नाबालिग की सहमति एक ग्रे एरिया: बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक नई बहस को आयाम दिए हैं!
यौन संबंध के लिए सहमति (Consent for sex) को लेकर जो फैसला बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक मामले में दिया है उसकी भले ही आलोचना हो लेकिन इस बात में भी कोई शक नहीं है कि इस फैसले में न्यायालय ने विधि की व्याख्या में लचीला रूख रखा है.
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पिछले कुछ दिनों में बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा कई चर्चित निर्णय दिए गए जिसके सरोकार न केवल विधिक है बल्कि सामाजिक भी है. अभी पिछले दिनों बॉम्बे हाईकोर्ट ने अपने एक आदेश में कहा है कि किसी नाबालिग की ब्रेस्ट को बिना 'स्किन टू स्किन' कॉन्टैक्ट के छूना POCSO (Protection of Children from Sexual Offences) एक्ट के तहत यौन शोषण की श्रेणी में नहीं आएगा. इस निर्णय के प्रति तमाम महिला और समाजिक संगठनों की कठोर प्रतिक्रिया के बाद और विधिक आलोचना के बीच तुरंत माननीय उच्चतम न्यायालय ने इस फैसले पर रोक लगा दी. इसी बीच बॉम्बे हाईकोर्ट का कल माइनर के साथ किए जाने वाले यौन अपराध के सम्बन्ध में एक और फैसला चर्चा में आया है.
इस मामले में बॉम्बे हाई कोर्ट ने 19 साल के लड़के को सुनाई जाने वाली दस साल के कठोर कारावास की सजा को रद्द कर दिया है. यह लड़का अपने साथ रहने वाले चचेरी बहन के साथ दुष्कर्म के मामले में दोषी पाया गया था. बच्ची की उम्र 15 साल है और वो कक्षा आठ में पढ़ती है. बच्ची अपने चाचा के साथ उन्हीं के घर पर दो साल से रह रही थी.
बॉम्बे हाई कोर्ट ने 'सहमति' को लेकर जो फैसला दिया है उसने एक नई बहस को आयाम दे दिया है
सितंबर 2017 में बच्ची ने अपनी एक दोस्त को बताया कि 'उसके चचेरे भाई ने उसको अनुचित तरीके से हाथ लगाया, जिसके बाद से उसके पेट में दर्द रहने लगा.' मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज किए गए बयान में बच्ची ने कहा कि जो बयान पुलिस के सामने रिकॉर्ड किया गया था वो अध्यापिका की जिद पर किया गया था. परीक्षण अदालत की ओर से दोषी करार करने के बाद लड़के ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की और हाई कोर्ट से जमानत की मांग की.
मामले से जुड़े प्रत्येक तथ्य और परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए न्यायमूर्ति श्रीं शिंदे ने यह विचार व्यक्त किया कि 'मुझे यह पता है कि कानून की नजर में नाबालिगों की सहमति को वैध नहीं माना जाता, लेकिन नाबालिगों के बीच सहमति से बनाए गए यौन संबंधों पर कानूनी नजरिया साफ नहीं है. हालांकि कोर्ट का यह भी कहना था कि इस मामले में तथ्य विशिष्ट हैं.
कोर्ट ने आगे कहा कि, पीड़िता और आरोपी एक ही छत के नीचे रहते हैं. वो दोनों छात्र हैं. कोर्ट ने कहा कि इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि पीड़िता ने अपना बयान बदला है.' बेंच ने आगे कहा कि, ट्रायल के दौरान भी आरोपी को जमानत दी गई थी और उसने इसका दुरुपयोग नहीं किया था.इस सम्पूर्ण तथ्यों के बाद इस निर्णय के विषय में भी कई विरोधाभास उत्पन्न हो रहे है.
विशेषकर एक माइनर की सहमति के सम्बन्ध में. उच्च न्यायालय द्वारा इस आसाधारण मसले में भी यही निर्देशित किया जा रहा है कि इस मसले पर अभी और विधिक व्याख्या कि आवश्यकता है ताकि परिस्थितियों के प्रकाश में 'सहमति' शब्द को स्पष्ट किया जाए. उम्मीद है कि अपील की सुनवाई के दौरान माननीय न्यायालय इस बिंदु पर अपनी स्पष्ट राय अवश्य रखेगा.
निश्चित रूप से महिलाओं के प्रति किए जाने वाले अपराधों विशेषकर वैवाहिक और यौन अपराध के प्रति न सिर्फ समाज बल्कि न्यायालय भी अपराधी के प्रति एक कठोर भाव रखता है. ऐसे माहौल में कई बार न चाहते हुए भी तथ्यों पर नकारात्मक चिंतन के प्रभाव पड़ने की गुंजाइश बनी रहती है. ट्रायल कोर्ट के सामने भी कई प्रकार से व्यावहारिक अड़चने होती है.
इन दोनों मसलों में एक बात जो कॉमन है वह यह है कि उपरोक्त दोनों मामलों में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने विधि की व्याख्या में लचीला रूख रखा है. हम आप इस बात की आलोचना कर सकते है कि ये निर्णय अपराधियों के मनोबल को बढ़ाने वाले हो सकते है. लेकिन हमें इस तथ्य को याद रखना होगा कि विधि भी सामाजिक मान्यताओं और मूल्यों की भांति देश काल सापेक्ष होने के कारण निरंतर प्रगतिशील विचारों को समाहित करते आगे बढ़ता है.
किसी भी मामले को नज़ीर बनने से पूर्व कठोर वैचारिक और विधिक कसौटियों पर खरा भी उतरना होता है.
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