शिवाजी-राणा के लिए लड़ रहे मुसलमान कौन थे? 'गंगा-जमुनी तहजीब' का दूसरा पहलू
मुगलों को हीरो बनाने के लिए बड़े-बड़े विद्वान और इतिहासकार मध्यकाल में हिंदू योद्धाओं की तरफ से मुसलमानों के लड़ने का उदाहरण देते हैं. कभी आपने रूककर सोचा कि इसके पीछे क्या था.
-
Total Shares
जब महान सम्राट पृथ्वीराज चौहान के वंशज बाबा बरियार शाह के वंशज भी औरंगजेब को अपना हीरो मान बैठे हैं फिर पाकिस्तान में मुल्तान के बुकियाना राजपूत मुसलमान पर क्या नाराज होना. जेहाद की आंधी में बुकियाना तो बहुत पहले ही भूल गए थे कि वे आखिर कौन हैं? बाबा बरियार के मामले में अच्छी बात यह है कि पृथ्वीराज अभी भी उनकी स्मृतियों में हैं और इस वजह से लगातार भारतीय बने हुए हैं. अच्छी बात सिर्फ इतनी है कि बलूच लड़ाकों के जेहन में अभी भी नानी मां (हिंगलाज माता) और तमाम भारतीय सम्राटों के लिए थोड़ी इज्जत बची है. भारतीयता के लिए इतना भी कम नहीं है, बशर्ते वह बरकरार रह पाए.
विदेशी आक्रमणकारियों को महामानव और संत बताने के लिए जो तर्क दिए जाते हैं- उसमें सबसे बड़ा तर्क यही दिया जाता है कि उस समय लड़ाई हिंदू-मुस्लिम नहीं थी. वो तो महज सत्ताओं की लड़ाई थी. दो राजा लड़ते थे. या दो रियासतें लड़ती थी. हम मान भी लेते हैं. क्योंकि हमें इतिहास में पढ़ाया जाता है कि भारत में राष्ट्रवाद तो था ही नहीं. दूसरा बड़ा तर्क ये दिया जाता है कि वो लड़ाइयां हिंदू-मुस्लिम इसलिए नहीं थीं क्योंकि राणा सांगा, महाराणा प्रताप से लेकर छत्रपति शिवाजी महाराज तक के साथ मुस्लिम योद्धा कंधे से कंधा मिलाकर लड़ते रहे. हिंदू-मुस्लिम लड़ाई होती तो मुगलों के खिलाफ मुसलमान क्यों लड़ते?
हम इतिहास की बातों को मानते आए हैं. परीक्षाओं में लिखने के लिए बावजूद कि पता नहीं कौन सी चेतना है जो बार-बार उसे झुठलाती रहती है. बर्बरता, अमानवीयता भी कोई युद्ध है क्या? आज तक कोई एक इतिहासकार नहीं मिला जिसने बर्बरता को दर्ज किया हो. आप सवाल करेंगे तो- खारिज कर दिया जाता है. लेखक, सम्पादक, प्रोफ़ेसर या इतिहासकार का कहना ज्यादा मायने है. भले ही वह इतिहास के नाम पर अपने पेशे का दुरुपयोग कर रहा हो.
शिवाजी महाराज और महाराणा प्रताप.
भारत में कभी ललित आदित्य का इतिहास नहीं पढ़ाया जाता है. ललित आदित्य पर इतिहास तंग क्यों है भाई? वह योद्धा जो तिब्बत से पामीर तक साहसिक और सफल अभियान चलाने वाले आख़िरी भारतीय सम्राट नजर आते हैं. जिन्होंने पश्चिम से उत्तर तक भारत के लिए एक बड़ी सुरक्षा दीवार बनाई. यह दीवार उनके बहुत बाद दाहिर की हार के साथ ढह गई. ललित आदित्य के इतिहास में ही हम राजा रजवाड़ों के संघर्ष में एक और इतिहास पाते हैं लेकिन जिस औपनिवेशिक चेतना में हम रहते आए हैं वहां भी ठहर ही नहीं पाते.
ध्यान दीजिएगा- कश्मीर के सम्राट ललित आदित्य बड़े-बड़े अभियान पर निकलते हैं. कन्नौज के राजा यशोवर्मन से शुरू-शुरू में उनके मैत्रीपूर्ण संबंध हैं जो बाद में शत्रुता में बदल जाते हैं. बावजूद जब ललित आदित्य अरब के बर्बर जनजातियों का दमन कर रहा होता है कश्मीर में उसका राज्य पूरी तरह सुरक्षित है. जैसे वह राज्य कहीं युद्ध में शामिल ही ना हो. सीमाओं पर कोई असंतोष नहीं. कुछ कुछ रूस यूक्रेन संकट में रूस की तरह. हजार बारह सौ साल पहले के दौर में ऐसी कल्पना सिर्फ भारत में की जा सकती है. इतिहासकारों के लिए इसमें भी आकर्षण नहीं है?
यशोवर्मन चाहता तो भला ललित आदित्य को काबू करने के लिए इससे बेहतर मौका और क्या हो सकता है. लेकिन यशो वर्मन का भारतीय धर्म उसे अनुमति देता. भारत का धर्म यही है जो किसी मंदिर में दिए जलाने या किसी मस्जिद में नमाज पढ़ने से किसी मामले में कम नहीं है. ध्यान रहे- दोनों भारतीय राजा कल्पनाभर नहीं हैं. उनके साक्षात सबूत बिखरे पड़े हैं.
#1. बाबा बरियार शाह
इतिहासकार 'चिट भी अपनी पट' भी अपनी के सिद्धांत पर चालाकी से तर्क गढ़ते हैं. आगे बढ़ने से पहले बाबा बरियार शाह के बारे में जानते हैं जिनका जिक्र इंट्रो की पहली ही लाइन में आया. तराइन की दूसरी लड़ाई में सिर्फ नौजवान पृथ्वीराज चौहान ही शहीद नहीं हुए थे. वहां से बहुत कुछ टूटने और ख़त्म होने का सिलसिला भी शुरू हुआ था. बाबा बरियार शाह वत्सगोत्रीय राजपूत थे. कहा जाता है कि पृथ्वीराज के भाई चाहिर देव के वंशज थे. पहले पृथ्वीराज और उसके बाद कन्नौज में जयचंद की हार के बाद दोनों शक्तिशाली राजाओं के नियंत्रण में अजमेर-दिल्ली-कन्नौज से दूर कई छोटे-छोटे सरदारों ने खुद को स्वतंत्र घोषित कर अपने राज्य बना लिए. एक झटके में उत्तर भारत बिखर गया था.
पृथ्वीराज और जयचंद के रिश्तेदार- जो जंग में बचे रह गए थे उन्हें पश्चिम की तरफ जाने का मौका नहीं था. हिमालय के पहाड़ों के बजाय वे उत्तर के मैदानों में पीछे हटते गए. मुसलमान बनो, मारे जाओ या कहीं और भाग जाओ. यही विकल्प था उनके पास. निश्चित ही वे यहां-वहां जंग में भाग रहे होंगे. क्योंकि अकबर के बादशाह बनने तक समूचे उत्तर-पश्चिम में भारी उथल-पुथल दिखती है. बाबा बरियार शाह के परिवार ने बाबर के समय में इस्लाम स्वीकार कर लिया था. कैसे- यह नहीं पता. बरियार शाह उत्तर की तरफ आ गए. आज के सुल्तानपुर में उन्होंने आसपास के ठाकुरों को हराकर एक छोटी सी गढ़ी बनाई. बहुत प्रामाणिक नहीं है, लेकिन हिंदू राजाओं के लिए बरियार शाह के लड़ने के तथ्य दिए जाते हैं. राजपूतों में भी उनकी प्रतिष्ठा है. आप बताइए मध्यकाल में बाबा बरियार शाह या उनके वंशज विदेशी आक्रमणकारियों या मुगलों के खिलाफ लड़ रहे थे तो उसके पीछे क्या भावना रही होगी? क्या वह विदेशियों से बदला या भारतीयता की भावना से ओतप्रोत नहीं थे.
हसन खां मेवाती- फोटो विकिपीडिया से साभार.
#2.राणा सांगा के साथी हंसन खां मेवाती और महमूद लोदी का सच
राणा सांगा मेवाड़ के सबसे महत्वपूर्ण शासकों में से एक थे. उन्होंने अपने जीवन में ना जाने कितने युद्ध किए. ज्यादातर जंग विदेशी योद्धाओं से ही था. इसमें भी बाबर के साथ साल 1527 में हुई खानवा की लड़ाई महान मेवाड़ के दुख की शुरुआत बनी. खानवा में राणा सांगा के साथ दो योद्धा- हंसन खां मेवाती और महमूद लोदी मोर्चे पर थे. राजा नाहर खान (पहले राजा सोनपर पाल नाम था) को हंसन खां मेवाती का पूर्वज बताया जाता है. खानवा की लड़ाई से करीब 128 साल पहले ही फिरोजशाह तुगलक के समय राजा सोनपर मुसलमान बने थे. वही तीन स्थित्तियां होंगी. बावजूद कई पीढ़ियों तक उनके वंश में राजपूत और भारतीय जिंदा रहा.
खानवा की जंग में हंसन खां मेवाती के शौर्य का कोई तोड़ भारतीय इतिहास में नहीं मिलेगा. वे वीरगति को प्राप्त हुए. मेवात और राजपुताना आज भी उनके नाम का जयकारा लगाता है. उसी मोर्चे में महमूद लोदी भी था- जिसने आख़िरी मौके पर राणा सांगा को धोखा दिया और बाबर से जा मिला. बाबर ने इब्राहिम लोदी को हराकर ही दिल्ली पर कब्जा किया था. उसके वंशज बाबर से बदले का मौका तलाश रहे थे. उन्हें लगा- राणा सांगा कर सकते हैं. लेकिन युद्ध में जिहाद का नारा देने वाले बाबर के साथ लोदी चला गया बावजूद हंसन खां ने माटी के लिए शहादत चुनी. मेवाती के शौर्य और स्वाभिमान से वह राणा की ढाल बनकर खड़े रहे. मुझे समझ में नहीं आता कि हसन खां राणा के साथ क्यों थे? उन्हें तो जिहाद के नाम पर बाबर के साथ जाना चाहिए था? चालाक इतिहासकार इस सवाल का कभी जवाब नहीं दे पाएंगे.
शेरशाह सूरी.
#3. महाराणा प्रताप के साथ हकीम शाह का सच
हल्दीघाटी की लड़ाई में अकबर की सेना के खिलाफ कीका महाराणा प्रताप का साथ हकीम शाह ने दिया था. वह भी उस स्थिति में जब लगभग समूचा राजपुताना अकबर के साथ ही था. राजपुताना में अकबर का दमन कैसा रहा होगा- अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं. अकबर की सेना का नेतृत्व भी राजपूत ही कर रहे थे. इतिहासकारों ने गंगा-जमुनी तहजीब की नदियाँ बहाने के लिए यह तो बता दिया कि कीका के साथ हकीम शाह भी था, लेकिन यह नहीं साफ़ किया कि हकीम शाह कौन था?
हकीम शाह- सूरी वंश का था. शेरशाह सूरी ने अकबर के पिता हुमायूं को भारत से बाहर खदेड़कर दिल्ली में सूरी वंश की स्थापना की थी. सिर्फ पांच साल के शासनकाल में सूरी के जरिए इतिहासकारों ने उस जमाने में जितने काम करवा दिए आज किसी प्रधानमंत्री को करने में कम से कम दस साल लग जाएंगे. 10 साल पहले कर भी पाता यह भी असंभव लगता है. इस पर फिर कभी बात होगी. हकीम शाह मुसलमान की हैसियत से राणा प्रताप के साथ युद्ध करने नहीं गया था. बल्कि दिल्ली में उसकी अपनी महत्वाकांक्षा थी. शेरशाह सूरी भी किसी राजवंश का नहीं था. बल्कि बाबर की सेना में था और धीरे-धीरे मुगलों को पछाड़कर दिल्ली का बादशाह बना.
#4. शिवाजी के मुस्लिम साथी
शिवाजी के हिंदवी साम्राज्य की ताकत मुसलमान भी थे इसमें कोई शक ही नहीं. इनमें भी तोपची इब्राहिम खान गर्दी, नौसैनिक कमान सिदी संबल, मदारी मेहतर और मौलाना हैदर अली थे. इन्हें मुसलमान तो बताया जाता है, लेकिन इतिहासकार एक बात छिपा ले जाते हैं जिसकी वजह से शायद आज इनके वंशज भी औरंगजेब को अपना हीरो समझते हैं.
असल में तोपची इब्राहिम खान गर्दी भील जनजाति से थे. महाराष्ट्र और दक्षिण की भील जनजाति से थे. विदेशी हमलावरों ने लड़ाकू जनजातियों का तलवार के जोर पर धर्मांतरण करवाया. जाहिर सी बात है कि वे युद्धों में हारे होंगे. सिदी भारत पहुंची अफ्रीकी मूल की जनजाति है जो आज भी कई जगहों में पाई जाती है. यह भी लड़ाका जाति है. शिवाजी की सेना में सिदियों की भरमार थी. इन्होने भी धर्मांतरण किया. हालांकि सिदी आज भी मानते हैं कि भगवान् की पूजा गीत संगीत और नृत्य से की जाती है. मदारी मेहतर ने आगरा से भागने में शिवाजी की मदद जान की बाजी लगाकर की थी. वह भी धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बना था.
लोग ऐसा कहते हैं कि मुगलों के समय में ताकतवर लड़ाकू जातियों को जबरन मुसलमान बनाया गया और उन्हें सामजिक रूप से नीचा दिखाने के लिए भिश्ती और मेहतरों का काम दिया गया- गुलामों की तरह. कई अनुसूचित जातियों का दावा है कि वे कभी क्षत्रीय जनजातियां थीं और सदियों की दासता से उनका मौजूदा वर्तमान बना. राजभर-पासी जैसे समाज ऐसा ही दावा करते हैं. मानव विज्ञान में ऐसा होने की पूरी संभावना है.
महाराजा रणजीत सिंह.
यादव क्षत्रपों ने भी किया धर्मांतरण
यादव भी क्षत्रीय जनजातियां थीं. वेदों-पुराणों के समय से ही यह एक ताकतवर तबका था. जमींदारी और रजवाड़े मिलते हैं. यादवों ने भी विदेशी अक्रमणकारियों से अलग-अलग हिंदू राजाओं या सेनाओं के साथ युद्ध किया. इनकी छोटी-छोटी सियासतें भी थीं. पुराणों के दौर में तो हम्पी और विजयनगर जैसी रियासतें यादवों की ही थीं. भारत के एक बड़े भूभाग पर इन्होंने राज किया. मुगलों के जमने के बावजूद इनका दबदबा कभी कम नहीं हुआ और इसकी एक वजह बड़े पैमाने पर धर्मांतरण भी था. घोसी मुसलमान असल में यादव से धर्मांतरित बताए जाते हैं. ये लोग आज भी खुद को घोसी यादव राजपूत ही मानते हैं.
अयोध्या में फैजाबाद स्टेशन के दूसरी तरफ धर्म बदलकर मुसलमान बने अहीरों यानी यादवों की अच्छी खासी आबादी है. मुसलमान बनने के बावजूद तमाम अभी भी पशुपालन के पेशे से अलग नहीं हुए हैं. वे अपनी पुरानी जड़ों को भी याद करते नहीं. हो सकता है कि अयोध्या में बाबर के अभियान के वक्त धर्मांतरण हुआ हो या उससे पहले या बाद भी हो सकता है. उच्च जातियों के धर्मांतरण की वजह में यह भी नहीं कहा जा सकता कि सामजिक कारण रहा हो. हां एक वजह राजनीतिक और आर्थिक हो सकता है.
कुल मिलाकर मुगलों के खिलाफ जो मुसलमान लड़ रहे थे- इतिहासकार जानबूझकर उनकी सच्चाई को छिपाते हैं. ये तो महज कुछ उदाहरण भर हैं. उत्तर से दक्षिण तक भारत की लड़ाकू जनजातियों के ना जाने कितने ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं. इतिहास के रास्ते एजेंडा के तहत कुछ लोग यह प्रचार काफ्राते रहते हैं. इनसे सावधान रहना चाहिए.
सिख इतिहास का यह तथ्य जरूर बच्चों को बताए, मुगलों की संतई के लिए दुरुपयोग की आशंका है
कुल मिलाकर मुगलों के इतिहास में चौतरफा बर्बरता की पराकाष्ठा औरंगजेब के शासन में दिखी. नौंवे गुरु तेग बहादुर जी का गर्दन काटने के बाद तो सिखों का सब्र पूरी तरह से जवाब दे चुका था. मुश्किल से कुछ ही दशकों बाद सिखों को इतिहास ने मौका दिया. पंजाब में वीरगति तय मानकर निकले सिखों का तूफानी लश्कर सीधे लाल किले पर फतह करने पहुंचा. भला जान की बाजी लगा चुके लोगों के सामने कौन टिकता है. ये मिसल की लश्कर थी. लश्कर में विख्यात कमांडर जस्सा सिंह अहलूवालिया, जस्सा सिंह रामगढ़िया और बघेल सिंह थे. मुग़ल, खालसा लश्कर से आंख मिलाने तक की हिम्मत नहीं जुटा पाए.
मुगलों की इतनी शर्मनाक हार इतिहास में और कोई नहीं है. लाल किला सिख सेना का अड्डा बन गया. कई दिनों तक. मुगलों के सामने लाल किला वापस करने की बड़ी शर्त दिल्ली में सात गुरुद्वारों का निर्माण करने की थी. इसमें से एक "शीशगंज गुरुद्वारा" वही है जहां गुरु तेग बहादुर का सिर औरंगजेब के आदेश पर शहीद किया गया था. मुगलों ने सभी शर्त मान ली. इसके कुछ ही साल बाद पश्चिम में महाराजा रणजीत सिंह और उनके चीफ कमांडर हरि सिंह नलवा ने अफगानिस्तान तक भारत की बहादुरी का जो इतिहास लिखा उसकी मिसाल कहीं नहीं है. बावजूद यह दुर्भाग्य की बात है कि इतिहास की किताबों और कुछ अखबारों, विदेशी पोर्टल पर महाराजा रणजीत सिंह का शौर्य पढ़ाने की बजाय उनकी लवस्टोरी और पश्चिम में मुसलमानों के प्रति उनकी सहृदयता का ही बखान किया जाता है.
इतिहास के तथ्यों को लेकर खुद सावधान रहें और अपनी आने वाली पीढ़ियों को भी सतर्क करें. भारत का सबक यही है.
आपकी राय