ये मीडिया पर प्रतिबन्ध नहीं, सिर्फ एक 'दोषी' को 'दंड' है!
किसी चैनल की सिर्फ बोलने और सवाल पूछने की जिम्मेदारी नहीं जवाब देने की भी होती है. पठानकोट हमले के समय एनडीटीवी की रिपोर्टिंग में तथ्यों को और अधिक खोलकर प्रस्तुत किया गया था और यही कारण है कि इसपर बैन लगा.
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सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की तरफ से एनडीटीवी को पठानकोट आतंकी हमले के दौरान गैर-जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग के लिए दंडस्वरूप एक दिन के लिए ऑफ़ एयर होने का जबसे नोटिस भेजा गया है, राजनीतिक गलियारे और सोशल मीडिया से लेकर विचारधारा विशेष के बुद्धिजीवी वर्ग तक में हंगामा मचा हुआ है. राहुल गाँधी, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार वगैरह तमाम नेताओं समेत एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया ने इस पर सरकार पर निशाना साधा है. सोशल मीडिया पर तमाम लोग सरकार के इस निर्णय का समर्थन करते हुए दिख रहे तो कुछ ऐसे ज्ञानी पुरुष भी हैं, जिन्हें इसमें आपातकाल के दर्शन हो रहे हैं.
वैसे, इसमें आपातकाल देखने वालों ने या तो आपातकाल के इतिहास को पढ़ा-सुना नहीं हैं अथवा सब जानते-बूझते भी अंजान बनने का ढोंग कर रहे हैं. अगर वे आपातकाल में सत्ता की तानाशाही का जरा भी ध्यान करते तो कभी गैर-जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग के लिए एक चैनल को दिए गए इस छोटे-से कानूनी दंड की तुलना उससे करने की गलती नहीं करते.
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बहरहाल, इस मामले में सभी पक्षों की तरफ से तरह-तरह की बातें हो रही हैं. कटाक्ष हो रहे हैं. यहाँ तक कि खुद एनडीटीवी के बड़े पत्रकार रवीश कुमार अपने प्राइम टाइम में भी इस मामले पर नाटक लेकर हाजिर हो गए, जिसमें अपने शानदार अभिनय क्षमता के जरिए खूब इशारेबाजी की और कटाक्षों का खेल खेले. इतना सब किया, मगर तथ्यों पर तार्किक ढंग से कुछ न कह सके. यूँ कहें तो गलत नहीं होगा कि शोर तो खूब किया, मगर बात कुछ नहीं हुई.
सिर्फ अपने बोलने की आज़ादी, सवाल पूछने की आज़ादी की वकालत ही करते रहे, पर इसपर कुछ नहीं बोले कि सवाल पूछने वालों की भी कुछ जवाबदारी और जिम्मेदारी होती है, जिसे उनके चैनल ने ठीक ढंग से नहीं निभाया था. वो भी तब जब पहले भी 26/11 आतंकी हमले के समय एनडीटीवी की ही एक वरिष्ठ रिपोर्टर पर गैर-जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग का आरोप लग चुका है. फिर भी, उनके चैनल की तरफ से सावधानी नहीं दिखाई गई. रवीश इस मूल मुद्दे से भागते नज़र आए और इसे सिर्फ एक पंक्ति में निपटा दिए कि सभी चैनलों की ही तरह एनडीटीवी ने रिपोर्टिंग की थी, बल्कि अधिक संयमित ढंग से ही की थी.
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जबकि वास्तविकता यह है कि एनडीटीवी की रिपोर्टिंग में तथ्यों को और अधिक खोलकर प्रस्तुत किया गया है. अब ये 'सबसे पहले सबसे आगे' की प्रवृत्ति के कारण हुआ हो या किसी और कारण से, मगर भूल हुई है. ऐसा पठानकोट हमले के दौरान एनडीटीवी के फुटेज देखने से लगता है. बावजूद इसके अगर एनडीटीवी को अपनी सच्चाई और सरकार के गलत होने पर एकदम विश्वास है तो सरकार के उक्त नोटिस के खिलाफ न्यायालय में अबतक क्यों नहीं गया? न्यायालय में जाने में इस चैनल को झिझक क्यों है? सही होगा कि रवीश कुमार प्राइम टाइम में देश को नाटक दिखाने की बजाय इन सवालों पर चर्चा करें. इनका जवाब भी दें. क्या वे सिर्फ सवाल ही पूछते रहेंगे, उनके हिस्से के जवाब कौन देगा? बाकी, जो लोग एनडीटीवी के समर्थन में उतरकर इसे आपातकाल, मीडिया सेन्सरिंग जैसी काल्पनिक बातें कह रहे हैं, उन्हें कौन समझाए कि एनडीटीवी मीडिया नहीं है, सिर्फ एक चैनल भर है. इस चैनल पर भी कोई प्रतिबन्ध नहीं लगा है, सिर्फ एक गैर-जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग के लिए एक दिन प्रसारण रोकने की सजा दी गई है. इसलिए 'दंड' को 'प्रतिबन्ध' कहके कुप्रचारित करना सरासर गलत है. आप ये कह रहे कि एनडीटीवी सरकार के खिलाफ खबर दिखाता है, इसलिए उसपर ये दंड लगा है, तो क्या अन्य मीडिया समूह सरकार के खिलाफ खबरें नहीं करते? ये बात न केवल आधारहीन है, बल्कि अन्य सभी मीडिया समूहों और उनमे काम करने वाले पत्रकारों का अपमान करने वाली भी है. मीडिया पर प्रतिबन्ध पर बोलना हो तो केजरीवाल सरकार द्वारा दिल्ली सचिवालय में पत्रकारों के प्रवेश पर लगाईं गई रोक पर बोलिए. एक दोषी को दिए गए दंड को प्रतिबन्ध कहकर उसका मन मत बढ़ाइए.
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