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Updated: 05 जुलाई, 2016 07:17 PM
राकेश चंद्र
राकेश चंद्र
  @rakesh.dandriyal.3
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पहाड़ों पर रहने वाले ही जान सकते हैं कि पहाड़ों की आपदाओं के मायने क्या हैं. दिल्ली/देहरादून मैं बैठा इंसान पहाड़ों के बारे में आंकलन नहीं कर सकता. यह एक हकीकत है जो कि भारत के हुक्मरानों को साफ तौर से समझ लेनी चाहिए. आप आपदाओं के समय अपनी तरफ से हर प्रकार की सहायता वहां भेज सकते हैं, लेकिन काश यह सहायता उन लोगों तक पहुंच पाती.

मुझे इस बात का अहसास तब हुआ जब पहली बार मार्च 1999 में चमोली में भूकम्प आया, जब गांव के गांव तबाह हो गए थे. जो लोग रोड साइड पर थे उन्हें हर प्रकार की सहायता मिली, लेकिन जो लोग दूर-दराज के इलाकों में थे उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं था. खैर उस जमाने में आधुनिक तकनीक, दूरसंचार के साधन नहीं थे. लेकिन दूसरा वकया केदारनाथ आपदा के दौरान देखने को मिला. जब तमाम आधुनिक साधनों के बाबजूद सरकारें हाथ पे हाथ धर कर बैठ गई. परिणामस्वरुप हजारों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी.

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पिथौरागढ़ में बादल फटने से अब तक 20 लोगों की मौत हो चुकी है

सवाल उठता है कि मौसम विभाग की चेतावनी को आखिर क्यों अनदेखा किया जाता है? प्रशासन क्यों हाथ में हाथ धर कर बैठ जाता है? दरअसल भौगोलिक परस्थितियां इसके लिए जिम्मेवार हैं. सरकार सहायता ही पंहुचा सकती है लेकिन जब वह उन लोगों तक ही नहीं पहुंच सकती जिन्हें उसकी जरुरत है, तो इसमें सरकार का क्या दोष. रास्ते बंद, संचार बंद, ऊपर से हवाई तंत्र भी बंद हो तो सहयता पहुंचे तो पहुंचे कैसे.

इस विषय का तोड़ आपदा से जुड़े लोगों को सोचना पड़ेगा. पिथौरागढ़ में बादल फटने के पांच दिन गुजर जाने के बाद भी संचार व्यवस्था शुरू नहीं हो पाई है. आपदा विभाग को चाहिए कि प्राकृतिक घटनाओं से निपटने के लिए बड़े पैमाने पर गांव, ब्लॉक, तहसील लेवल पर लोगों को आपदाओं से निपटने के लिए प्रशिक्षण दिया जाए, जिससे की आपदाओं से निपटा जा सके.

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 आपदाओं से निपटने के लिए प्रशिक्षण दिया जाए

पिथौरागढ़ में हुई बादल फटने के घटना इसका जीता जागता उदहारण है, रात एक बजकर तीस मिनट पर शुरू हुई बर्बादी सुबह 6 बजे तक जारी रही. ना प्रशासन को पता चला ना सरकार को. दोपहर एक बजे जाकर प्रशासन को पता चला, जिले के अधिकारी घटना स्थल की ओर भागे लेकिन पहुंचते कैसे? रास्ते बंद, संचार व्वयस्था ठप्प, आसमान में घनघोर बदल अंधेरा, इस वक्त हेलीकाप्टर भी बचाव कार्य शुरू नहीं कर सकता था.

जून 16, 2013 में केदारनाथ घाटी में आई भयंकर विनाशलीला के बाद भारत सरकार ने दावा किया था कि उत्तराखंड में तीन डॉप्टर वेदर रडार लगाए जायेंगे- एक मसूरी में, एक नैनीताल में और एक अल्मोड़ा में(दो पर काम जारी है कब बनेंगे यह तो भारत सरकार ही बता सकती है). तीन साल गुजरने के बाद भी स्थिति जस की तस बनी हुई है. सरकारें फण्ड का रोना लगाकर बैठी हैं. गौरतलब है कि डॉपलर राडार अचूक भविष्वाणी करने में समर्थ है. यह रडार जो कि डॉप्लर इफेक्ट पर काम करने वाला ये रडार, बारिश, आंधी, तूफान के आने की रफ्तार और उसके जाने की रफ्तार को दो या चार घंटे पहले बता देता है कि किस जगह पर आंधी, तूफान और बारिश का कितने बजे असर होगा.

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 मार्ग बाधित होने पर मदद पहुंचाने में परेशानी

राष्ट्रीय आपदा विभाग के आंकड़ों पर अगर गौर करें तो 2002 से 2016 तक उत्तराखंड में(केदारनाथ घटना को छोड़कर) बादल फटने की घटनाओं में 126 लोग मारे गए हैं. अगर हाल फिलहाल की घटनाओं को भी जोड़ दें तो यह आंकड़ा 156 है.

आखिर उत्तराखंड, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर  और नार्थ ईस्ट में इस तरह की घटनाएं  पिछले 6 सालों में ऐका एक क्यों बढ़ रही हैं, और वह भी जुलाई और अगस्त महीनों में? क्या आपदों से जुड़े विभागों ने इसके बारे में कभी सोचा? शायद जवाब नहीं में है . केंद्र सरकार को बॉर्डर के इन राज्यों में हो रही इस प्रकार की घटनाओं को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए.  दुःख तब ज्यादा  होता है जब राजनीतिक पार्टियां भी संवेदनशील होने के बजाय संवोदनहीन हो जाती हैं. वक्त दुखी लोगों के घाव पर मरहम रखने का है ना कि राजनीति का. बस्तडी गांव के बचे लोगों से जाकर पूछो, मीडिया के पत्रकारों से पूछो कि कैसे वे लोग बिन रास्तों के बस्तडी पहुंचे? उत्तराखंड सरकार ने मारे गए लोगों के परिवारों को दो-दो लाख रुपए देने की घोषणा कर दी है, लेकिन देश के मुखिया की ओर से संवेदना के अलावा कोई शब्द नहीं निकला .

लेखक

राकेश चंद्र राकेश चंद्र @rakesh.dandriyal.3

लेखक आजतक में सीनियर प्रोड्यूसर हैं

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