प्रकृति के 'अनुपम' सारथी
प्रसिद्ध कवि और पर्यावरणविद अनुपम मिश्रा का निधन हो गया है. वे प्रकृति के अनुपम सारथी थे. वे किताबों में पढ़कर वातावरण को बचाने वाले विद्वान नहीं थे बल्कि प्रकृति को लोक जीवन का हिस्सा बनाकर आगे बढ़ने वाले सहज-सुलभ संत थे.
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पिछले 2 अक्टूबर को गांधी शांति प्रतिष्ठान में अनुपम मिश्रा जी से मुलाकात हुई तो वे बिल्कुल सहज दिखे, जैसा पहले दिखते थे. प्रणाम किया तो उलाहना दी कि आप तो आते ही नहीं हो. थोड़ी देर इधर-उधर की बातें हुईं. तब वाह्य काया को देखकर लगा नहीं कि ये चोला बहुत जल्द बदलने वाला. आज जब कुमार प्रशांत जी के मोबाइल पर संदेश आया तो समझ में नहीं आया कि ऐसा कैसे हो गया. फिर पता चला कि अनुपम जी को कुछ समय से प्रोस्टेट कैंसर था. कैंसर मौत का दूसरा नाम है और इच्छाशक्ति जिंदगी का.
अनुपम जी से पहली मुलाकात 1999 के दिसंबर में हुई थी. राष्ट्रीय सहारा की शताब्दी अंक के लिए उनका इंटरव्यू करना था. वे प्रकृति के अनुपम सारथी थे. वे किताबों में पढ़कर वातावरण को बचाने वाले विद्वान नहीं थे बल्कि प्रकृति को लोक जीवन का हिस्सा बनाकर आगे बढ़ने वाले सहज-सुलभ संत थे. पहली मुलाकात में ही उन्होंने अपनी किताब 'आज भी खरे हैं तालाब' किताब मुझे दी. एक बैठकी में जिस किताब को मैं पढ़ गया, उनमें से एक है वो पुस्तक.
ये कम लोग जानते हैं कि वे प्रकृति के आंगन में जीने-मरने वाले कवि भवानी प्रसाद मिश्र के पुत्र थे. |
जब पहली बार उनसे मिला तो उनकी पहचान थी कि वो पर्यावरण के अद्भुत प्रेमी हैं. एक दो बार मिलना जुलना हुआ तो लगा कि दिल्ली के सत्ता प्रेमी माहौल में वो एक संत सरीखा व्यक्ति थे. बार-बार मिलने पर यह लगा कि उनमें विलक्षण राजनीतिक समझ थी, जबकि खुद को राजनीति से दूर रखते थे. वे उन्माद की राजनीति को देश के लिए घातक मानते थे लेकिन उनको ये भी लगता कि जैसी राजनीति चल रही है, उसमें उन्माद और कट्टरता दिन पर दिन बढ़ती जाएगी. आज उनकी समझ सही साबित हो रही है.
आक्रोश, गुस्सा और कई बार भाषा की टूटती मर्यादा के विरोध प्रदर्शन को सबसे मजबूत हथियार माना जाता है. अनुपम जी कभी इससे सहमत नहीं हुए. यहां तक कि अपने पारिवारिक मित्र प्रभाष जोशी की भाषा पर भी सवाल उठाते थे. वीपी लहर में प्रभाष जोशी जब चंद्रशेखर को औरतखोर तक लिखते थे, तो यह भाषा अनुपम जी को पसंद नहीं आती थी. उन्होंने खुद मुझसे कहा कि वे अक्सर प्रभाष जी से कहा करते थे कि ऐसी भाषा नहीं होनी चाहिए कि बाद में उससे मिलने पर शर्मिंदा होना पड़े.
एक बार गांधी शांति प्रतिष्ठान में वीपी सिंह कश्मीर के मुद्दे पर कुछ बोल रहे थे. मैंने एक पर्ची लिखकर भेजी कि जब आप प्रधानमंत्री थे तो जगमोहन को जम्मू और कश्मीर का राज्यपाल बनाने की क्या जरूरत थी और इसके पीछे कौन सी शक्ति काम कर रही थी. उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. मैंने दोबारा इसी सवाल की पर्ची बढ़ा दी. फिर कोई जवाब नहीं आया. मैंने अनुपम जी से कहा कि कश्मीर की मुश्किल को बीजेपी के इशारे पर उलझाने वाले ये जनाब कोई जवाब नहीं दे रहे हैं. अपनी बालसुलभ हंसी के साथ बोले- विचित्रमणि, आप भी किनसे क्या उम्मीद रखते हैं.
ये कम लोग जानते हैं कि वे प्रकृति के आंगन में जीने-मरने वाले कवि भवानी प्रसाद मिश्र के पुत्र थे. जब उनसे मिलना जुलना होने लगा तो एक बार बातचीत में ऐसी ही प्रभाष जोशी की जुबानी भवानी प्रसाद मिश्र के बारे में कुछ कहना सुनना होने लगा. इसपर वे भवानी जी की कविता और जीवन के बारे में बताने लगे तो मैंने कहा कि आप तो बहुत गहराई से उन्हें जानते हैं. थोड़ा सकुचाते और मुस्कुराते हुए बोले- मैं उनका बेटा हूं.
वे प्रकृति के पुत्र थे. सूखती नदियों को जिंदा करने वाले एक यायावर, जिनका जाना बहुत दुखद है. उनका जाना गांधी शांति प्रतिष्ठान में एक शू्न्य पैदा करेगा. लेकिन उनकी प्रकृति और प्रवृति उस शून्य को भरेगी. भगवान ने ऐसे ही नहीं कहा था- न हन्यते..हन्यमाने शरीरे....
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