नये साल में बढ़ते प्रदूषण की चुनौती
देश में बढ़ते प्रदूषण की वजह से फेफड़े, त्वचा, आंख-नाक-कान आदि की बीमारियां बढ़ रही हैं. बच्चों का स्वाभाविक विकास बाधित हुआ है. लोगों के स्वभाव और जीवन-शैली पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है.
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नये साल की खुशियों के बीच कुछ चिंताएं भी हमारे सामने हैं. चिंताओं की पोटली में जो चिंता सबसे भारी और भयानक है, वो है बढ़ते प्रदूषण की चिंता. जल, जमीन और हवा में बढ़ता प्रदूषण, वर्तमान आबादी और आने वाली नस्लों के सिर पर एक भयानक खतरे के तौर पर मंडरा रहा है. हैरानी की बात है कि आबादी का बड़ा हिस्सा प्रदूषण की रोकथाम से पूरी तरह अनजान है. उन्हें इस बात की जानकारी और जागरूकता ही नहीं है कि बढ़ते प्रदूषण पर प्रभावी रोक कैसे लगाई जाए. रोकथाम के जो भी उपाय हैं वो सरकारी या गैर सरकारी संस्थानों के माध्यम से हो रहे हैं. लेकिन सभी नाकाफी साबित हो रहे हैं. वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों के मुताबिक हर बीतते दिन के साथ दुनिया भर में प्रदूषण का काला साया गहराता जाएगा. हमारा देश, दुनिया के अत्यधिक प्रदूषित देशों की गिनती में शुमार है.
पिछले कुछ सालों में प्रदूषण जिस तेजी से बढ़ा है, उसने भविष्य में जीवन के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाना शुरू कर दिया है. दुनिया के सभी देश इससे होने वाली हानियों को लेकर चिंतित हैं. संसार भर के वैज्ञानिक आए दिन प्रदूषण से संबंधित रिपोर्ट प्रकाशित करके आने वाले खतरे के प्रति सचेत करते रहते हैं. बढ़ता प्रदूषण भारत समेत पूरी दुनिया के लिए चिंता का सबब बन चुका है.
बच्चे और बुजुर्ग इसके सबसे ज्यादा शिकार होते हैं
एक ग्लोबल रिसर्च स्टडी में इस बात की ओर इशारा किया गया है कि 2015 में भारत में करीब 5.2 लाख लोग वायु प्रदूषण के कारण समय से पहले की काल के गाल में समा गए. सोमवार को लंदन में द लैन्सट काउंटडाउन 2017 नाम से जारी इस रिसर्च रिपोर्ट में इस बात की ओर संकेत हैं कि ठोस ईंधन और औद्योगिक तथा कोयले से चलने वाले पावर प्लांट के कारण होने वाले प्रदूषण से असामयिक मौतों की संख्या बढ़ी है.
पूरी दुनिया में 87 फीसदी शहर विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी वायु प्रदूषण के नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं. बढ़ती गर्मी के कारण 1990 के बाद पहली बार डेंगू के विषाणुओं के दो तरह के मच्छरों में बदलने की आशंका बढ़ रही है. भारत में 2015 में डेंगू के कारण 3,792 लोग मारे गए थे. पर्यावरण में बदलाव हो रहा है और पूरी दुनिया में इससे स्वास्थ्य संबंधी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. लैन्सट काउंटडाउन के को-चेयर और विश्व स्वास्थ्य संगठन के डायरेक्टर प्रफेसर एंथनी कोस्टीलो ने कहा, श्वायु प्रदूषण की बढ़ती मुश्किलों से निपटने के लिए सभी को ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करना होगा. अगर ऐसा नहीं किया जाता है तो बड़े पैमाने पर लोगों की जान जा सकती है.
भारत की राजधानी दिल्ली बीते कई सालों से स्मॉग की समस्या से लड़ रही है और आधुनिक समय में यह समस्या हर दिन बढ़ती जा रही है. कुछ दिन पहले बच्चों को स्कूल और कर्मचारियों को कार्यस्थलों तक जाने में दिक्कतें हुईं. इसके साथ लोगों को स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का भी सामना करना पड़ रहा है. देश में बढ़ते प्रदूषण की वजह से फेफड़े, त्वचा, आंख-नाक-कान आदि की बीमारियां बढ़ रही हैं. बच्चों का स्वाभाविक विकास बाधित हुआ है. लोगों के स्वभाव और जीवन-शैली पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है. एक अनुमान के अनुसार 2060 तक पूरी दुनिया में वायु प्रदूषण के कारण 135 लाख करोड़ रुपए का नुकसान होगा, जो भारत के मौजूदा सकल घरेलू उत्पाद 138 लाख करोड़ रुपए के लगभग बराबर है. इसके अलावा बीमारियां भी बढ़ेंगी.
प्रदुषण की वजह से क्रिकेट का पहला मैच जिसे रोकना पड़ा
देश को उस समय शर्मसार होना पड़ा जब कुछ दिन पहले अतिशय प्रदूषण के कारण दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में खेले जा रहे क्रिकेट मैच को रोक देना पड़ा, क्योंकि श्रीलंका के खिलाड़ियों को सांस लेने में कठिनाई हो रही थी. देश में आतंकवादियों से सुरक्षा के नाम पर कितना खर्च किया जाता है? लेकिन आश्चर्य की बात है कि प्रदूषण के इस प्रकार बढ़ते रहने के बाद भी हम पर्यावरण के प्रति सावधान नहीं रहते हैं. इस बात का अंदाजा राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण द्वारा इस संबंध में दिल्ली सरकार की निष्क्रियता पर लगाई गई फटकार से होता है. एनजीटी ने 2010 में इस दिशा में एक अधिनियम बनाया था. इसके बाद भी सरकार द्वारा इस दिशा में अपेक्षित सावधानी नहीं बरती जा रही है.
नये साल में हमें यह भी सोचना होगा कि हम जंगल, पहाड़ और पर्यावरण को लेकर सवाल तो खूब उठाते हैं, मगर इसका जवाब कौन देगा? सालों से उठते ये सवाल वहीं-के-वहीं हैं, जबकि गांव से महानगर तक कंक्रीटों के महल जंगल की तरह पसर गये हैं. इसके लिए खुद हम जिम्मेदार हैं. सच तो यह है कि विकास की दौड़ में हम एक ओर सवाल उठाते हैं और दूसरी ओर उन सवालों की वजह भी बनते हैं. हम पेड़ लगा सकते हैं, लेकिन हम ऐसा कर नहीं पा रहे. पहाड़ तो हम उगा भी नहीं सकते, मगर उसे नष्ट करने में अंतिम दम तक लगे हुए हैं. ऐसे में पहाड़ों की घटती ऊंचाई को रोक पाना तो नामुमकिन है ही, पहाड़ों के वजूद को बचाना भी मुश्किल हो गया है. हालात यही रहे, तो हमारी आने वाली पीढ़ी कागज पर बने पहाड़ों में ही उनकी ऊंचाई तलाशती रह जाएगी.
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