारा गया उनकी लाशों को झीलों में फेंका गया, बच्चियों और माताओं के साथ रेप किया गया तब ये शाहीन बाग़ वाली शेरनियां अपना 'फ्री कश्मीर' का पोस्टर सजाना भूल गई होंगी? वो टेलिकॉम वाले गंजू साहब जब अपनी जान बचाने के लिए छुप रहे थे तो आतंकवादियों को उनका पता उनके पड़ोसी शरिया वाली बहनों ने बताया था. आज मैं एक कश्मीरी हिन्दू होने के नाते आप सबके सामने कुछ प्रश्न रखती हूँ और ये उम्मीद भी नहीं करती हूँ कि मुझे जवाब मिलेगा. उससे पहले एक किस्सा सुनिए: एक शादी में मेरी माँ ने एक मुस्लिम महिला से पूछा कि आप ट्रिपल तलाक के मुद्दे को कैसे देखती हैं क्या आपको लगता है ये सरकार की तरफ से सही फैसला है और क्या आप उन महिलाओं के साथ खड़ी हैं?
जवाब में उस महिला ने कहा- ''मोदी गलत कर रहा है ये हमारे धर्म के खिलाफ है''
सवाल नंबर 1- शाहीन बाग़ की शेरनियों क्या तुम सच में एक हो?
सवाल नंबर 2- हम वापस आएंगे, पर क्या उन्हीं पड़ोसियों के साथ रहेंगे?
सवाल नंबर 3- हम हिंदू ही बनकर आएंगे, सेक्युलरवाद को नहीं अपनाएंगे, क्या आपको कबूल है? अंत में एक सलाह ले लीजिये प्यार से- फैज़ की नज़्मों के रखवाले पैदा उसी मिट्टी में हुए, जिस मिट्टी में वो अंधी मोमबतियां जलाकर अपनी खात खोद रहे हैं.
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