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Updated: 01 दिसम्बर, 2022 09:28 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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90 के दशक में जब कश्मीरी पंडितों पर इस्लामिक कहर बरसा था. उससे पहले घाटी की दीवारों पर 'रालिव, गालिव, सालिव' जैसे नारे खूब लिखे नजर आते थे. मस्जिद के लाउडस्पीकरों से और भी बहुत सी भयावह चेतावनियां दी जाती थीं. जो आगे चलकर कश्मीरी पंडितों के नरसंहार और पलायन का कारण बनीं. वैसे, कश्मीरी पंडितों के साथ हुई इस ज्यादती को बताने की वजह देश की राजधानी दिल्ली में स्थित जेएनयू है. सोशल मीडिया पर जेएनयू कैंपस की कुछ तस्वीरें बहुत तेजी से वायरल हो रही हैं. दरअसल, इन तस्वीरों में वैसे ही नारे लिखे नजर आ रहे हैं. जो किसी जमाने में कश्मीरी पंडितों के लिए गए थे. जेएनयू के दीवारों पर 'ब्राह्मणों-बनियाओं...हम आ रहे हैं बदला लेने', 'यहां खून बहेगा', 'ब्राह्मणों कैंपस छोड़ो' जैसे दर्जनों नारे लिख दिए गए हैं. लेकिन, यहां सवाल उठना लाजिमी है कि देश की इतनी 'गौरवशाली' यूनिवर्सिटी JNU में ब्राह्मणों के खिलाफ इतना जहर आया कहां से?

 so much hate against Brahmins in glorious University of the country JNU Campus defaced with Anti Upper Caste Slogansवामपंथी विचारधारा का गढ़ कहे जाने वाले जेएनयू में सिर्फ सवर्णों से ही घृणा करना नहीं सिखाया जाता है.

क्या आपको विश्वास होगा कि शिक्षा का एक ऐसा मंदिर जिसकी ख्याति दुनियाभर में फैली है. वहां के छात्र ब्राह्मणों के खिलाफ जहर घोलेंगे. देश के न जाने कितने वर्तमान नेताओं ने जिस जेएनयू से पढ़ाई की है. वहां के छात्र सवर्णों से बदला लेने और खून बहाने की चेतावनी दे रहे हैं. दरअसल, ये वही जेएनयू है. जहां कुछ साल कन्हैया कुमार, उमर खालिद सरीखे छात्र नेता 'आजादी' के नारों से लेकर आतंकी अफजल की मौत का मातम मनाते थे. वैसे, ये तमाम चीजें जेएनयू में अभी भी बदस्तूर जारी हैं. इसमें फर्क महज इतना आया है कि जो चीजें पहले खुलेआम की जाती थीं. अब उन्हें अंदरखाने अंजाम दिया जाता है. और, कन्हैया-खालिद जैसे कई छात्रों के भीतर का ये गुस्सा अब सोशल मीडिया या टीवी चैनलों से ज्यादा जेएनयू की दीवारों या शाहीन बाग जैसे सरकार विरोधी प्रदर्शनों में नजर आता है. 

दरअसल, वामपंथी विचारधारा का गढ़ कहे जाने वाले जेएनयू में सिर्फ सवर्णों से ही घृणा करना नहीं सिखाया जाता है. स्त्रियों को पुरुषों से नफरत करना सिखाने के लिए फेमिनिज्म का ज्ञान बांटा जाता है. मूल निवासियों के नाम पर लोगों के बीच भेदभाव करने के लिए आर्यों के आक्रमण की थ्योरी गढ़ी जाती है. हिंदू धर्म को हिकारत की नजर से देखना सिखाया जाता है. अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर हिंदू देवी-देवताओं के अपमान के तरीके सिखाए जाते हैं. संवैधानिक अधिकारों के नाम पर देश विरोधी बातों को तर्कसम्मत घोषित करना सिखाया जाता है. और, जब नफरत का कांटा अपने चरम पर पहुंच जाता है. तो, ये वामपंथी छात्र सभी सीमाओं को लांघ जाते हैं. जेएनयू की हालिया तस्वीरें इसकी एक बानगी भर हैं. और, ये सब सिर्फ और सिर्फ वामपंथी विचारधारा के पोषण से हो रहा है.

वामपंथी विचारधारा से लोग वोक समुदाय में तब्दील हो जाते हैं. जो ऋचा चड्ढा की तरह भारतीय सेना की खिल्ली उड़ाने से भी नहीं कतराते हैं. और, आलोचना होने पर पीड़ित होने की बात करने लगते हैं. ये वामपंथी विचारधारा ऐसी है, जो लोगों को ऐसे नारों से उकसाती है. लेकिन, जैसी ही इसी भाषा में इसका प्रतिवाद होता है. तो, खुद को पीड़ित बताने लगती है. दरअसल, ये सिर्फ देश से बल्कि वहां रहने वाले हर उस शख्स से नफरत करती है. जो इस विचारधारा को नहीं मानता है. और, जाति, धर्म, पंथ, रंग जैसी तमाम चीजों के जरिये लोगों में सिर्फ नफरत का जहर ही घोलती है.

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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