सेंटिनल आदिवासियों से मिल चुका शख्स एक अलग कहानी बताता है
अंडमान के नॉर्थ सेंटिनल आइलैंड पर अभी तक सिर्फ एक ही शख्स सही मायने में जाकर उन आदिवासियों से जुड़ पाया है. हिंदुस्तान के इस जाने माने व्यक्ति ने अपने एक्स्पीरियंस को साझा किया है.
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अंडमान के सेंटिनल आदिवासियों द्वारा एक अमेरिकी मिशनरी को मार देने की खबर जैसे ही फैली वैसे ही दुनिया भर में इसे लेकर प्रतिक्रियाएं तेज़ हो गईं. सेंटिनलीज आदिवासियों के इस द्वीप में किसी भी बाहरी आदमी का जाना प्रतिबंधित है क्योंकि आदिवासी किसी भी बाहरी व्यक्ति को मार डालते हैं. वो किसी भी हालत में अपने द्वीप में किसी अन्य आदमी को बर्दाश्त नहीं करते.
अमेरिकी मिशनरी जॉन एलन चाऊ गैरकानूनी तरीके से इनके पास गया और दोस्ती करने की कोशिश की. जॉन को लगता था कि वो इन सेंटिनलीज आदिवासियों को जीसस के बारे में बताएगा और उन्हें ईसाई धर्म की ओर आकर्षित करेगा. जॉन ने मछुआरों को 25000 रुपए भी दिए ताकी वो गैरकानूनी तरह से जॉन को आदिवासियों के पास तक ले जा सके. मछुआरा थोड़ी दूर पर जाकर रुक गया और वहां से जॉन अपनी कयाक के जरिए द्वीप तक पहुंचा. पहले दिन तो वो वापस आ गया, लेकिन दूसरे दिन फिर जॉन ने यही किया और इस बार वो वापस नहीं आया. मछुआरे ने द्वीप पर देखा कि जॉन की लाश को आदिवासी घसीटते हुए ले जा रहे हैं.
जॉन के लिए वहां जाना जानलेवा साबित हुआ, लेकिन एक ऐसा शख्स भी है जो उन आदिवासियों से मिला है और वहां गया है. वो है मानव वैज्ञानिक (anthropologist) टी एन पंडित. पंडित ने अमेरिकी टूरिस्ट के शरीर को वापस लाने के लिए कुछ टिप्स दी हैं.
इंसेट में बाएं जॉन एलन चाऊ, दाएं टी एन पंडित
पंडित के हिसाब से उन आदिवासियों के पास जाने से पहले नारियल, लोहे के पीस और बहुत सारी सावधानी चाहिए. 1966 से 1991 के बीच पंडित एक लौते ऐसे एंथ्रोपोलॉजिस्ट रहे हैं जो अंडमान के उन आदिवासियों से मिलकर आए हैं. पंडित के हिसाब से, 'अगर छोटी टुकड़ी वहां जाए और दोपहर या शाम को वहां जाए जब आदिवासी बीच के पास ज्यादा नहीं रहते हैं. उन्हें नारियल और लोहे के टुकड़े तोहफे में दिए जा सकते हैं. नाव को इतना दूर रखें कि उनकी शूटिंग रेंज तक नहीं पहुंच पाए. ऐसे में मुमकिन है कि वो हमें अमेरिकी टूरिस्ट की बॉडी लेने दें. हां वहां के आसपास के मछुआरों की भी मदद ली जा सकती है.'
इंडियन एक्सप्रेस को दिए गए एक इंटरव्यू में टी एन पंडित ने ये सब कहा. पंडित अब 83 साल के हो चुके हैं और अकेले वही ऐसे इंसान माने जाते हैं जो इस ट्राइब के साथ मिलकर आए हैं. पंडित मिनिस्ट्री ऑफ ट्राइबल अफेयर्स से 2015 तक जुड़े हुए थे. उनका कहना है कि 80-90 सेंटिनलीज़ आदिवासी अभी भी अंडमान में रहते हैं और वो बाहरी दुनिया से बिलकुल अलग रहना चाहते हैं.
पंडित का मानना है कि आदिवासियों को गलत मानने से बेहतर है कि हम खुद को देखें. हम उनके इलाके में घुसने की कोशिश कर रहे हैं वो नहीं. वो तो बस खुद को बचा रहे हैं. पंडित के मुताबिक, 'मैंने सुना कि उन्होंने पहले भी एक बार उन आदिवासियों ने जॉन पर तीर चलाए गए थे. उसे समझ जाना चाहिए था कि ये आसान नहीं है और सावधान रहना चाहिए था. दोबारा इतनी जल्दी जाना बहुत गलत निर्णय था.'
आधिकारिक तौर पर जॉन ने किसी से भी अनुमति नहीं मांगी थी. न ही फॉरेस्ट डिपार्टमेंट से, न ही लोकल पुलिस से और न ही किसी अन्य अधिकारी से जॉन ने परमीशन मांगी थी. 1966 से 1991 के बीच टी एन पंडित की टीम 7 से 8 लोगों के साथ जाती थी और कई बार सेंटिनल आइलैंड पर शिरकत करती थीं.
कैसा था पहला सफर-
पंडित ने बताया कि वो पहली बार जब सेंटिनल आइलैंड गए थे तो उनकी टीम उन आदिवासियों के घरों को देखने में कामियाब रही थी. वहां 18 झोपड़ियां, तीर-कमान और भाले थे. जब वो वहां से बाहर आए तो वो नारियल छोड़कर गए क्योंकि वो उस आइलैंड पर नहीं उगता है. साथ ही उन्होंने कुछ लोहा भी छोड़ा ताकि वहां के आदिवासी तीर बना सकें.
1991 तक ऐसा समय आया कि उस द्वीप पर बसने वाले आदिवासियों ने पंडित पर भरोसा करना शुरू कर दिया और उनके और उनकी टीम के हाथ से नारियल लेना शुरू कर दिया था.
पंडित और उनकी टीम का एक सदस्य सेंटिनलीज आदिवासियों को नारियल देते हुए. ये जनजाति संरक्षित है और इसलिए उनकी तस्वीरें सार्वजनिक तौर पर दिखाना सही नहीं है.
जब एक छोटे बच्चे ने निकाल ली थी चाकू-
पंडित से ये सवाल किया गया कि क्या सेंटिनलीज आदिवासियों ने जॉन को मारा होगा? पंडित का जवाब था, 'मैं यकीन तो नहीं करना चाहता, लेकिन हां ऐसा हो सकता है. जब हम इन आदिवासियों से मिलने गए थे तब एक बार उनकी टीम उन्हें पीछे छोड़कर थोड़ी दूर चली गई थी. तब एक छोटे सेंटिनलीज आदिवासी बच्चे ने मेरे चश्मे को देखना शुरू कर दिया. जब मैंने उसे वापस लेने की कोशिश की तो उसने चाकू निकाल लिया. मैं फौरन पीछे हट गया.'
पंडित का कहना है कि उनसे मुलाकात करने के बारे में सोचना और उन्हें दोष देना सही नहीं है. अगर लोग उस द्वीप पर ज्यादा जाएंगे तो वहां ऐसी बीमारियां फैलने का भी खतरा है जो पहले कभी उन आदिवासियों को नहीं हुईं और साथ ही साथ ये उनकी सभ्यता को भी नुकसान पहुंचाएगा.
"Lord, is this island Satan's last stronghold where none have heard or even had the chance to hear your name?" (भगवान, क्या ये द्वीप शैतान का आखिरी पड़ाव है जहां किसी ने भी आपका नाम सुना नहीं और न ही कभी सुन पाएगा.) ये जॉन ने अपनी डायरी में लिखा था. जहां उसने लिखा था कि उसे डर है कि कहीं सेंटिनल आदिवासी उसे मार न डालें. कहीं वो अपनी जिंदगी की आखिरी शाम न देख रहा हो. ये किस तरह का व्यवहार हुआ? हम किस आधार पर उन आदिवासियों को जंगली कह रहे हैं. वो आदिवासी जिन्हें कथित तौर पर भगवान का प्रचारक शैतान कह रहा है. उनके घर को शैतान का द्वीप कह रहा है उसे क्या वाकई ये करना चाहिए था कि वो किसी के घर पर इस तरह से घुस जाए ये समझने के बाद भी कि आदिवासी उसपर तीर चलाएंगे और आदिवासी नहीं चाहते कि उनके घर में कोई आए?
अगर देखा जाए तो पंजित का कहना गलत नहीं है. वो आदिवासी जिन्हें जरा भी इस बात का इल्म नहीं है कि बाहरी दुनिया कैसी है और किस तरह से लोग जीते हैं, जिन्हें हमारी बेसिक चीज़ों के बारे में भी नहीं पता उन्हें ईसाई धर्म का पाठ पढ़ाने के लिए जाना और कहना कि जीजस उनसे प्यार करते हैं ये उन्हें कहां समझ आएगा. वो तो खुद को केवल बचाना चाहते थे. शेर के सामने अगर जाएंगे तो ये शेर को कैसे समझाएंगे कि आप उसे ज्ञान की बात बताने आए हैं न की गोली मारने.
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