मस्जिद में महिलाओं की एंट्री को लेकर मौलवी और जज एक जैसी गफलत में
मस्जिद में नमाज की अनुमति के लिए मुस्लिम दंपत्ति का अदालत जाना और अदालत का सुनवाई के दौरान सबरीमला का जिक्र करना ये बताता है कि मामले में सुप्रीम कोर्ट के जज और मस्जिद के मौलानाओं और इमामों की स्थिति बिल्कुल एक जैसी है.
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किसी भी मुसलमान के लिए हज एक जरूरी एहकाम है. हज की एक बेहद जरूरी प्रथा है 'नमाज.' और इसकी खास बात यह है कि दुनिया की सबसे पवित्र मक्का मस्जिद में औरत और मर्द एक साथ नमाज पढ़ते हैं. और ये प्रथा बरसों से चली आ रही है. बिना किसी बहस और विवाद के. कारण ये है कि इस्लाम में औरत के अधिकार को किसी भी तरह मर्दों से कम नहीं रखा गया है. सऊदी अरब और हज के एहकामों से निकल कर जब हम भारत आते हैं तो यहां की स्थिति अलग मिलती है.
प्रायः मर्द नमाज के लिए मस्जिदों का रुख करते हैं तो वहीं महिलाएं घर पर रहकर नमाज पढ़ती आई हैं. लेकिन अब यही मसला देश की सबसे बड़ी अदालत में पहुंच गया है. जिसके फैसले को लेकर सुप्रीम कोर्ट और मौलानाओं के सामने धर्मसंकट की स्थिति आ गई है. मस्जिदों में मुस्लिम महिलाओं के प्रवेश और वहां नमाज पढ़ने की अनुमति देने की मांग करने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार, राष्ट्रीय महिला आयोग, सेंट्रल वक्फ काउंसिल और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से अपनी राय देने को कहा है.
सवाल ये उठता है कि जब हज के दौरान मर्द और औरत साथ नमाज पढ़ सकते हैं तो फिर ये भारत में क्यों नहीं संभव है
सबरीमला केस की रह पर ही चल पड़ा है ये मामला:
कोर्ट में महिलाओं के प्रवेश के मद्देनजर आया ये मामला कहीं न कहीं सबरीमाला मामले की राह पर चल पड़ा है. जस्टिस एसए बोबडे और जस्टिस एस अब्दुल नजीर ने तो कह ही दिया है कि वह सबरीमला मंदिर मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले की वजह से ही इस याचिका की सुनवाई कर रह हैं.
जिस तरह मस्जिदों में महिलाओं के प्रवेश का प्रश्न सामने आया है, उसी तरह की दलील के साथ सबरीमला मंदिर में महिलाओं के दर्शन करने की मांग पर सुप्रीम कोर्ट पहले फैसला दे चुकी है. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ ने 28 सितंबर 2018 को 4:1 के बहुमत के फैसले में महिलाओं के सबरीमला मंदिर प्रवेश का मार्ग प्रशस्त कर दिया था. लेकिन यह फैसला आने के बाद बवाल मच गया. तर्क दिए गए कि मूल अधिकारों और समानता के नाम पर अदालत धार्मिक मामले में अपनी दखलंदाजी कर रही है. काफी विवाद और उपद्रव के बीच सुप्रीम कोर्ट के सामने पुनर्विचार याचिका डाली गई है, जिसकी सुनवाई चल रही है.
सबरीमला को लेकर जो फैसला कोर्ट ने दिया था उसपर भी खूब विवाद हुआ
अब आते हैं मस्जिद में महिलाओं के प्रवेश को लेकर. सबरीमला मामले के फैसले के बाद हुए विवाद को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट भी सावधानी बरत रहा है. जजों ने याचिकाकर्ता से ये सवाल किया कि क्या आप संविधान के अनुच्छेद 14 का सहारा लेकर दूसरे व्यक्ति से समानता के व्यवहार का दावा कर सकते हैं? याचिकाकर्ताओं के वकील आशुतोष दुबे ने कहा कि भारत में मस्जिदों को सरकार से लाभ और अनुदान मिलते हैं. इसलिए, हां.
अपनी याचिका में याचिकाकर्ता यास्मीन और उनके पति जुबैर पीरज़ादे ने भी यही बात कही है कि महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाना भेदभावपूर्ण और मौलिक अधिकारों का हनन है. साथ ही दंपत्ति ने ये भी कहा था कि भारत के मूल विचार में मौलिक एकता, सहिष्णुता और यहां तक कि धर्म की समन्वयता भी है.
A Pune couple has filed petition in SC seeking to declare prohibition on entry of Muslim women into mosques as 'illegal & unconstitutional'. Zuber, husband says "We requested police to help women who wanted to pray at mosque, but Jamaat didn't allow. We were left with no option." pic.twitter.com/CRoEy7O3R2
— ANI (@ANI) April 16, 2019
मौलाना भी धर्मसंकट में:
मस्जिद में महिलाओं को प्रवेश देने का मामला भी धीरे-धीरे इस व्यवस्था पर पुरुषों के वर्चस्व और एकाधिकार की लड़ाई के रूप में बढ़ रहा है. और इस दिशा में ले जाने की पहल की है सुन्नी मौलानाओं के वर्चस्व वाली संस्था समस्त केरल जामियातुल उलेमा ने.
राजस्थान के जयपुर की एक मस्जिद में नमाज पढ़ती महिलाएं
जिसने सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के बीच फरमान जारी कर दिया कि महिलाएं घर में रहकर ही नमाज पढ़ें. संगठन के महासचिव के अलीकुट्टी मुसालियर ने कहा है कि हम धार्मिक मामलों में कोर्ट का दखल बर्दाश्त नहीं कर सकते. हमें इस मामले में धार्मिक लोगों से निर्देश लेने चाहिए.
साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि सबरीमला पर भी हमारा यही स्टैंड था. मस्जिद में महिलाओं के प्रवेश की पृष्ठभूमि में मुसालियर ने ये भी कहा कि मस्जिद में नमाज पढ़ने का अधिकार केवल पुरुषों को है. महिलाओं के मस्जिद में प्रवेश के नियम कोई नए नहीं है. खुद पैगम्बर मोहम्मद से जुड़ी 1400 साल पुरानी हदीसों से यह स्पष्ट होता है.
यही सवाल जब सुप्रीम कोर्ट के जजों ने याचिकाकर्ताओं से जानना चाहा. पूछा गया कि, क्या कहीं और मुस्लिम महिलाओं को मस्जिद में प्रवेश की इजाजत है? इस सवाल का जवाब देते हुए याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि मुस्लिम महिलाओं को पवित्र मक्का की मस्जिद और कनाडा में भी मस्जिद में एंट्री की इजाजत है. वैसे मस्जिद में महिलाओं के प्रवेश की प्रथा का उदाहरण लेने के लिए विदेश जाने की जरूरत नहीं है. पिछले ही साल केरल के मलप्पुरम में महिला इमाम के रूप में 34 वर्षीय जमीता ने जुमे की नमाज अदा करवाई थी.
केरल के मलप्पुरम में इमाम बन लोगों को नमाज पढ़ाती जमीता. ऐसा हिंदुस्तान के इतिहास में पहली बार हुआ है
मस्जिद में जमीता की तस्वीरों ने लैंगिक रुढ़ीवाद की दीवार को धक्का देकर गिरा दिया था. इमाम बनने पर जमीता ने कहा था कि कुरान मर्द और औरत में कोई भेदभाव नहीं करता है तथा इस्लाम में महिलाओं के इमाम बनने पर कोई रोक नहीं है. हालांकि, इस मुकाम तक पहुंचना उनके लिए आसान नहीं था. जमीता को भारी विरोध का सामना करना पड़ा और उन्हें जान से मारने तक की धमकी दी गई.
कह सकते हैं कि इस विचार में अपने आप में कई बुनियादी खामियां हैं. दुनिया में महिलाओं के मस्जिद में नमाज पढ़ने को लेकर जो भी रवायतें हों. भारत में इसके दो स्वरूप दिखते हैं. वरिष्ठ पत्रकार आरफा खानम शेरवानी कहती हैं कि बड़े शहरों की मस्जिदों में महिलाओं को बड़े आराम से नमाज पढ़ते देखा जा सकता है. हां, छोटे शहरों और कस्बों में जरूर महिलाएं मस्जिद नहीं जातीं. लेकिन उन पर ऐसा कोई प्रतिबंध लगाने का कोई तुक नहीं हैं.
यदि इस मसले को महिला-पुरुष समानता के विवाद से बाहर आकर देखें तो एक व्यावहारिक दिक्कत भी है. इस्लाम में पर्दे का बड़ा महत्व है, ऐसे में हर छोटी मस्जिद में महिलाओं के लिए अलग नमाज का प्रबंध करना भी किसी चुनौती से कम नहीं है.
खैर सबरीमाला मामले को ध्यान में रखकर कोर्ट इस मामले पर क्या निर्णय लेगा? भारत में महिलाओं को मस्जिद जाने और वहां नमाज पढ़ने का अधिकार मिल पाएगा, इसका फैसला आने वाला वक़्त करेगा. लेकिन, इस मामले में किसी निष्पक्ष राय तक पहुंचना कोर्ट के लिए भी मुश्किल है, और मौलानाओं के लिए तो चुनौतीपूर्ण है ही.
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