मेघालय खदान हादसा: आपदाओं से निपटने की हमारी तैयारी इतनी कमजोर क्यों?
मेघालय की कोयला खदान में मजदूरों को फंसे हुए 18 दिन हो गए हैं. इन फंसे हुए मजदूरों को निकालने में असमर्थ तंत्र को देखकर लगता है कि विकास की बात करने और उसे अमली जामा पहनाने में बहुत फर्क है.
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18 दिन हो चुके हैं मेघालय की लुमथरी की कोयला खदान में फंसे मज़दूरों को निकलने का काम अभी भी जारी है. 13 दिसम्बर से कोयला खदान में फंसे मजदूरों को निकालने के तमाम जतन किये जा रहे हैं और रेस्क्यू टीमें बैरंग लौट रही हैं. नए उपकरणों का इंतज़ार कर रही नौसेना और एनडीआरएफ़ की टीमों ने 29 दिसंबर को बचाव अभियान शुरू करने की योजना बनाई थी, लेकिन खदान का मुआयना करने के बाद वो भी वापस लौट आई हैं. बचाव के काम में लगी एजेंसियों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि उनके पास खदान का मैप नहीं है. इसलिए विशेषज्ञ अंदाजा नहीं लगा पा रहे हैं कि मजदूर कहां हो सकते हैं.
मेघालय की कोयला खदान में मजदूरों को फंसे हुए 18 दिन हो चुके हैं
राहत बचाव कार्य का जायजा लेने के लिए जहां एक तरफ धनबाद के इंडियन स्कूल ऑफ माइन्स से विशेषज्ञों की एक टीम यहां पहुंची है. तो वहीं दूसरी ओर खदान दुर्घटनाओं में कई लोगों की जान बचाने वाले पंजाब से विशेषज्ञ जसवंत सिंह गिल को भी यहां बुलाया गया है. माना जा रहा है कि जसवंत सिंह गिल अभियान में मदद करेंगे. जसवंत सिंह गिल से मीडिया ने बात की और जो बातें उन्होंने कहीं वो अपने आप में कई सवाल खड़े करती नजर आ रही हैं.
The task of pumping out water from the mine in East Jaintia Hills in Meghalaya will take at least a week more. India Today's @manogyaloiwal speaks to senior mine expert Jaswant Singh Gill on what is next on plan.#ReporterDiary More Videos: https://t.co/FAHzdjSiWA pic.twitter.com/wjxscWq0NC
— India Today (@IndiaToday) December 30, 2018
गिल का मानना है कि जिस जगह मजबूर फंसे हैं अभी उन्हें बाहर निकालने में एक सप्ताह का समय और लगेगा. गिल द्वारा कही बात सुनने में शायद आम लगे मगर आगे कुछ और कहने से पहले ये बताना बेहद जरूरी है कि खदान में 13 दिसंबर से फंसे हैं.
गिल के अनुसार खदान से पानी निकालने के लिए उच्च शक्ति वाले पंपों को एयरलिफ्ट कर लिया गया हो मगर अब भी खदान से पानी निकालना एक मुश्किल काम है. ऐसा इसलिए क्योंकि पम्प चलाने के लिए पर्याप्त बिजली नहीं है और पम्प चल सके इसके लिए वहां पहले बिजली मुहैया कराई जा रही है. सोचने वाली बात ये है कि मजदूरों को फंसे हुए 18 दिन हो गए हैं. ऐसे में अब अधिकारियों का कहना कि पम्प चलाने के लिए बिजली नहीं है हमारे तंत्र का कच्चा चिटठा खोल कर सारी असलियत हमारे सामने रख देता है.
सवाल उठता है कि आखिर सिस्टम इतना लापरवाह कैसे हो सकता है. एक ऐसे देश में जहां शहरों तक में शादियों के दौरान इमरजेंसी के लिए जेनेरेटर रखे जाते हों अगर उस देश में पिछले 18 दिन से राहत बचाव में जूझ रहे अधिकारी ये कहें कि उन्हें अपना काम करने के लिए पर्याप्त बिजली नहीं मिल पा रही हैं तो ये बात भारत जैसे विशाल देश को शर्मिंदा करने के लिए काफी है.
राहत बचाव में जुटे एनडीआरएफ के कार्यकर्ता
मेघालय की खान में फंसे मजदूरों को बचाने के लिए चल रहे इस राहत बचाव कार्य का यदि गंभीरता से अवलोकन किया जाए तो ये कहना कहीं से भी गलत नहीं है कि सम्पूर्ण प्रक्रिया एक मजाक से ज्यादा और कुछ नहीं है. साथ ही ये प्रक्रिया हमें इस बात का भी एहसास करा देती है कि 'डिजिटल इंडिया' के नाम पर लाख बड़ी बड़ी बातें हों मगर तकनीकी रूप से हम उतने ही पिछड़े हैं जैसे हम आजादी से ठीक पहले थे.
15 मजदूरों की जिंदगी दाव पर है. पता नहीं वो हैं भी या नहीं भी. परिजन उन्हें पहले ही मृत मान चुके हैं मगर इसके बावजूद जब ये सुनने में आए कि टेक्नीकल दिक्कतों की वजह से खदान में फंसे मजदूरों तक नहीं पहुंचा जा रहा है तो सिस्टम पर गुस्सा आना और उसे कोसना लाजमी है. इस पूरे मामले को देखकर हमारे लिए ये कहना कहीं से भी अतिश्योक्ति नहीं है कि ये पूरा मामला जहां एक तरफ लापरवाही की पराकाष्ठा है तो वहीं दूसरी तरह विकास की बड़ी बड़ी बातों के मुंह पर करारा तमाचा है.
माना जा रहा है कि मजदूरों को निकालने में अभी एक हफ्ता और लग सकता है
मेघालय में राहत बचाव के नाम पर जो ये हंसी ठिठोली और खानापूर्ति चल रही है उसे देखकर 20 साल पहले की एक घटना याद आ जाती है.इंडियन एयरलाइंस फ्लाईट 814 नेपाल के त्रिभुवन अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे आनी थी जिसका हरकत उल मुजाहिदीन नामक संगठन के आतंकियों द्वारा अपहरण कर लिया गया था.
तब की सरकार ने आनन फानन में आतंकियों की मांगें मानते हुए कई जटिल फैसले लिए. आज इस घटना को 20 साल होने को हैं और यदि वर्तमान परिदृश्य को देखा जाए तो मिलता है कि अब भी स्थिति ठीक वैसी है. मेघालय की घटना ने इस बात को पुख्ता कर दिया है कि यदि आज ऐसा कुछ हुआ तो हमारी सरकार द्वारा ठीक वैसा ही बर्ताव किया जाएगा जैसा आज से 20 साल पहले 31 दिसम्बर 1999 को किया गया था. राहत बचाव के नाम पर हम 20 साल पहले भी बगले झांक रहे थे आज भी स्थिति वैसी ही है.
बहरहाल इस पूरे मामले ने जहां हमें हमारी मूल कमियों से अवगत कराया है तो वहीं दूसरी तरफ ये भी बताया है कि जब बात देश के आम आदमी की आती है तो उसका हाल चाल लेने में वक़्त लगता है. खदान में फंसे मजदुर जिंदा हैं या फिर दम घुटने से उनकी मौत हो गई है इसका निर्णय वक़्त करेगा मगर जिस तरह इस राहत बचाव कार्य ने 18 दिन ले लिया विश्वास हो गया है कि हमारे नेताओं द्वारा विकास की बड़ी-बड़ी बातें करना तो आसन है और उसे अमली जामा पहनाने में लम्बा वक़्त लगता है.
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