मुसलमान औरतों का असली दुश्मन कौन ?
न तो कुरान में तलाक का प्रावधान है न हदीस में. हां, कुरान में अवश्य एक स्थान पर कहा गया है कि अल्लाह को जिन चीज़ों से नफरत है उसमें तलाक सबसे ऊपर है.
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सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला आ गया है. इसने मुसलमान औरतों को तीन तलाक की बर्बर कुप्रथा से मुक्ति दिलवा दी है. फैसले में तीन तलाक पर केंद्र सरकार छह महीने के भीतर संसद से कानून बनाने का भी आदेश है. सुप्रीम कोर्ट ने इस दौरान तीन तलाक पर रोक लगा दी है. मुख्य न्यायाधीश जस्टिस खेहर की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए तीन तलाक को 3-2 के बहुमत से असंवैधानिक करार दे दिया.
तीन तलाक की बेड़ियों से आजाद हुईं मुस्लिम महिलाएं
सुप्रीम कोर्ट ने इतिहास से सबक लिया और 1986 मे शाह बानो के गुजारा भत्ता वाले मामले में याचिकाकर्ता की अपील स्वीकार कर तीन तलाक पर अपनी ओर से कोई अंतिम फैसला न देकर इसको संसद पर छोड़ दिया. हां, अपना मंतव्य जरूर जाहिर कर दिया. कुल मिलाकर यह तो तय हो गया कि अब तलाक की उस कुप्रथा का देश में आज से ही अंत हो गया. बताने की जरूरत नहीं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले दिनों स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से ही मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक कुप्रथा को समाप्त करने के लिए कानून बनाने का भरोसा दिया था.
जीती मानवता: हारी दकियानूसी
कहते हैं कि हैं कि न्याय अंधा होता है. वरना न्याय की देवी की दोनों आंख पर पट्टी नहीं बंधी होती. इसका पता चला गया. हालांकि, कई कट्टरपंथी मुस्लिम संगठन ट्रिपल तलाक को जारी रखने की पुरज़ोर वकालत भी कर रहे थे. पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में मुसलमान औरतों को जीवनदान दे ही दिया. इस फैसले के आने से पहले तक यह कहा जा रहा था कि ट्रिपल तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से ही यह तय हो जायेगा कि मानवता जीतती है या मुस्लिम सांप्रदायिकता और अमानवीयता.
सुप्रीम कोर्ट के पांच में से तीन जजों जस्टिस कुरियन जोसफ, जस्टिस नरीमन और जस्टिस यूयू ललित ने तीन तलाक को असंवैधानिक करार दिया. तीनों ने जस्टिस नजीर और सीजेआई खेहर की राय का विरोध किया. तीनों जजों ने तीन तलाक को संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करार दिया. जजों ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 14 समानता का अधिकार देता है. इस फैसले का मतलब यह है कि कोर्ट की तरफ से इस व्यवस्था को बहुमत के साथ खारिज किया गया है. कोर्ट ने मुस्लिम देशों में ट्रिपल तलाक पर लगे बैन का जिक्र किया और पूछा कि भारत इससे आजाद क्यों नहीं हो सकता? कोर्ट ने यह भी कहा कि संसद को इस मामले पर कानून बनाना चाहिए. कोर्ट ने कानून बनाने के लिए 6 महीने का वक्त दिया है.
पाप है ट्रिपल तलाक
चीफ जस्टिस जेएस खेहर और जस्टिस नजीर ने अल्पमत में दिए फैसले में कहा कि तीन तलाक धार्मिक प्रैक्टिस है, इसलिए कोर्ट इसमें दखल नहीं देगा. हालांकि दोनों जजों ने यह भी माना कि यह पाप है, इसलिए सरकार को इसमें दखल देना चाहिए और तलाक के लिए कानून बनना चाहिए. निर्विवाद रूप से केन्द्र सरकार अब मुसलमान औरतों के हक में सशक्त कानून लेकर आएगी. अगर आपको भारत में मुस्लिम औरतों की हैसियत को जानना है अब्दुल बिस्मिल्लाह का उपन्यास “झीनी-झीनी बीनी चदरिया” पढ़ लें. इसमें मुसलमान परिवारों का चित्रण किया गया है, जहां नारी दूसरे या कहें कि तीसरे दर्जे के इंसान के रूप में रहती हैं. इसमें एक जगह लेखक एक पात्र से कहलवाता है,‘औरत की आखिर हैसियत ही क्या है? औरत का इस्तेमाल ही क्या है? चूल्हा-हांड़ी करे, साथ में सोये, बच्चे जने और पांव दबाये. इनमें से किसी काम में कोई गड़बड़ की तो बोल देंगे, तलाक, तलाक, तलाक.'
मुसलमान औरतों के शत्रु कौन
जब मुसलमान औरतों को ट्रिपल तलाक से मुक्ति दिलवाने की मुहिम चली तो अपने को मुसलमानों का रहबर और रहनुमा कहने वाले मुस्लिम नेता ही विरोध करने लगे. ये प्रेस कांफ्रेंस कर रहे थे कि वे सरकार की ईंट से ईंट बजाकर रख देंगे. इनके पत्रकार सम्मेलनों में दाढ़ी वाले मुल्ला तो भरे होते थे, पर कोई औरत नहीं होती थी. ये मुसलमान औरतों को मध्ययुगीन काल में रखना चाहते हैं. ट्रिपल तलाक के मसले पर सरकार के प्रगतिशील रुख का ये बेशर्मी से विरोध कर रहे थे.
जिन दिनों ट्रिपल तलाक पर सुप्रीम कोर्ट कोर्ट में बहस चल रही थी तब मुझे एक दिन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के एक सदस्य मिल गए. मैंने उनसे कुछ सवाल पूछे. एक- ट्रिपल तलाक कानून में बदलाव से आपकी ही बेटियों को और अधिकार हासिल होंगे, इससे किसी हिन्दू का क्या लेना-देना? दूसरा, अगर तमाम मुस्लिम देशों ने इस कानून को ख़त्म कर दिया है और इसमें उनका इस्लाम आड़े नहीं आया तो फिर आपको यह कैसे लगता है कि इससे इस देश में मुस्लिमों के अधिकारों या उनके धर्म पर कोई आंच आ जायेगी? इन सवालों के वे जवाब नहीं दे सके. बिना बात की बहस में उलझे रहे. यदि यह कौम अब तक अंधेरे से निकल नहीं पाई तो उसका सबसे बड़ा कारण यही तथाकथित धर्म गुरु ही हैं.
न तो कुरान में तलाक का प्रावधान है न हदीस में. हां, कुरान में अवश्य एक स्थान पर कहा गया है कि अल्लाह को जिन चीज़ों से नफरत है उसमें तलाक सबसे ऊपर है. न तो रसूल ने और न ही किसी नबी ने अपनी किसी बीबी को तलाक दिया. हां, एकाध को जब अपनी बीबी से मतभेद हुआ तो उसने उस बीबी को किसी अलग मकान में रख दिया. सारे सुख सुविधा के इंतज़ाम किये और ताउम्र उनकी देखरेख की.
शादी, तलाक और गुजारा भत्ता के लिए कोई सही नियम न होने की वजह से अधिकतर मुसलमान औरतों को जानवरों से बदतर जिंदगी बितानी पड़ती रही है. कोई माने या न माने, पर मुसलमान औरतों के हक में मुस्लिम समाज का रुख वास्तव में बहुत ही भेदभावपूर्ण रहा है. अब निश्चित रूप से हालात बदलेंगे. जहां ज़्यादातर मुसलमान मर्द ट्रिपल तलाक को जारी रखने के हक में थे, वहीं मुसलमान औरतें इसका भारी विरोध कर रही थीं. भारत की 92.1 फीसदी मुसलमान महिलाएं फटाफट होने वाले मौखिक तलाक पर रोक लगवाना चाह रही थीं. यह आंकडे एक सर्वे के बाद भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) नाम के एक संगठन ने जारी किए थे. बेशक इन औरतों की मुराद पूरी हो गई है.
अब सरकार को सुप्रीम कोर्ट के निर्देश का पालन करते हुए एक इस प्रकार का सख़्त कानून बनाना होगा जिससे कि इनके हक सुरक्षित रहें. ये चैन की सांस ले सकें. छह माह का भी इंतज़ार क्यों ? नवम्बर में शुरु होने वाले शरद सत्र में ही यह विधेयक पारित करके सरकार को यह सिद्ध करना चाहिए कि मोदी सरकार सभी महिलाओं को बराबरी का हक़ देने के लिए संकल्पित है.
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