निजता के अधिकार की पूर्णता के लिए ही 'राइट टू बी फॉरगॉटन' है!
न्यायालय ने सोशल मीडिया की जटिलताओं का जिक्र करते हुए इसे मानवता के लिए एक चुनौती बताया. गूगल बाबा तो महान है, सब कुछ बता जो देते हैं. भले ही प्रमाणित हो या नहीं हो! बाबा चाहें तो किसी चोर को साहूकार बता दें और किसी साहूकार को चोर.
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देश के अलग-अलग उच्च न्यायालय राइट टू बी फॉरगॉटन की महत्ता स्थापित करते रहे हैं.जिसके अनुरूप सारगर्भित टिप्पणियां भी की गई हैं. हालांकि हमारे देश में Right To Be Forgotten को समर्पित कोई विशेष प्रावधान नहीं है, लेकिन निजी डेटा संरक्षण विधेयक2019 में इस बाबत प्रावधान बनाये गए थे! अब चूंकि सरकार ने विधेयक ही वापस ले लिया है तो जिक्र करना ही बेमानी है. हां, सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2020 टुकड़ों में इस अधिकार का संरक्षण करता है. मसलन अनाधिकृत रूप से डाटा संग्रहण पर रोक लगाता है. RTBF (राइट टू बी फॉरगॉटन) इंटरनेट, सर्च इंजन, वेबसाइटों या किसी अन्य पब्लिक डोमेन पर सार्वजनिक रूप से उपलब्ध व्यक्तिगत जानकारी को उस स्थिति में हटाने का अधिकार है जब उक्त जानकारी की वस्तुस्थिति में परिवर्तन किया जा चुका हो या हो चुका हो या जानकारी प्रासंगिक ना ठहरती हो. फेमस Google Spain Vs AFPD and Mario Costeja Gonzalez के मामले में कोर्ट ऑफ़ जस्टिस ऑफ़ द यूरोपियन यूनियन ने वर्ष 2014 में RTBF बाबत महत्वपूर्ण निर्णय दिया था जिसके बाद इस अधिकार के लिए दुनिया भर में मांगें उठने लगी थी और इसी सिलसिले में कई देश नए कानूनों का प्रावधान कर भी चुके हैं.
राइट टू बी फॉरगॉटन एक ऐसा विषय है जिसपर कोर्ट के भी अपने अलग मत हैं
साल 2017 में पुट्टास्वामी केस के लैंडमार्क जजमेंट में सर्वोच्च न्यायालय ने निजता के अधिकार (राइट टू प्राइवेसी ) को मौलिक अधिकार के रूप में नामित किया और दो टूक स्पष्ट किया कि किसी भी व्यक्ति को अपने अनुसार अपनी निजी जानकारी के संरक्षण का अधिकार है. भुलाये जाने का अधिकार इसी निजता के अधिकार में निहित है और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने समय समय पर इंटरनेशनल कानून का हवाला देते हुए माना भी है लेकिन विडंबना है कि स्पष्ट फैसले नहीं दिए हैं.
कुल मिलाकर आदर्श रखे गए हैं लेकिन उन्हें अमल में नहीं लाया गया. इसके अतिरिक्त कई अन्य केसों में गूगल समेत अन्य प्लेटफार्मों के गैर-नैतिक ढंग से डाटा को एकत्रित करना तथा व्यापारिक लाभ के लिए प्रयोग करना संविधान के अनुच्छेद 21का उल्लंघन माना गया है. ये मानने से इंकार नहीं किया जा सकता कि पब्लिक डोमेन में सूचनाएं टूथपेस्ट में से निकले पेस्ट की तरह होती है जिनका वापस जाना लगभग असंभव है. शायद यह भी एक हिचक रही होगी न्यायालय के सम्मुख !
वर्ष 2020 में उड़ीसा हाई कोर्ट के समक्ष एक व्यक्ति की जमानत याचिका आई जिसने अपनी गर्लफ्रेंड के साथ सहमति से शारीरिक संबंध बनाते हुए चुपके से रिकॉर्ड कर लिया था. तब माननीय न्यायाधीश पाणिग्राही ने इंटरनेट पर 'रिवेंज पोर्न' स्टफ पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए कहा, 'कोई भी व्यक्ति, खासकर कोई महिला, अपने चरित्र के दागदार पहलुओं का प्रदर्शन नहीं करना चाहेगी... उन्हें अपने खिलाफ आपत्तिजनक सामग्री परोसे जाने पर राइट टू फॉरगॉटन को इस्तेमाल करने का अधिकार मिलना चाहिए.'
उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के पुट्टास्वामी केस का हवाला देते हुए कहा कि 'राइट टू बी फॉरगॉटन' को 'राइट टू प्राइवेसी' के अंदर ही रखा जाना चाहिए जो संवैधानिक अनुच्छेद 21 के तहत मिले सम्मानजनक जीवन के अधिकार (राइट टू लाइफ) को भारत के हर नागरिक को प्रदान करता है. जस्टिस पाणिग्रही ने उसे जमानत देने से इनकार करते हुए कहा, 'अगर ऐसे मामलों में राइट टू बी को मान्यता नहीं दी गई तो कोई भी व्यक्ति महिला की इज्जत तार-तार कर देगा और फिर उसका साइबर स्पेस में अबाधित दुरुपयोग करेगा.'
उच्च न्यायालयों के समक्ष RTBF क्वालीफाई के अनेकों मामले आते रहे हैं और पीड़ित/पीड़िता को महत्वपूर्ण पुट्टास्वामी मामले को बतौर नज़ीर बनाते हुए समुचित राहत भी मिलती रही है. लेकिन राहत कितनी कारगर हो पाती हैं, सवाल बना हुआ है. स्पष्टता दो बातों पर नहीं हो पाई है और लगता नहीं है कि होगी भी ! ऑन ए लाइटर नोट कहें तो 'केस फॉर' बनाम 'केस अगेंस्ट' भी तो जरूरी है ना !
कहने का मतलब RTBF कानून बन भी जाए तो लागू करने में बहुत सी चुनौतियां, जो आज भी हैं, मौजूद रहेंगी ! कोई आश्चर्य नहीं होगा कि अदालतें अपने फैसलों में भी एम्बिगुइटी बनाये रखेंगी या कहें तो ऐसी उनकी मजबूरी होगी जिससे पीड़ित को पूर्ण न्याय मिल पाये ! एक चुनौती है इंडियन एविडेंस एक्ट, 1872 जिसके तहत केस के रिकॉर्ड को सार्वजनिक तौर पर सुरक्षित रखना अनिवार्य है ताकि न्यायिक कार्यवाही का लेखा जोखा रखा जा सके.
ऐसे में भूल जाने का अधिकार न्यायसंगत नहीं ठहरता. हालांकि इस चुनौती को अदालतें निपट सकती हैं जैसा हाल ही में मद्रास हाई कोर्ट ने एक याचिका में किया. एक व्यक्ति पर आईपीसी की धारा 420 (धोखाधड़ी) और 376 (बलात्कार) के तहत अपराधों का आरोप लगाया गया था और बाद में सभी आरोपों से बरी होकर कोर्ट के फैसले में अपना नाम संशोधित कराने के लिए उस शख्स ने उच्च न्यायालय का रुख किया.
न्यायमूर्ति एन आनंद वेंकटेश ने कहा कि एक आरोपी जिसे अंततः सभी आरोपों से बरी कर दिया गया है, वह अपने निजता के मौलिक अधिकार की रक्षा के लिए उस अपराध के संबंध में सभी न्यायालय के आदेशों में अपना नाम संशोधित कराने का हकदार है. याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि हालांकि उन्हें सभी आरोपों से बरी कर दिया गया है, लेकिन जो कोई भी गूगल सर्च में उसका नाम टाइप करता है, वह दुर्भाग्य से संबंधित निर्णय तक पहुंचने में सक्षम होता है जिसमें उसे एक आरोपी के रूप में लेबल किया गया है.
यह उनकी प्रतिष्ठा के लिए एक गंभीर बाधा का कारण बन रहा है और तदनुसार उन्होंने संबंधित निर्णय में अपना नाम संशोधित कराने के लिए न्यायालय की अनुमति मांगी. निःसंदेह मौजूदा कानून पीड़ित के रूप में सिर्फ महिला और बच्चों की पहचान की सुरक्षा करता है और तदनुसार सुनिश्चित करता है कि उनके नाम किसी न्यायालय द्वारा पारित किसी भी आदेश में परिलक्षित नहीं किए जाएंगे. इस तरह की सुरक्षा एक आरोपी व्यक्ति को, जिसे अंततः सभी आरोपों से मुक्त कर दिया गया है, अभी तक तो नहीं दी गयी थी.
मद्रास हाई कोर्ट ने माना कि पिटीशनर ने प्रथम दृष्टया मामला बनाया है और वह संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित निजता के अपने मौलिक अधिकार का हकदार है जैसा कि पुट्टासामी बनाम भारत संघ के सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले में कहा गया है. न्यायालय ने सोशल मीडिया की जटिलताओं का जिक्र करते हुए इसे मानवता के लिए एक चुनौती बताया. गूगल बाबा तो महान है, सब कुछ बता जो देते हैं भले ही प्रमाणित हो या नहीं हो !
बाबा चाहे तो किसी चोर को साहूकार बता दे और किसी साहूकार को चोर बता दे क्योंकि दुनिया में हर कोई अपने आप को सर्वोत्तम संभव तरीके से चित्रित करने की कोशिश कर रहा है और तदनुसार ही डाटा डाल रहा है , क्रिएट कर रहा हैं जिसे बाबा दुनिया को परोस दे रहा है ! देखना दिलचस्प होगा मामले का अंतिम फैसला क्या होता है ; सिर्फ उच्च न्यायालय नहीं , उच्चतम न्यायालय का भी चूंकि अंततः फैसले की अपील होगी ही !
दूसरी चुनौती भी है - सूचना का अधिकार, प्रेस की स्वतंत्रता , अभिव्यक्ति की आजादी आदि कई कानूनों का भी RTBF से टकराव संभव है. इस संदर्भ में हाल ही कर्नाटक हाई कोर्ट के समक्ष आई याचिका का जिक्र लाजमी है जिसमें माननीय अदालत ने अंतरिम रिलीफ भी पीड़ित को दी है. उच्च न्यायालय ने इसी बुधवार को17 मीडिया आउटलेट्स को दो याचिकाकर्ताओं के नाम प्रदर्शित करने वाले लेखों, वीडियो और टिप्पणियों को अस्थायी रूप से ब्लॉक करने का निर्देश दिया है क्योंकि उन्हें आरोपों से बरी कर दिया गया था.
इन मीडिया आउटलेट्स में फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब, गूगल, याहू और भारतीय कानून शामिल हैं. 'In the year 2018, the petitioners were acquitted of all charges against them after facing a trial. They have now approached the Court seeking a direction to the respondents to delete the news articles, videos, comments etc. claiming that the continued publication and display of the aforesaid on the websites has caused the petitioners immense professional setbacks, violation of their privacy, immense mental agony and trauma and infringes their fundamental right.'
तो बात है कि भुलाये जाने का अधिकार तो मिले लेकिन निगरानी के साथ! हवाला दिया जाता है यूरोप के अनुभवों का जहां का डाटा प्राइवेसी लॉ नागरिकों को फेसबुक, यूट्यूब समेत किसी भी संस्था से बोलकर या लिखकर संबंधित कंटेंट हटाने का आग्रह करने का अधिकार देता है लेकिन इस आग्रह पर ऑनलाइन प्लेटफॉर्म विचार करेगा कि क्या वह कंटेंट हटाने को बाध्य है या नहीं.
उदाहरण के तौर पर गूगल ने फ्रांस की डेटा अथॉरिटी सीएनआईएल के खिलाफ दायर याचिका पर कहा कि राइट टू बी फॉरगॉटन का अबाधित इस्तेमाल सूचना प्राप्त करने के नागरिकों के अधिकार का हनन कर सकता है.
निष्कर्ष यही है कि जहां कानूनों का परस्पर टकराव हो और हर कानून अपने आप में महत्वपूर्ण हो तो संघर्ष की सीमा तय की जानी आवश्यक है; या तो विधायिका कानून बना दे या फिर उच्चतम न्यायालय तमाम इंटरेस्टेड पार्टियों को सुनकर स्वविवेक से आवश्यक दिशा निर्देश के साथ संविधान के अनुरूप व्यवस्था बना दें! ठेठ भाषा में कहें तो तुम मुझे भूल जाओ मेरा हक़ हो सकता है लेकिन शर्तें लागू होंगी.
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