परिवार बचाना सिर्फ स्त्री की ज़िम्मेदारी है, बिस्तर पर पति की जबर्दस्ती सहना भी शामिल है!
अब इसे ही विडंबना कहें या कुछ और, समाज हर बार पुरुष की शरीरिक ज़रूरतों को औरत की इच्छा, पर तरजीह देता है. शौहर को मजाजी खुदा (ईश्वर समान) मानते हुए उसकी हर इच्छा का मान रखने, हर तरह से 'खुश रखने' की कंडीशनिंग करवाता है.
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मजाज़ी खुदा है शौहर (मतलब, पति ही परमेश्वर है). यह कलमे की तरह रटाया जाता है. याने, अगर तीसरा सजदा उतरता तो शौहर पर होता. सो, उसकी इजाज़त के बगैर चौखट न लांघो. उसे खुश रखने की सब कोशिश करो. सजो. संवरों. वह मर्द है. भटक सकता है. उसे रिझाओ. दिल बहलाओ. और 'सेक्स' के लिए शौहर को न... अरे क्या गज़ब करती हो. मज़हब कहता है अगर औरत प्रसव पीड़ा में है तो भी उसे पति की 'ज़रूरत' को प्राथमिकता देनी होगी. (माहवारी के दौरान शरीरिक संबंध हराम है. चिकित्सकीय दृष्टि से भी गलत है. लेकिन क्या माहवारी, अपवाद छोड़ दें तो, प्रसव पीड़ा से ज्यादा दर्द युक्त है?)
धर्म हर बार पुरुष की शरीरिक ज़रूरतों को औरत की इच्छा, पर तरजीह देता है. समाज भी बार बार पति को परमेश्वर मानते हुए उसकी हर इच्छा का मान रखने, हर तरह से 'खुश रखने' की कंडीशनिंग करवाता है.
धर्म चाहे कोई भी हो धारणा यही है कि पति परमेश्वर है और इसी बात को आधार बनाकर वो औरत का दमन करता है
समाज द्वारा पुरुषो की कंडीशनिंग का तरीक़ा देखिये-
रात बहुत देर से घर आ रहा है लड़का. शादी करा दो सुधर जाएगा. बहुत गुस्सा करने लगा है. हर वक़्त पारा चढ़ा ही रहता है. बीवी ला दो. सारी गर्मी निकल जाएगी. घर-परिवार, समाज कभी खुल के कभी आहिस्ता से पुरुषों को बताते हैं कि पत्नियां उनकी स्ट्रेस बस्टर है. संपत्ति हैं. शारीरिक, मौखिक या सांकेतिक हर तरह से वे उनपर हावी हो सकते हैं. उन्हें पंचिंग बैग बना सकते हैं. याने, चीखना-चिल्लाना, मारना पीटना, अबोला करना, संभोग करते हुए मेरी मर्ज़ी, मेरा मन, मुझे ऐसे ही अच्छा लगता है, के नाम पर जैसे चाहे उनका उपभोग करना.
मेरी हाउस हेल्पर का पति जब जुएं में हार के आता, बीवी को खूब पीटता. टीवी की आवाज़ बढ़ा कर कि मुहल्ले वालों को सुनाई न दे. लेकिन रात में बच्चों के सो जाने के बाद उसे इशारा करता या आवाज़ देता साथ में सोने के लिए. वो रोते हुए कहती दिन भर 8-10 घर में झाड़ू पोछा कर के थक जाइत है. लेकिन आदमी अपने हवस के आगे कुछ समझत नायी है.
एक साहब की बीवी कुछ नाराज़ थी. रात में मियां ने नजदीकी की ख्वाहिश ज़ाहिर की. उन्होंने खफा होकर करवट बदल दी. मियां को ताव आ गया. मां बहन वाली दो गालियां दीं. बीवी का मुंह घुमाया. काम निपटाया. इस तरह उन्होंने अपना हक वसूला. यह मनगढ़त कहानी नहीं, कानों सुना सच है. ऐसी एक नही, एक लाख कहानी हर औरत के पास होगी. वे बताती नही हैं. सुनेगा कौन? धर्म से लेकर समाज तक के लिए वैवाहिक बलात्कार कोई मुद्दा नहीं है.
दिल्ली हाईकोर्ट की दो जजों की बेंच में भी यह विवादित हो गया. विपक्षी जज का तर्क था ऐसे परिवार नामक व्यवस्था बर्बाद हो जाएगी. तो क्या परिवार बचाने की ज़िम्मेदारी सिर्फ स्त्री की है. आखिर कब तक परिवार और बच्चों की परवरिश के नाम पर वे ब्लैकमेल होती रहेंगी. पुरुष के पास सारे अधिकार हैं. क्या उसके निरंकुश होने की संभावना शून्य है? मजाज़ी खुदाओं के लिए क्या कोई अदालत कोई मुंसिफ नहीं?
कभी पत्नियां किचन में सिलेंडर फट जाने से मर जाया करती थी. दहेज अधिनियम से पता चला वे जला के मारी गयी. हालांकि संभोग के चलते वे मारी नहीं जा रही. लेकिन वही है न उनकी शिकायत तभी दर्ज होगी, जब वे मारी जाएंगी. वैसे भी भारतीय समाज के हिसाब से पत्नी के साथ शारीरिक हिंसा तब मानी जाती है जब वह जघन्य स्तर पर हो. मानसिक उत्पीड़न भी इतना होना चाहिये कि वह रोगी हो जाए. दवाईयां लेनी पड़े.
Durex नामक कंडोम बनाने वाली एक कंपनी का सर्वे कहता है, 70% औरतों ने कभी ऑर्गस्म महसूस ही नहीं किया. इन 70 प्रतिशतों ने कितनी बार घुड़की, धमकी, मानसिक उत्पीड़न सहते हुए संबंध बनाया होगा, इसकी जानकारी किसी कंपनी किसी सर्वे से नहीं हो सकती.
जज के हिसाब से इसका गलत फ़ायदा भी उठाया जा सकता है. सो, दुनिया में ऐसा कौन सा कानून है जिसका गलत फ़ायदा नहीं उठाया गया. हाँ, मैरिटल रेप के क्या मानक होंगे, इसे समझदारी से बनाने की ज़रूरत है.
जिन्हें पत्नियों के निरंकुश होने का खतरा है वे बेफिक्र रहें. भारतीय समाज की सभी औरतें अभी इतनी प्रगतिशील नहीं हुई कि वे अंधेरे कमरे की नीली रोशनी में हुए कार्यक्रम को दिन के उजाले में प्रायोजित करती फिरेंगी. क़ानून बन जाने के बावजूद समाज की सोच जल्दी नही बदलती.
एक पॉइंट यह भी है की अगर पसंद की शादी हो तो मरिटल रेप की स्थिति कम बने शायद. हां शायद. क्यूंकि घरवालों द्वारा चुना दूल्हा पृथ्वी और आपके द्वारा चुना मंगल ग्रह का तो नहीं ही होगा. सब इसी गोले के हैं...सोच सारा खेल का है.
जैसे एक सोच यह कि जर, जोरू और ज़मीन तीन चीजें पर्दा चाहती हैं. सो, परदे से बाहर निकलकर औरतें पूछती हैं, कब तक पितृसत्तात्मक समाज जर (दौलत) और ज़मीन की तरह उन्हें अपनी मिल्कियत समझेगा?
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