पद्म पुरस्कार पाने वाले इन नामों को जानकर आप चौंक जाएंगे
हमारे समाज में ऐसे अनेकों लोग हैं जो प्रचार-प्रसार से कोसों दूर रहकर अपने जन हितकारी कामों को अंजाम दे रहें हैं. इस बार पद्म सम्मान की सूची में समाज की कई ऐसी विभूतियों के नाम शामिल हैं जिनकी उम्र 90 वर्ष से लेकर 99 वर्ष तक है.
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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सत्ता में आने के बाद एक चीज जो सबसे बेहतर की है वह हा "पद्म" सम्मान को लॉबी से मुक्त कर समाज के सही गुमनाम नायकों और उसके असली हकदारों को सम्मानित करना. वरना पहले "दिल्ली लॉबी" इसे मैनेज कर लेती थी. पद्म सम्मान की सूची में राजनेताओं और समाजसेवा के नाम पर कुछ समृद्ध पेशेवर लोगों के नाम देखकर आम लोगों की नजर में इनका महत्व कम होने लगा था.
हर साल पद्म सम्मान की सूची में सरकारों के सिफारिशी नाम शामिल होते रहे हैं. आजादी के बाद शायद यह पहला अवसर है जब पद्म सम्मान देते वक्त गुमनामी के भंवर में भुला दिये गये समाज के असली हकदारों की खोज-खबर ली गयी हो. पूर्व पैरालंपिक खिलाड़ी मुरलीकांत पेटकर को जो सम्मान 48 साल पहले मिल जाना चाहिये था, वह इस बार मिलेगा. ऐसे ही कई और लोग हैं जिनकी खोज-खबर सरकार को लेनी होगी.
- इस साल घोषित किये गये पद्म सम्मान पाने वाले नामों में सबसे बेहतरीन और प्रेरक कहानी पश्चिम बंगाल की सुभाषिनी मिस्त्री की है. सुभाषिनी दूसरों के घरों में काम करती थी. 12 साल की उम्र में ही उनकी शादी हो गयी थी. उनका पति भी मजदूर था. शादी के 10 साल बाद उनका पति बीमार हुआ. सुभाषिनी ने अपने पति को इलाज के अभाव में मरते देखा. 23 साल की उम्र में विधवा होने वाली सुभाषिनी ने तय किया कि वह कुछ ऐसा करेगी कि उसका कोई अपना इस तरह न मरे. वह दिन में मजदूरी और रात में लोगों के घरों में काम कर पैसा जुटाने लगी. अपने बेटे को पढने के लिये अनाथालय भेज दिया.लोगों के घरों में कामकर बेटे को डॉक्टर बनाया. अब अपने अस्पताल में मुफ्त इलाज दती हैं
उन्होनें 25 साल में तिनका तिनका जोड़कर एक 25 बेड का अस्पताल बनवा दिया. इस बीच उनका बेटा भी डॉक्टर बन गया. आज 75 साल की सुभाषिनी मिस्त्री अपने डॉक्टर बेटे के साथ उसी अस्पताल में गरीबों का मुफ्त इलाज करती हैं. पति को मरता देख उस वक्त जो झेला, अब वह चाहती है कि वैसा कोई और न झेले. उसकी जिद और संघर्ष की यह सफर बेमिसाल है. सच्चा पद्म सम्मान यही है.
- पुणे में रह रहे 84 वर्षीय मुरलीकांत पेटकर 1965 में भारत-पाकिस्तान के युद्ध में बुरी तरह घायल हो गए थे. इस युद्ध में पेटकर को 7 गोलियां लगी थी. बचने की कोशिश में वह एक आर्मर ट्रक से सामने गिर पड़े और कुचले गए. पेटकर को दिल्ली के सेना अस्पताल में भर्ती कराया गया जहां वो 17 महीनों तक कोमा में रहे. होश में आने पर उन्हें पता चला कि उनकी रीढ़ की हड्डी में गोली लग जाने के कारण उनकी कमर से नीचे के हिस्से को लकवा मार गया है.
भारत को पहला स्वर्ण दिलाया
1972 में जर्मनी में हुए खेलों में पैरालंपिक खिलाड़ी मुरलीकांत पेटकर ने स्विमिंग में भारत के लिए पहला स्वर्ण पदक जीता. उनसे पहले किसी भी खिलाड़ी ने सामान्य ओलंपिक खेलों में भी व्यक्त्गित रूप से भारत के लिए स्वर्ण पदक नहीं जीता था. सेना के पूर्व जवान मुरलीकांत पेटकर ने न सिर्फ भारत के लिए पहला सोना जीता, बल्कि उन्होंने सबसे कम समय में 50 मीटर तैराकी प्रतियोगिता जीतने का विश्व रिकार्ड (पैरालंपिक) भी बनाया था. उन्होंने यह रेस 37.33 सेकेंड में पूरी की थी. उस वक्त 1968 से भारत पैरा ओलंपिक गेम्स में हिस्सा लेते आ रहा था, लेकिन कोई पदक नहीं जीत सका था.
- खेत मजदूर सुलगति नरसम्मा कर्नाटक के जनजातीय इलाकों में प्रसव सहायिका का काम करती हैं. 97 वर्षीय नरसम्मा पिछले 70 सालों से कर्नाटक के पिछड़े इलाकों में बिना किसी सरकारी सुविधा के नि:शुल्क प्रसव करवाती हैं. गर्भ में शिशु की नब्ज, सिर और अन्य स्वास्थ्य स्थितियों के बारे में जान लेने की अद्भुत प्रतिभा ने उन्हें अपने इलाके में ‘जननी अम्मा’ का खिताब दिया है. उनकी सेवा को देखते हुये तुमकुर विश्वविद्यालय ने उन्हें मानद डॉक्टरेट की उपाधी से नवाजा है. ये जब पद्म पुरस्कार ग्रहण करेंगी तो इनके हाथों जन्म लेने वाले 15000 से ज्यादा बच्चे खुशी से किलकारियां भरते नजर आयेंगें.
गरीबों की जननी अम्मा!
- केरल में ताड़ के पत्तों से बनी झोपड़ी में रहने वाली 75 वर्षीय आदिवासी महिला लक्ष्मीकुट्टी अपने पुरखों से मिले ज्ञान से औषधि तैयार करती हैं. इसे बाजार में हर्बल मेडिसिन कहा जाता है. वे जिस इलाके में रहती हैं वहां के आम लोगों की सांप, बिच्छू का काटना सबसे बड़ी समस्या है. लक्ष्मीकुट्टी इन जहरीले जीवों के जहर की भी दवा तैयार करती हैं. अब तक हजारों लोगों को उनकी औषधि से फायदा पहुंचा है. उनकी यादाश्त इतनी तेज है कि आज भी उनको 500 प्रकार की औषधियां बनाने का तरीका याद है. उन्हें प्रति वर्ष कई प्रदेशों की विभिन्न संस्थायें प्राकृतिक औषधि विषय पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित करती हैं.
आयुर्वेद में इनका कोई तोड़ नहीं
- हिमाचल प्रदेश के 90 वर्षीय येशी धोंडेन ऐसे भिक्षु चिकित्सक हैं जो स्थानीय लोगों की सेहत संभालने में अपना पूरा जीवन समर्पित कर चुके हैं. वह हिमाचल प्रदेश के दूर दराज के इलाकों में सेवाएं दे रहे हैं. येशी धोदेन तिब्बती धर्म गुरू दलाई लामा के पूर्व निजी चिकित्सक भी रहे हैं. येशी धोंडेन, मेन-त्सी-खंग तिब्बती मेडिकल कॉलेज, धर्मशाला में संस्थापक भी है.
तिब्बती आध्यात्मिक नेता दलाई लामा के दो दशकों से निजी चिकित्सक रह चुके बुजुर्ग बौद्ध भिक्षु येशि धोंडेन को दवा के क्षेत्र में योगदान के लिए पद्म श्री सम्मान के लिए चुना गया है. गेशे न्गावांग समतेन के बाद वह यह प्रतिष्ठित सम्मान पाने वाले दूसरे तिब्बती हैं. केंद्रीय तिब्बती प्रशासन ने एक बयान में कहा- "हम उनके निजी योगदान व तिब्बती दवाओं की मान्यता को बधाई देते हैं, जिसे अब अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में इसके चिकित्सकीय गुणों के कारण तेजी से खोजा जा रहा है."
तिब्बत के दूसरे व्यक्ति जिन्हें पद्म सम्मान दिया गया
धोंडेन 1960 से दलाई लामा के निजी चिकित्सक रहे थे. 1959 में दलाई लामा तिब्बत से पलायन कर भारत आए थे. धोंडेन को रोगियों के प्रभावी उपचार करने को लेकर ख्याति हासिल है. उन्हें कैंसर का विशेषज्ञ माना जाता है. धोंडेन मैकलियोडगंज में रहते हैं. यह तिब्बत की निर्वासित सरकार का मुख्यालय है. 1979 तक धोंडेन तिब्बतेन मेडिकल एंड एस्ट्रोलॉजिकल इंस्टीट्यूट के निदेशक व प्राचार्य थे. उन्होंने 63 सालों से सभी प्रकार के मरीजों का इलाज किया है. मैकलियोडगंज के बुजुर्गों का कहना है कि धोंडेन यहां आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा व उनके अनुयायियों के साथ 1960 में आए थे.
- स्वतंत्रता सेनानी सुधांशु बिस्वास को पद्मश्री सम्मान सामाजिक सेवा के लिए मिलेगा. सुधांशु बिस्वास 99 साल की उम्र में 18 स्कूल चलाते हैं, जिसमें वो बच्चों को मुफ्त शिक्षा और खाना देते हैं. सुधांशु जब सातवीं कक्षा में पढ़ते थे तब पहली बार उनकी मुलाकात स्वतंत्रता सेनानी नृपेन चक्रवर्ती से हुयी थी. तभी वे उनसे जुड़ गए थे. कोलकाता के अलबर्ट हॉल में जब स्वतंत्रता सेनानियों पर ब्रिटिश पुलिस के नृशंस अत्याचार हो रहे थे तब बिस्वास वहां से भाग निकले. 1939 में मैट्रिक की परीक्षा दे रहे थे, तभी परीक्षा हॉल से उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. हालांकि बाद में उन्हें परीक्षा देने की अनुमति दी गई, लेकिन तभी से बच्चों की निर्बाध शिक्षा का बीज मन में घर कर गया था.
1948 में सुधांशु जी विवेकानंद से प्रभावित हो गए और घर छोड़कर हिमालय में साधुओं के साथ रहने लगे. 14 साल की साधना के बाद 1961 में वे फिर सामने आए. उन्होंने पश्चिम बंगाल के सुदूर ग्रामों में श्री रामकृष्ण सेवाश्रम नाम से एक स्कूल और आश्रम स्थापित किया था. वहां बच्चों को मुफ्त शिक्षा दी जाने लगी. कुछ समय तक सरकारी अनुदान मिलता रहा, लेकिन इन्होंने बाद में यह भी लेना बंद कर दिया. अब स्वयं ही स्कूल और आश्रम चलाते हैं.
- राजस्थान में त्रिवेणी धाम के संत श्री नारायणदास महाराज को अध्यात्म के क्षेत्र में पद्म पुरस्कार दिया जाएगा. नारायणदास ने त्रिवेणी धाम में विश्व की प्रथम पक्की 108 कुंडों की यज्ञशाला का निर्माण करवाया. परोपकार के कार्यों से जुड़े रहने के कारण इन्हें पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया जायेगा. महाराज त्रिवेणी के बड़े संत होने के साथ-साथ गुजरात के डाकोर धाम की ब्रह्मपीठाधिश्वर गद्दी के महंत भी हैं. उन्होने शिक्षा, चिकित्सा, गौ सेवा, समाज सेवा तथा अध्यात्म के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान दिया है. इनका हमेशा से शिक्षा तथा स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान रहा है तथा लोगों को शिक्षित तथा निरोगी रखना इनके जीवन का प्रमुख ध्येय रहा है.
शिक्षा के लिए इन्होंने जयपुर में जगदगुरु रामानंदाचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय, चिमनपुरा में बाबा भगवानदास राजकीय कृषि महाविद्यालय तथा बाबा भगवानदास राजकीय पीजी महाविद्यालय, शाहपुरा में लड़कियों के लिए पीजी कॉलेज तथा त्रिवेणी धाम में वेद विद्यालय की स्थापना तथा संचालन में अमिट योगदान दिया है. शिक्षा की तरह स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी जयपुर तथा निकटवर्ती जिलों में कई अस्पताल भी संचालित कर रहे हैं. नारायणदास महाराज जनता के पैसे को जनकल्याण पर ही खर्च करने की प्रेरणा देते हैं इस लिए सिंहस्थ में आने वालों के लिए प्रतिदिन दोनों समय लगभग पंद्रह हजार से भी अधिक लोगों के भोजन की व्यवस्था करवाते हैं.
ये तो कुछ उदाहरण है जिनके नाम हम गिना रहे हैं. हमारे समाज में ऐसे अनेकों लोग हैं जो प्रचार-प्रसार से कोसों दूर रहकर अपने जनहितकारी कामों को अंजाम दे रहें हैं. इस बार पद्म सम्मान की सूची में समाज की कई ऐसी विभूतियों के नाम शामिल हैं जिनकी उम्र 90 वर्ष से लेकर 99 वर्ष तक है. ऐसे लोगों ने अचानक से तो इस साल ऐसा कोई चमत्कार किया नहीं बल्कि ये सभी लोग वर्षों से अपने-अपने कार्यों को बिना किसी पदक या सम्मान की आस में अंजाम देते आ रहे थे. उनको तो समाज के गरीब, पीडि़त की सेवा करने का अपना कार्य अनवरत जारी रखना ही था.
मगर शायद सरकार को उनके सामाजिक हित के कार्य नजर नहीं आ रहे थे. अबकी बार सरकार ने एक अच्छी शुरूआत की है. सरकार ने सम्मान के असली हकदारों को सम्मानित करने का जो प्रयास शुरू किया है वह हर साल इसी तरह जारी रहनी चाहिये. इस सही व नेक कार्य के लिये सरकार बधाई की पात्र है.
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