अभी तक पेशाब करने के लिए कौन सी जगह खोजते थे किन्नर!
आधारभूत जरुरतों जैसे पेशाब करने तक के लिए थर्ड जेंडर के लोगों को सार्वजनिक स्थानों पर कोई जगह नहीं थी ! आखिर किस तरह के अमानवीय समाज का हिस्सा रहे हैं हम?
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किन्नरों को देश की मुख्यधारा में लाने और लोगों के साथ उन्हें जोड़ने के मकसद से 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने देश में थर्ड जेंडर यानी किन्नरों को सरकारी कागजों में जगह दी थी. इसके बाद कोर्ट ने सार्वजनिक स्थानों पर उनके लिए अलग शौचालयों के निर्माण का निर्देश दिया था. लेकिन कोर्ट के निर्देशों को हमारे यहां कितनी गंभीरता से लिया जाता है इसकी मिसाल है ये आंकड़ा, कि अगस्त 2016 तक पूरे देश में सिर्फ मैसूर ही ऐसा एकमात्र शहर था जहां थर्ड जेंडर वालों के लिए सार्वजनिक शौचालय की व्यवस्था की गई थी. हालांकि पूरे मैसूर में भी सिर्फ एक ही ऐसा शौचालय बनाया था.
पर्वत तो अब पिघलनी ही चाहिए
लेकिन अब समाज में इन लोगों की भागीदारी को बढ़ाने के लिए केंद्रीय पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय भी आगे आया है. पिछले दिनों मंत्रालय ने एक सर्कुलर जारी कर कहा है कि थर्ड जेंडर के लोगों को अपनी पसंद के सार्वजनिक शौचालय सुविधाओं का उपयोग करने की अनुमति दी जानी चाहिए. इसका अर्थ ये है कि थर्ड जेंडर के किसी भी व्यक्ति को अपनी इच्छा के अनुसार पुरुष या महिला शौचालय दोनों का उपयोग करने की अनुमति दी जाएगी.
सर्कुलर में कहा गया है- 'कई समुदायों में थर्ड जेंडर को अक्सर मुख्यधारा से अलग कर दिया जाता है. लेकिन स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) को अब आगे बढ़कर प्रमुखता से ये प्रयास करना चाहिए कि उन्हें भी स्त्री और पुरुषों की तरह समान नागरिक की पहचान मिले और शौचालयों के उपयोग में इनसे किसी तरह का कोई भेदभाव ना बरता जाए. उन्हें किसी भी समुदायिक या सार्वजनिक शौचालयों में अपनी पसंद (पुरुष या महिला) के टॉयलेट का उपयोग करने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए.'
4 अप्रैल को मद्रास उच्च न्यायालय ने भी तमिलनाडु सरकार को शहर के कुछ हिस्सों में थर्ड जेंडर के लिए सार्वजनिक शौचालयों के निर्माण का आदेश दिया था. खासकर उन इलाकों में जहां थर्ड जेंडर समुदाय के लोग बड़ी संख्या में रहते हैं वहां इनके लिए खास सामुदायिक या सार्वजनिक शौचालयों के निर्माण का आदेश दिया था.
मुख्यधारा में इन्हें भी जगह मिल रही है
2011 की जनगणना के अनुसार पूरे देश में 4.9 लाख थर्ड जेंडर समुदाय के लोग हैं. हालांकि इस समुदाय के लोगों का दावा है कि असली आंकड़ा इसके 6 से 7 गुना ज्यादा होगा. इसमें से 55,000 की उम्र 0-6 साल के बच्चे हैं. ये अपने आप में एक सुखद बदलाव है कि अब माता-पिता आगे बढ़कर अपने बच्चे के लिंग को स्वीकार कर रहे हैं.
चौंकाने वाली बात ये हैं कि थर्ड जेंडर की पहचान वाली कुल जनसंख्या का 66 प्रतिशत आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है. सबसे पहले नंबर पर 28 प्रतिशत थर्ड जेंडर आबादी के साथ उत्तर-प्रदेश है. यहां 1 लाख 37 हजार थर्ड जेंडर लोगों की पहचान की गई. दूसरे नंबर पर आंध्र-प्रदेश (9%) है जहां 44000 थर्ड जेंडर लोग रहते हैं. तीसरे नंबर पर महाराष्ट्र (8%) और बिहार (8%) है जहां 41,000 थर्ड जेंडर लोगों की पहचान की गई. पश्चिम-बंगाल और मध्यप्रदेश में 30000, तमिलनाडु में 22000, ओडिसा और कर्नाटक में 20000 और राजस्थान में 17000 थर्ड जेंडर लोग रहते हैं.
इस समुदाय के लोगों में शिक्षा का हाल देखें तो देश के 74 प्रतिशत के मुकाबले इनका आंकड़ा सिर्फ 46 प्रतिशत का है. इसी तरह काम करने वालों में सिर्फ 38 फीसदी थर्ड जेंडर वाले हैं. खैर जो भी हो जनगणना में इनको जगह मिलने और सरकार के इस तरह की नीतियों से उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने में सहायता मिलेगी.
हालांकि सार्वजनिक शौचालय के प्रयोग में थर्ड जेंडर को असुविधा हो सकती है क्योंकि अभी भी अधिकतर लोग उनके प्रति असहजता का ही भाव रखते हैं. इस कारण से शुरुआत में हो सकता है कि उन्हें लोगों की अटपटी नजरों, अजीब व्यवहार, तानों या फिर हिंसा का भी सामना करना पड़ सकता है. लेकिन हमारे देश में अधिकार मांगने से नहीं लड़ने से मिलता है. इतनी जद्दोजहद के बाद ये लोग यहां तक अपनी पहचान बना पाए हैं तो लोगों के घूरने और फब्तियां कसने से इन्हें कोई खास फर्क नहीं पड़ना चाहिए और अपने अधिकार का उपयोग खुलकर करना चाहिए.
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