तरक्की की राह पर भारतीय गरीब और नेता उलटी राह पर चले
2014 में आईं रंगराजन समिति की सिफारिशों के अनुसार, हमारे गांवों में 32 रुपये प्रतिदिन और शहरों में 47 रुपये प्रतिदिन से ज्यादा कमाने वाला गरीब नहीं है, भले ही वो संकेतात्मक 33 रुपये और 48 रुपये हो. अब वो कैसे अपना जीवन जीता है वो ही जाने.
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अगर हम कहें की भारत की राजनीति गरीबी पर होने वाली राजनीति है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. आजादी के बाद की सोशलिस्ट इकॉनमी या बाद में आने वाली मिक्स इकॉनमी या आर्थिक उदारीकरण के बाद मजबूत होती कैपिटलिस्ट इकॉनमी. गरीबी और गरीब हमेशा ही इसके केंद्र में रहे हैं.
जुलाई में एक आंकड़ा आया था जिसने ये कहा था कि दुनिया में गरीबों की सबसे बड़ी तादाद अब भारत में नहीं बल्कि नाइजीरिया में रहती है. ब्रूकिंग इंस्टीट्यूशन की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 7 करोड़ से ज्यादा लोग अत्यंत गरीबी रेखा के नीचे रहते थे जबकि नाइजीरिया के लिए ये संख्या 8.7 करोड़ लोगों की थी. ये लोग संयुक्त राष्ट्र की अत्यंत गरीबी रेखा, 1.90 डॉलर प्रतिदिन, से भी कम कमाते हैं और जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं, भोजन, कपड़ा और आश्रय जुटाने में भी इन्हें दिक्कत होती है.
भारत में गरीबों की संख्या 27 करोड़ से बढ़कर 36 करोड़ हो गयी है
पर अगर हम भारत के आंकड़ों को देखें तो हमें कोई आराम नहीं मिलता है बल्कि और भी बुरी हालत देखने को मिलती है. हमारे सरकारी आंकड़ों के अनुसार हमारे देश की जनसंख्या का 25.9% गरीब है. मतलब अगर हम लोगों की संख्या देखें तो 36.3 करोड़.
और गरीबी हमारे यहां क्या है? एक नाम है जिसका गरीबी से वास्तव में कोई रिश्ता नहीं है.
2014 में आईं रंगराजन समिति की सिफारिशों के अनुसार, हमारे गांवों में 32 रुपये प्रतिदिन और शहरों में 47 रुपये प्रतिदिन से ज्यादा कमाने वाला गरीब नहीं है, भले ही वो संकेतात्मक 33 रुपये और 48 रुपये हो. अब वो कैसे अपना जीवन जीता है वो ही जाने.
किसी भी समाज के होने का मतलब उसकी प्रगति का भी होना है लेकिन हमारी नयी गरीबी रेखा के मुताबिक़ गरीबों की संख्या 27 करोड़ से बढ़कर 36 करोड़ हो गयी है. पर ये कोई सदाशयता नहीं थी बल्कि आंकड़ों का खेल था. गरीब वहीं थे, बस आंकड़े बढ़ गए.
हमारे गांवों में 32 रुपये प्रतिदिन और शहरों में 47 रुपये प्रतिदिन से ज्यादा कमाने वाला गरीब नहीं है
एक परिवार में कितने लोग होते हैं, पांच या तीन मान लीजिये. अब हर आदमी उसमें कमा तो सकता नहीं है. बच्चे हो गए या बूढ़े हो गए या बीमार हो गए. क्या एक गरीब परिवार जो 32 रुपये प्रतिदिन और मान लीजिये 100 रुपए प्रतिदिन कमा पाता है, उसमें गुजारा कर सकता है? जबकि उसको उस दिन की भी चिंता रहती है जब कोई कमाई नहीं होती है.
गरीब नेताओं के भाषणों का मुख्य मुद्दा रहते हैं.
सुरेश तेंदुलकर समिति की 2011-12 की सिफारिशों के अनुसार हमारी गरीबी रेखा गांवों में 27 रुपये प्रतिदिन और शहरों में 33 रुपये प्रतिदिन निर्धारित की गयी थी. इस समिति की सिफारिशों के अनुसार हमारी कुल जनसंख्या के 21.9% लोग गरीब थे.
गरीब, गरीब ही रह गए और नेता अमीर हो गए
खैर, यहां गरीबी पर आंकड़े देने का मेरा कोई मन नहीं है. गरीबी और गरीबों पर हमेशा हमारे यहां राजनीति इसलिए होती रही है ताकि गरीब बने रहें. तभी तो हमारे अर्थशास्त्री और नेता आजादी के 70 साल बाद भी ये नहीं परिभाषित कर पाए हैं कि गरीब कौन है जबकि हमारे नेता अमीर होते गए.
स्थिति तो यहां तक पहुंच गयी है कि अब तो ये माना जाता है कि आप अगर ऊंची रसूख वाले नहीं हैं, पैसे से या उस हैसियत से जो आपको सत्ता के मुफीद बनाती है, तो आप राज्य सभा के बारे में सोच भी नहीं सकते हैं. और लोक सभा, हमारे संसद का निचला सदन, यहां भी अमीर ही निवास करते हैं.
आंकड़ों और अनुमानों के मुताबिक़ 2009 की संसद में हमारे कुल सांसदों की नेट वर्थ 3000 करोड़ थी. हमारे 790 सांसदों के हिसाब से प्रति सांसद लगभग 3 करोड़ 80 लाख. अगर 2014 में बनने वाली लोक सभा की बात करें तो हमारे 442 सांसद करोड़पति थे और सबसे अमीर सदस्य की संपत्ति 683 करोड़ थी.
गरीब, गरीब ही रह गए और नेता अमीर हो गए
आंकड़ें हैं. कहा जाता है कि बिना सन्दर्भ के उनका कोई मतलब नहीं होता. ये अमीर सांसद हैं जो गरीबों को उबारने की बातें करते रहते हैं. जबकि किसान पैसे की कमी की वजह से खुदकुशी करता रहता है, गरीब पेट्रोल और डीजल की कीमतों में बढ़ोत्तरी देखता रहता है, इलाज के लिए कायदे के अस्पताल नहीं हैं, बच्चों को पढ़ाने के लिए ढंग के स्कूल नहीं हैं, कई परिवार तो अपने बच्चों को स्कूल भेज ही नहीं पाते हैं. कई परिवारों को तो दो टाइम खाना भी दिक्कत के दिनों में दिक्कत से मिल पाता है. वो तो प्रतिदिन 32 और 47 रुपए कमाने में भी फंस कर रह जाते हैं.
गरीबी के ये आंकड़े जिसमें आज के दिन आदमी भर पेट दो समय भोजन भी नहीं कर सकता, बताते हैं गरीबी हमारे यहां कितनी विकट है. लेकिन हमारे यहां के ज्यादातर नेता अमीर हैं.
2019 लोक सभा चुनाव का समय पास आ गया है. 36 करोड़ घोषित गरीबों पर और जो उनसे ऊपर हैं, जो गावों में 32 रुपये से ज्यादा और शहरों में 47 रुपये से ज्यादा कमाते हैं, के ऊपर राजनीति अब और जोरों से होगी. गरीबों की बातें फिर से सत्ता के केंद्र में होंगी चनावों के माहौल में.
गरीब वहीं रहेंगे, बस आंकड़े बढ़ जायेंगे.
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